Ek thi Nachaniya - 29 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | एक थी नचनिया - भाग(२९)

Featured Books
Categories
Share

एक थी नचनिया - भाग(२९)

जब श्यामा रागिनी को अपनी कहानी सुना चुकी तो फिर श्यामा ने कहा....
"मेरी कहानी तो तुमने सुन ली,लेकिन अपनी कहानी भी तो सुनाओ कि आखिर तुम्हें डकैत बनने की जरूरत क्यों पड़ गई"?
तब रागिनी बोली....
"मेरी कहानी सुनकर क्या करोगी श्यामा बहन! कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो खुद तक सीमित रखने में ही भलाई होती है,अगर उन्हें बाँटने का सोचो तो दर्द बढ़ जाता है और फिर इतनी पीड़ा होती है कि सहन करना मुश्किल हो जाता है"
"लेकिन रागिनी! मैं अब तुम्हारे लिए गैर तो नहीं,मुझसे अपना दुख बाँटने में भी क्या तुम्हारी पीड़ा नहीं जाएगी", श्यामा बोली...
"नहीं! श्यामा! ऐसा कुछ नहीं है,सालों से इस बोझ को अपने सीने में दबाकर मैं भी थक चुकी हूँ,कभी किसी ने पूछा नहीं है तो वो ग़म दिल से बाहर निकला ही नहीं और अब वो ग़म नासूर बन चुका है,इसलिए मैं नहीं चाहती थी कि उस जख्म को कुरेदूँ",रागिनी बोली....
"तुम अगर मुझसे अपना दर्द बाँट लो तो हो सकता है कि शायद मैं तुम्हारे जख्म के लिए मरहम बन जाऊँ", श्यामा बोली....
"लेकिन श्यामा! कहीं तुम मेरे दर्द को सुनकर उसका मज़ाक तो नहीं बनाओगी",रागिनी बोली....
"जिसका दुख खुद एक मज़ाक बनकर रह गया हो तो वो दूसरों का मज़ाक क्यों बनाऐगी भला?",श्यामा बोली....
"श्यामा! ये किस्मत भी ना जाने कैसें कैसें खेल खिलाती है हम औरतों को,हमारी बेबसी और लाचारी का ये समाज तमाशा बनाकर रख देता है,एक सीता जैसी स्त्री को चण्डी बनने पर मजबूर कर देता है"रागिनी बोली....
तब श्यामा बोली....
"सच कहती हो तुम रागिनी! इतना दर्द,इतनी पीड़ा,इतना शोषण,इतना अपमान,इतना बेगानापन देखकर हमारी आत्मा काँप जाती है,फिर ये जीवन भी बेमानी से लगने लगता है,आखिर क्यों किया जाता है हम औरतों को इतना प्रताड़ित,क्यों कोई नहीं सुनता हमारी फरियाद और जब हम अपनी फरियाद लेकर किसी के पास जाते हैं तो हमें दुत्कार भगा दिया जाता है,फिर जब हम समाज के विरुद्ध जाकर अपने दुश्मनों से बदला लेने लगते हैं तो तब भी तो ये जमाना हमें रुसवा करने से नहीं चूकता,इस पुरुष प्रधान समाज में सुनी जाएगी भला कभी हमारी फरियाद या हमें यूँ तिल तिल कर मरना पड़ेगा,जलना पड़ेगा,अगर उस समय हमारी कोई सुन लेता जब हम पीड़ित थे,अबला थे लाचार थे तो फिर हमें क्यों ऐसा कदम उठाना पड़ता"....
"हाँ! श्यामा! मैं भी कभी कभी यही सोचा करती हूँ,उस समय क्या गुजरी होगी मेरे दिल पर जब उस लखना डकैत ने मेरी ही आँखों के ही सामने मेरी पूरी दुनिया उजाड़ दी,मैं चीख रही थी,चिल्ला रही थी और घर की औरतों ने मुझे पकड़ रखा था ताकि मैं बाहर ना जा सकूँ"
इतना कहकर रागिनी फूट फूटकर रो पड़ी तब श्यामा ने उसे खुद में समेट लिया और उससे बोली....
"जितना गुबार भरा है तुम्हारे मन में तो निकाल दो रागिनी! नहीं तो जी नहीं पाओगी",
तब रागिनी ने श्यामा को अपनी आपबीती सुनानी शुरु की....
बात उस समय की है जब मैंने सोलहवीं पार करके सत्रहवीं में कदम रखा था,मेरी शादी भी तय हो चुकी थी,तीन महीने बाद मेरा ब्याह आषाढ़ मास में होने का तय हुआ था,क्योंकि चैत्र माह में मेरे बड़े भइया का ब्याह होना तय हुआ था,ब्याह की तैयारियांँ जोर शोर से शुरू थीं,घर के आँगन में मिठाइयों के लिए कढ़ाव चढ़ चुके थे,तरह तरह की मिठाइयांँ तैयार की जा रहीं थीं,भइया ने अपने लिए लड़की खुद ही पसंद की थी इसलिए भइया और भी चहक रहे थे,लड़की मेरे ननिहाल की थी,भइया कभी किसी शादी में ननिहाल गए होगे तो उन्होंने भाभी को वहाँ देखा और पसंद कर लिया,फिर बड़े बुजुर्गों की रजामंदी से रिश्ता तय हो गया, लड़की सुन्दर और गुणवती थी घराना भी अच्छा था इसलिए अम्मा बाबूजी को भी इस रिश्ते से कोई एतराज़ ना था.....
मेरे बाबूजी जज थे और भइया अभी शहर में रहकर वकालत पढ़ रहे थे,उनकी वकालत अभी पूरी नहीं हुई थी,जितना सम्भव हो सकता था तो बाबूजी ने मुझे भी पढ़ाने की कोशिश की थी,लेकिन मैं केवल आठवीं तक ही पढ़ पाई क्योंकि हमारा परिवार बहुत बड़ा था,मतलब मेरे बाबूजी के बहुत से ताऊ और चाचा थे इसलिए वे बड़े बुजुर्गों की सलाह पर ही चलते थे इसलिए जैसा दादा दादी और रिश्तेदारों ने कहा तो बाबूजी को उनकी बात मानकर मेरी पढ़ाई रोकनी पड़ी,क्योंकि दादी तो अक्सर मेरी पढ़ाई के खिलाफ़ थी वें कहा करतीं थीं कि लड़की को घर के कामकाज और कढ़ाई बुनाई सिखाओ,वही ताउम्र काम आएगा, पढ़कर इसे कौन सा कलेक्टर बनना है जो इसे आगें पढ़ाया जाए,बाबूजी बड़े बुजुर्गों के आगे मजबूर हो गए और मेरे आगें पढ़ने पर मनाही हो गई फिर जब मैं चौदह की थी तो दादा जी स्वर्ग सिधार गए और दादी उनके ग़म में एक साल के भीतर ही उनके पीछे पीछे चलीं गईं...
हाँ! तो भइया की शादी की तैयारियांँ हो रहीं थीं,हमारा घर बहुत बड़ा हुआ करता था,घर के आँगन में दोनों ओर कोठरियाँ बनीं थीं और बीच में कच्चा आँगन था जहाँ एक ओर किनारे पर नीम के पेड़ के नीचे कुआँ था और उसी घर के आँगन में भइया की शादी का मण्डप छाया गया,आम के पेड़ की पत्तियों से और रंग बिरंगे पतंगी कागज की झण्डियों से मण्डप को सजाया गया था,उसी मण्डप के नीचें भइया को हल्दी और तेल चढ़ाया गया,मायने वाले दिन ननिहाल से अनगिनत मामा मामी आएं,ननिहाल के सारे मामा उस दिन इकट्ठे हुए थे,अम्मा ने उनका जोरदार स्वागत किया और उन सभी मामा मामियों ने अम्मा की झोली को खुशियों से भर दिया,खूब आशीष दी उनके बेटे को,खाने में कच्चा खाना बनाया गया जैसे की चने की दाल,कढ़ी पकौड़ी,चने का सुखाया गया साग(सुस्का),तली मिर्च,दही बड़े,आम का अचार,चावल ,रोटी और भी बहुत कुछ,फिर दूसरे दिन दूल्हे को सजाकर बारात बहू को विदा कराने चल पड़ी......
बारात विदा होकर आ चुकी थी,बहू का निहारन हो चुका था,सारे नेगचार पूरे होने के बाद बहू ने घर की देहरी पर अपने महावर लगे पग धरे और हल्दी भरी हथेलियाँ उसने घर के दरवाजो पर लगाईं,इसी बीच किन्नर भी गाते नाचते अपना नेग लेने आ पहुँचे,बाबूजी ने उन्हें वही दिया जो वो चाहते थे और खुश होकर वें भी भइया और भाभी को आशीष देकर चले गए,इसके बाद घर की औरतों और पड़ोस की औरतों ने मुँह दिखाई की रस्म निभाई,इन सबसे निपटकर अब सब खाने पीने में लग चुके थे,घर के आँगन में ही सब हो रहा था, क्योंकि उस समय हल्की गर्मी हो चली थी,इसलिए सब वहीं बैठे अपना अपना काम निपटा रहे थे,साँझ ढ़ल चुकी और रात गहराने लगी तो सभी ओर गैस लालटेनों का उजाला कर दिया गया.....
नई बहू भी बाहर ही बैठी थी और उन्हें भी अम्मा मौसी के साथ मिलकर खाना खिला रहीं थीं और मुझे काम मिला था भइया के कमरें को फूलों से सजाने का जो कि मैं मुहल्ले की दो तीन भाभियों के साथ इस काम को निपटा रही थी और साथ साथ हमारी हँसी ठिठोली भी चल रही थी क्योंकि भाभियाँ मेरे साथ मज़ाकर करके कह रही थी कि कुछ महीनों बाद तुम्हारी भी ऐसे ही सेज सँजेगी.....
रात के लगभग नौ बज चुके थे और तभी हमारे घर के दरवाजे पर घोड़ो की टापें सुनाईं दीं और फिर एक हवाई फायर चलने की आवाज़ आई और सभी वो हवाई फायर सुनकर हैरान हो उठे......

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....