Andhayug aur Naari - 34 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी - भाग(३४)

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अन्धायुग और नारी - भाग(३४)

मेरी पलकें झुकतीं देख वें मुझसे बोले...
"अरे! आप तो शरमा गईं"
"जी! मुझे कुछ अजीब सा लग रहा है आपके मुँह से मेरी तारीफ़ सुनकर",मैंने कहा...
"लेकिन वो क्यों भला"?,उन्होंने पूछा...
"वो इसलिए कि आपने उस दिन मेरे लिए उन लफ्जों का इस्तेमाल किया था और आज ऐसा कह रहे हैं इसलिए",मैंने कहा....
"उस दिन मैंने आपका वो रुप देखकर वो लफ्ज़ कहे गए थे लेकिन आज जो मैं आपका ये रुप देख रहा हूँ तो मुझे बड़ी हैरानी हो रही है कि आप इस सादे लिबास और बिना गहनों के इतनी खूबसूरत भी लग सकतीं हैं",वें बोले....
"चलिए छोड़िए जनाब! मज़ाक मत कीजिए",मैंने कहा...
"ये मज़ाक नहीं है मोहतरमा! मेरे दिल से निकली हुई आपकी तारीफ़ है",उन्होंने कहा....
"तो मैं आपको इस रुप में अच्छी लगती हूँ",मैंने कहा...
"हाँ! मोहतरमा! आज आपकी सादगी गजब ढ़ा रही है,अपने घर पहुँचकर जरा अपनी नज़र उतार लीजिएगा,ऐसा ना हो कहीं आपको मेरी नज़र लग जाए",वे बोले....
"सच कहते हैं आप!",मैंने पूछा....
"हाँ! बिलकुल सच",उन्होंने कहा.....
हम दोनों के बीच बातें चल ही रहीं थीं कि कमरें की खिड़की पर लड़को का हुजूम सा लग गया,सब मुझे देखने के लिए खिड़की पर इकट्ठा हो गए और जब मेरी नज़र उन सब पर पड़ी तो अचानक ही मेरे मुँह से निकल गया....
"हाय! दइया! ये सब लोग यहाँ क्या कर रहे हैं"?
तब उस ओर से एक बोला....
"त्रिपाठी जी! क्या अकेले अकेले ही देवी के दर्शन करेगें,जरा हमारा तआरूफ़ भी करा दीजिए उनसे,उन्हें बताइए कि हम सभी आपके पड़ोसी हैं"
"हाँ....हाँ...क्यों नहीं? ये आप सबसे तआरुफ़ करने ही तो यहाँ आईं हैं,क्योंकि इसके अलावा और कोई काम तो इन्हें है नहीं",त्रिपाठी जी बोले....
"आप तो बुरा मान गए त्रिपाठी जी!",दूसरा बोला...
"नहीं....नहीं...इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है,आप लोग खिड़की के बाहर क्यों खड़े हैं,कृपया वहीं से छलाँग मारकर भीतर आ जाइए ना!",त्रिपाठी जी बोले....
"ऐसे थोड़े ही होता है त्रिपाठी जी!",तीसरा बोला.....
"कितने बेशर्म हैं आप लोग,इतनी बातें सुनकर भी ठीट बनकर वहीं खड़े हैं,जाते क्यों नहीं यहाँ से,किसी के कमरे में ताक झाँक करना क्या अच्छी बात होती है",त्रिपाठी जी बोले....
"अरे!आप तो खफ़ा होते हैं ",चौथा बोला....
"जब आप सबको मालूम है कि मैं आप सबकी बेइज्ज़ती कर रहा हूँ तो फिर आप सब यहाँ क्यों खड़े हैं"?, त्रिपाठी जी बोले....
"ये अच्छी बात नहीं है त्रिपाठी जी",पाँचवाँ बोला....
"हाँ! वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि ये बिल्कुल भी अच्छी बात नहीं है किसी के कमरें में बेवजह झाँकना इसलिए कृपा करके आप सब यहाँ से तशरीफ़ ले जाएँ,त्रिपाठी जी बोलें...
"अब आप कह रहे हैं तो हम सब चले जाते हैं यहाँ से,जब अपना यार ही बेवफा हो जाएँ तो फिर किसी और से क्या शिकवा करना",चौथा बोला....
"हाँ....भाई! मैं हूँ बेवफा",त्रिपाठी जी बोलें....
"चलो यारों! अब भी कुछ सुनना बाक़ी रह गया है क्या ",दूसरा बोला....
"हाँ! यार! अब तो ये ग़म सहा नहीं जाता",तीसरा बोला....
"हाँ....हाँ....मुझे फर्क नहीं पड़ता,तुम लोग कितना भी नाटक कर लो लेकिन मैं तुम लोगों को कमरें के भीतर नहीं आने दूँगा",त्रिपाठी जी बोले....
"भाई! एक बार तो आने दे ना कमरे के भीतर!",चौथा बोला....
"ना! बिलकुल नहीं!",त्रिपाठी जी बोले....
"कितने बेरहम हो भाई"!पहला बोला....
"बहुत ज्यादा बेरहम हूँ मैं और बोलो",त्रिपाठी जी बोले....
"भाई! और कितनी बेइज्जती कराएगा यहाँ खड़ा रहकर,देखता नहीं कि लड़की के कारण भाई के तेवर बदले हुए हैं",दूसरा बोला....
"हाँ! यार! बहुत बेइज़्ज़ती हो चुकी है,अब यहाँ से चलने में ही भलाई है",तीसरा बोला
और फिर सब मुँह बनाकर वहाँ से चले गए तो मैंने त्रिपाठी जी से कहा....
"बड़े ही दिलचस्प दोस्त हैं आपके"
"अजी! दिलचस्प नहीं कमीने कहिए,बड़े आए आपसे मुलाकात करने वाले",त्रिपाठी जी बोले....
"लेकिन आप ने उन लोगों के साथ ठीक नहीं किया",मैंने त्रिपाठी जी कहा...
"तो क्या उन्हें कमरे के भीतर बुलाकर आपसे मुलाकात करवाता",त्रिपाठी जी बोले....
"तो इस में क्या बुराई थीं"? मैंने पूछा...
"मेरा जमीर मुझे इस बात की इजाज़त नहीं देता",त्रिपाठी जी बोले....
"लेकिन क्यों",मैंने पूछा...
"क्योंकि आप मेरी मेहमान हैं",त्रिपाठी जी बोले...
"लेकिन आप भूल रहे हैं कि कितने ही मेहमानों की मेहमाननवाजी मुझे हर रात करनी पड़ती है",मैंने कहा...
"वो आपकी जगह है और आप चाहे वहाँ जो भी करें,लेकिन ये मेरा कमरा है और मेरे यहाँ औरतों की केवल इज्जत की जाऐगी",त्रिपाठी जी बोले....
"आप एक तवायफ़ से इज्जत की बात कर रहे हैं,हम तवायफ़ो के पास इज्ज़त कहाँ होती है त्रिपाठी जी",मैंने कहा...
"मुझे कुछ नहीं मालूम,बस मैं ये जानता हूँ कि आप एक औरत हैं और आपकी इज्ज़त होनी ही चाहिए, इसलिए उस रात जब आप अपने जिस्म की नुमाइश कर रहीं थीं तो मुझे वो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा और मेरे मुँह से आपके लिए ऐसे अल्फ़ाज़ निकल गए,उस रात मेरे गुस्से की वही वजह थी और मैंने आपकी तुलना भिखारिन से कर दी",त्रिपाठी जी बोले....
"ओह...अब मैं समझी,इसका मतलब है कि आपका दिल आइने की तरह साफ है और मैं ना जाने आपको क्या क्या समझ रही थी",मैंने कहा...
"और क्या क्या समझा आपने मुझे",त्रिपाठी जी ने पूछा...
"जी! बस रहने दीजिए,आपको बता दिया तो कहीं आप नाराज़ ना हो जाएंँ",मैंने मुस्कुराते हुए कहा....
"कहीं अड़ियल टट्टू तो नहीं बना दिया था आपने मुझे",त्रिपाठी जी बोले....
"जी! आपको कैसें पता"?,मैंने पूछा...
"खैर मनाइए,अड़ियल टट्टू ही कहा आपने मुझे,पागल कुत्ता नहीं कहा",त्रिपाठी जी बोले....
"भला मैं आपके लिए ऐसे अल्फाज़ों का इस्तेमाल कैसें कर सकती हूँ",मैंने कहा....
"खैर! ये सब छोड़िए,ये बताइए चाय पिऐगीं,तो मँगवाऊँ",त्रिपाठी जी ने पूछा....
"जी! नहीं !आप तकलीफ़ ना उठाएँ",मैंने कहा....
"तो फिर आप को मैं घर के बने आटे और मेवे के लड्डू खिलाता हूँ,परसों ही घर से आएँ हैं",त्रिपाठी जी बोले...
"वो सब तो ठीक है लेकिन आपका खाना पीना कहाँ होता है",मैंने उनसे पूछा....
"जी!इसी मकान में ही नीचे ही बड़ा सा रसोईघर हैं,मकान मालिक ने वहाँ खाना बनाने के लिए एक महाराज और दो नौकर रख रखें हैं,वही सब हम सभी लड़कों के खाने का इन्तजाम करते हैं",त्रिपाठी जी बोले...
"खाना तो अच्छा मिलता होगा",मैंने पूछा...
"अजी! बस जैसे तैसे पेट भर लेते हैं,कहाँ घर का शुद्ध शाकाहारी भोजन और कहाँ यहाँ का मिलावटी भोजन",त्रिपाठी जी बोले.....
और फिर उन्होंने बातें करते करते पीतल की तश्तरी में आटे के दो लड्डू और गिलास में पानी भरकर मेरे सामने रख दिया और मैं लड्डू खाने लगी,लड्डू सच में बहुत ही स्वादिष्ट थे और मैंने दोनों लड्डू खतम कर दिए, फिर मैं वहाँ कुछ देर और रुकी,हम दोनों ने कुछ देर बातें की और फिर मैं ताँगे में बैठकर वापस आ गई ,लेकिन उस दिन मुझे मधुसुदन त्रिपाठी जी के एक अलग ही रुप के दर्शन हुए,मैं उन्हें जैसा समझ रही थी वे बिलकुल भी वैसे नहीं थे....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....