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गुमशुदा की तलाश



उसने रोज की तरह टीवी लगाया, तभी पीछे से धवल की आवाज़ आयी," लो हो गयी शुरू मम्मी की गुमशुदा की तलाश!" किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,स्वयं उसने भी नहीं।उसका इस समय पर टीवी लगाना और उसी समय किसी न किसी का टिप्पणी करना नियम ही बन गया है।इसलिए प्रतिक्रिया अपेक्षित भी नहीं है।

वह सोफे पर बैठ गयी, पाँव मूढ़े पर फैला कर टिका दिये।वह अब भी दूरदर्शन देखती है!डिश और इंटरनेट के ज़माने में?इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप भी प्रतिक्रिया देने के लिए वह बाध्य नहीं रही।नियम की तरह पूछे जाने वाले प्रश्नों पर नियमित उत्तर कब तक दिया जा सकता है!उसे दूरदर्शन के कार्यक्रम और रंग अब भी अच्छे लगते हैं, उद्घोषनाएँ पसंद आती हैं।दूरदर्शन की स्थापना के साथ ही शुरू हुए कुछ कार्यक्रम उसके जीवन का हिस्सा बन गये हैं,जैसे कृषि दर्शन।उसे देखकर वह न जाने किन काल्पनिक गाँवों में घूमती है और ग्रामीण परिवेश का आनंद लेती है।खेती करने के उपायों को सुनकर खेत खलिहानों की कल्पना का सुख वही जानती है।'गुमशुदा की तलाश' कार्यक्रम देखना भी जैसे आदत बन गयी है।शुरू-शुरू में संध्याकालीन सभा आरम्भ होते ही जब गुमशुदा व्यक्तियों की सूचनाएँ व चित्र स्क्रीन पर आते थे,वह बरबस रुक जाती, कहीं कोई देखा हुआ निकल आये तो?क्या पता इनमें से कोई उसे मिल चुका हो या मिल जाये तो?यह बात बिल्कुल अलग है कि अगले दिन तक उनमें से किसी का चेहरा या विवरण उसे याद नहीं रहता।फिर भी वह देखती है।कुछ चेहरे तो लगातार आते-आते परिचित लगने लगते, पर उनमें से कोई उसे कभी नज़र नहीं आया।

आज भी उस सूची में कुछ चेहरे परिचित लगे।कहाँ जाते होंगे ये लोग?उम्रदराज़ भी होते हैं कई और कुछ छोटी उम्र के भी।कहाँ ग़ायब हो जाते हैं मानवता के महासिंधु में?गुमशुदा लोगों की सूचना समाप्त होने पर कोई कार्यक्रम पसंद का होता तो चाव से देखती,पसंद का न होता तो भी देखती...दूरदर्शन चलते रहना नियम है।

शाम के यही दो-चार घंटे उसके अपने हैं जिनके साँझी ये अपरिचित गुमशुदा लोग हैं।पूरी दिनचर्या बँट गयी है, आज नहीं बरसों से।पिछले ही महीने उसकी शादी को सैंतीस साल हो गये।पता भी नहीं चला इतना वक़्त गुज़र गया।कभी कभी उसे लगता है,वह वहीं खड़ी है जहाँ सैंतीस साल पहले खड़ी थी।सिर्फ घटनायें और लोग उसके सामने से गुज़रते रहे हैं।कहने को तो वह मुंबई कहे जाने वाले इतने बड़े महानगर की पैदाइश है, यहीं पली-बढ़ी है लेकिन उसका संसार गली के मोड़ तक ही सिमटा हुआ है।

अपने इलाके की इस गली का यह मोड़ उसके लिए पचास साल पुराना है।तब पिताजी ने महानगर के इस दूरस्थ उपनगर में मकान लिया था।तब तक महानगर की पहचान और परिभाषा केवल मुख्य शहर से थी जो तब बॉम्बे या बम्बई कहलाता था।ये उपनगर उसकी मात्र शाखायें थीं।अब महानगर का अस्तित्त्व यहाँ तक फैल गया है और मुख्य नगर सोबो या टाऊन कहलाता है।पहले मुख्य नगर उपनगरों तक फैलने की कोशिश में था।आज सारा उपक्रम उपनगरों में होने से मुख्य नगर एक दूरस्थ शाखा की तरह है जो जुड़े होने के बावजूद अलग ही लगता है।इसलिए महानगर से उसका सम्बंध तब जैसा था अब भी वैसा ही है।वह महानगरीय मानसिकता के साथ उपनगर का ही हिस्सा रही है।

तब उनका घर गली के मोड़ पर था।सामने एक तिमंजिला मकान था जिसके पीछे खुला मैदान था।मैदान के एक छोर पर प्लास्टिक की चूड़ियाँ बनाने का कारखाना था जिसका धुआँ चिमनियों से निकलता रहता और हवा में प्लास्टिक जलने की हल्की गन्ध आती रहती थी।उस तिमंजिला मकान की पहली मंज़िल पर एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति अपने दो बेटों के साथ रहते थे।उनका बड़ा बेटा लगभग चालीस-पैंतालीस साल का था।उससे छोटा भी यूँ तो उम्र में बड़ा ही लगता था लेकिन दोनों भाइयों में उम्र का काफी अंतर होने के कारण वह उनमें से छोटा जान पड़ता था।

उसका खुद का पाँच भाई-बहनों का भरा-पूरा परिवार था।पिता सबसे बड़े थे इसलिए चाचा-बुआ वगैरह का आना जाना भी लगा रहता।घर में दादी भी थी और एक अनब्याही बुआ भी, जो उसकी शादी से छह साल पहले ही ब्याही गयी।इसलिए ये सब लोग उसके जीवन का अपरिहार्य हिस्सा रहे हैं।एक भरे-पूरे घर का सुख उसे सहज ही मिलता रहा है।चालीस साल पहले वह नयी पीढ़ी की प्रणेता थी।पिताजी या दादी 'आजकल की पीढ़ी' का संदर्भ उसकी ओर इशारा करके ही दिया करते थे।सौंदर्य के तत्कालीन मापदंडों पर वह खरी उतरती थी।दुबली-पतली कमर तक लम्बे घुंघराले बालों की चोटियाँ गूँथे, घुटनों तक की स्कर्ट पहने कॉलेज जाती।कॉलेज तक पहुँचने वाली अपने परिवार की वह पहली लड़की है।दूसरों को और उसे भी खुद से बहुत उम्मीदें थीं।वह पेंटिंग्स भी बनाती, माँ का हाथ भी बँटाती और चाची या बुआ आती तो उनका साथ भी देती।लेकिन बीए पूरी करने से पहले ही ब्याहकर यहाँ आ गयी।

सबकुछ अचानक ही हो गया था।सामने वाली तिमंजिला इमारत ही उसका ससुराल है।अपने घर की बालकनी में खड़े होकर सामने वह जिस व्यक्ति को आते-जाते,घूमते-फिरते या बूढ़े पिता को बालकनी में बिठाते-उठाते देखती थी,वही छोटा बेटा उसका पति बन गया।उसे पता ही नहीं था कि वह जिस व्यक्ति को यूँ ही देखा करती थी वह उसे यूँ ही नहीं देखा करता था।उसे कारण जानने में देर लगी, पर वह व्यक्ति वयस्क था और परिपक्व भी।उसने वह कारण तुरंत जान लिया और उसके बाबत फैसला भी तुरंत ले लिया।वह तो महज बीस की हुई थी, वह तेरह साल बड़ा था।उसने उससे कुछ भी नहीं कहा, बस बड़े भैया से मिलकर सीधे प्रस्ताव रख दिया।भैया ने उससे पूछा तो वह अवाक ही रह गयी।वह कुछ साल रुकना चाहती थी, बीए पूरी करना चाहती थी।लेकिन उस व्यक्ति की उम्र पहले ही उससे अधिक थी,इसलिए और रुकना सम्भव नहीं था।

एक दिन माँ ने अपनी साड़ी देते हुए कहा कि दामाद जी ने कहलवाया है कि वह स्कर्ट पहनना छोड़ दे।गली वालों को रिश्ते की खबर हो गयी है, इसलिए साड़ी पहनने की आदत डाले।उसे स्कर्ट पहनना पसंद था लेकिन उसने साड़ी पहननी सीख ली।अपने ऊपर किसी और के अधिकार का यह पहला अनुभव था।उसके लिए नयी साड़ियाँ आ गयी और उसके स्कर्ट उसकी चचेरी-फुफेरी बहनों में बँट गये।

उसका मायके से ससुराल तक का सफर सिर्फ सड़क पार करने भर का था।उतने ही में कितनी बदल गयी उसकी ज़िंदगी।सड़क पार करके ससुराल आने पर उसके लिए मकान और घर ही नहीं बदला, अपने आसपास के संसार को देखने का कोण भी बदल गया।अब भी उसके सामने तिमंजिला मकान था लेकिन उसके पीछे मैदान और धुआँ निकालती चिमनियाँ नहीं थी।अब सामने वाले तिमंजिला मकान की तीसरी मंज़िल उसका मायका थी।पहले वह तीसरी मंज़िल से पहली मंज़िल को देखती थी, अब पहली मंज़िल से तीसरी मंजिल वाले अपने घर को।रसोई से निकलती, गुज़रती माँ खिड़की पर दिख जाती।बालकनी से दादी हाथ हिलाकर हालचाल पूछ लेती।पिताजी और बड़े भैया ऑफिस जाते या आते दिख जाते।

लेकिन यह सबकुछ वह हर समय या हर रोज देख नहीं पाती थी।ससुराल में कदम रखते ही सास ने गृहस्थी का ज़िम्मा उसे सौंप दिया।वे तो जैसे इंतजार में ही थीं कि कब बहू आये और वे मुक्त हों।सास ने घर बहू को सौंपकर पति की देखरेख की ज़िम्मेदारी स्वयं ले ली।वयस्कों और बुजुर्गों के उस जमघट में बीस वर्षीय नवविवाहिता को किसी ने बच्ची नहीं समझा।उसने भी नये घटना चक्र को अपनाकर उसकी गति में स्वयं को ढाल लिया।दूसरे ही साल धवल हो गया और उसके तीन साल बाद शुचिता।व पूरी तरह घुल गयी अपने घर संसार में।सबकुछ अच्छा लग रहा था।पढ़ाई छूट जाने का दुःख हनीमून से लौटते-लौटते ही गुम हो गया।सास ने घर-गृहस्थी सौंपकर उसे ज़िम्मेदार तो बना ही दिया था, घर चलाने की आज़ादी और अधिकार भी दे दिये थे।रिश्तेदार भी उसके भाग्य और सास की सराहना करते।धवल और शुचिता होने के बाद उसके जेठ तो जैसे बच्चों के पालक ही हो गये।

उसके लिए मायके जाने का मतलब सिर्फ यही होता कि कभी-कभी बाज़ार से आते जाते कुछ देर माँ से मिल आती।रात रहने का तो प्रश्न ही नहीं था।सास-ससुर ने कभी कुछ नहीं कहा।मायके से कोई भी कभी भी आता-जाता था।वहाँ मेहमान आने पर सोने रहने के लिए जगह कम पड़ने पर उसके घर आ जाते।मायके से दूरी उसे कभी महसूस नहीं हुई,अलबत्ता ससुराल में वह भीतर तक धँस गयी।सारा दारोमदार उसी पर जो था।सास ने सारे ज़ेवर, सम्पत्ति उसके सुपुर्द कर दी।रसोई से तिजोरी तक सब उसके पास था।किसी ने उसे पूछा भी नहीं वह संभाल सकेगी या नहीं।आखिर अधिकार चलाने वाला पूछता कब है और अधिकृत होने वाले को कहने-पूछने का अधिकार होता कब है?सास ने जिस अधिकार से उसे यह सबकुछ सौंपा था,उसने उसके अधिकृत होकर उसे संभाल लिया।अधिकृत होना उसका कर्त्तव्य था।

सारे दिन के कामकाज के बाद शाम को वह टीवी लगा लेती।सास को रुचि नहीं थी।ससुर तो लेटे ही रहते।शादी के पाँच छह साल बाद ससुर गुज़र गये और उनके चार साल बाद सास भी चल बसी।बच्चे बड़े होने तक जेठ भी नहीं रहे।

उसके जीवन में कोई कमी नहीं थी।भगवान ने सबकुछ उसकी झोली में डाल दिया।पति की बहुत अच्छी नौकरी थी,लेकिन उनका शौक नौकरी के साथ-साथ उनसे बहुत कुछ करवाता था।उन्होंने इंटीरियर डिजाइनिंग का कोर्स किया और किसी के साथ पार्टनरशिप में काम भी शुरू किया।रात देर से लौटने का सिलसिला चलता रहा क्योंकि उनका शौक वहीं नहीं थमा।खेतीबाड़ी से लेकर छायाकारी तक जाने कितने ही शौक थे जिन्हें वे पूरा करना चाहते थे।उसकी दिनचर्या सुबह छह बजे से रात बारह बजे तक फैल गयी।बच्चे भी बड़े होकर अपने करियर में व्यस्त हो गये।धवल एक बहुत बड़ी कम्पनी में चार्टर्ड अकाउंटेंट बन गया और शुचिता एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करने लगी।सबके आने-जाने का समय अलग-अलग था लेकिन वह सबके लिए हर समय घर पर हाज़िर रहती।

इस बीच धवल के लिए रिश्ते आने लगे।उसके पति हर रिश्ते की चीरफाड़ करते।बहुत सारी तस्वीरों में से दो तीन निकाल कर उससे पूछते,' इनमें से कौन सी अच्छी है?' वह अपनी पसंद बताती तो कहते,' उहुँ,ये नहीं...ये बेहतर है,' और दूसरी लड़की पसंद करते।उस लड़की के परिवार से सम्पर्क भी करते लेकिन कुछ दिनों बाद जब पूछती कि क्या हुआ उस रिश्ते का तो कहते,' बेकार लोग थे, दो तीन और हैं देखकर बताना।'फिर वही सिलसिला दोबारा होता।पिता पुत्र बैठकर तसवीरें छाँटते तो वह भी साथ बैठ जाती।एक लड़की रीमा को पिता पुत्र दोनों ने पसंद कर लिया।वह रईस घर से है।उसी से धवल की शानदार तरीके से शादी हो गयी।छह महीने बाद नौकरी बदलकर वह अहमदाबाद चला गया।शुचिता की भी शादी हो गयी।

उसके ससुराल वाली इमारत को तोड़कर पाँच मंज़िला बना दिया गया।अब वह नयी इमारत की चौथी मंजिल पर आ गयी।चूड़ियों के कारखाने को पर्यावरण विभाग के आदेश के बाद बन्द कर दिया गया और वह मैदान नयी इमारतों से पट गया।मायके वाली इमारत जर्जर हो गयी पर टूटी नहीं।परिवार में अब केवल माँ और बड़े भैया थे,जो गली के दूसरे छोर पर बनी नयी इमारत में रहने चले गये।शेष भाई-बहन अपने अपने संसार में स्थापित हो चुके ।सारा इलाका उसके सामने पुरानी से नयी इमारतों में बदल गया।उसे महसूस नहीं हुआ लेकिन तिल-तिल करके बदलाव होता रहा।टीवी भी मात्र दूरदर्शन से बढ़कर सेटेलाइट चॅनल तक पहुँच गया।

सबकुछ अनवरत चलता रहा।आसपास सबकुछ बदल गया, नहीं बदली तो गुमशुदा लोगों की तलाश की प्रक्रिया।जाने क्यों दिनचर्या बदल जाने के बाद भी ये नहीं छूटा उससे।कुछ और देखना हो तो भी एक बार इनकी सूची देखकर ही चॅनल बदलती है।

शुचिता ने भी बेटे सोहम के होने के बाद उसी गली में चार कमरों का बड़ा फ्लैट खरीद लिया।उसके पति निशीथ को यह इलाका पसंद है।मुंबई में रहकर भी शांति और तसल्ली है यहाँ।पुराने पेड़ों के कारण हरियाली भी बहुत है।पुरानी इमारतें तोड़कर नयी बहुमंज़िला इमारतें और टॉवर बनाने से वहाँ की शान बढ़ गयी है।जिस प्रकार शुचिता वहाँ रहने लगी,उसी प्रकार बाकी लोगों के बच्चों ने भी वहीं फ्लैट्स ले लिए।एक तरह से पूरी अगली पीढ़ी भी पुरानी जड़ों के साथ वहीं बस गयी।लेकिन इस पीढ़ी का संसार उसकी तरह सीमित नहीं रहा।उसी गली में रहते हुए भी उनका संसार बहुत विस्तृत है, पूरी तरह महानगरीय चेतना और संवेदना से ओतप्रोत।अब यह इलाका महानगर का सुदूर उपनगर नहीं लगता, महानगर की विशालकाय देह का ही हिस्सा लगता है, पूरी तरह उससे संपृक्त।शायद इसीलिए उसकी तरह शुचिता की दुनिया विवाह के बाद उसी इलाके में रहते हुए भी वहाँ तक सीमित नहीं है।उसका दायरा महानगर ही नहीं देश की भौगोलिक सीमाएँ पार करके विदेशों तक फैल गया।स्वयं उसे विवाह के बाद से गृहस्थी से कभी फुर्सत मिली ही नहीं।उसके कारण किसी को परेशानी न हो, कोई शिकायत न हो,इस बात का कितना ध्यान रखती रही है वह।इसके विपरीत शुचिता ने कहीं जाना होता है तो वह सिर्फ कहती भर है, 'मम्मी अगले महीने मुझे फिनलैंड जाना है, आप अहमदाबाद के प्रोग्राम मत बना लेना।सोहम को आपके पास ही छोड़ कर जाऊँगी।' इतना कहकर शुचिता सोहम को उसके पास छोड़कर निशीथ के साथ मज़े में दस दिन फिनलैंड और नॉर्वे की सैर कर आयी।दफ्तर में रात देर तक कोई काम होता तो उसे फोन आ जाता और वह सोहम को संभाल लेती।उसका भी वक़्त कट जाता।

उसे कभी कभी रश्क़ होता है आजकल के बच्चों पर।नयी पीढ़ी उसे ज़्यादा क़ाबिल लगती है।घर, दफ्तर, समाज के साथ-साथ स्वयं को भी कितने मज़े में सम्भाल लेती हैं आजकल की लड़कियाँ।गृहस्थी इनके लिए बोझ है ही नहीं।हर काम के लिए तो नौकर हाज़िर है।नौकरों की तनख्वाह के लिए ही नौकरी करती हैं, सही है, लेकिन वह नौकरी भी अपनी मर्ज़ी से अपने पसंद की !अपनी मर्ज़ी का काम है, अपने तरीके की ज़िंदगी ! घर में खाने का मन न हो तो चुटकी में पिज़्ज़ा या चाइनीज़ का ऑर्डर दे देते हैं।आज क्या बनाना है इस शाश्वत प्रश्न से जूझना ही नहीं पड़ता इन्हें...घर के खाने की शर्त होती ही नहीं किसी की।

आजकल धवल-रीमा भी यहीं है और शुचिता-निशीथ भी।सबने बाहर से ही खाना मँगवाने की योजना बनायी है।तभी तो वह निश्चिंत होकर टीवी के सामने बैठी है।निशीथ कब आकर उसके पास खड़ा हो गया, उसे पता ही नहीं चला।यूँ भी निशीथ उससे बहुत बतियाता है।घर में सबसे ज़्यादा वह उसी से बातें करता और वह भी उससे खूब गप्पे लगाती है।निशीथ का उससे पुत्रवत स्नेह है,वह भी उसे वैसा ही मानती है।दामाद वाली औपचारिकता न निशीथ ने की न उसने।धवल से भी उसकी उतनी बातें नहीं होती जितनी निशीथ से।धवल घर पर हो तो भी पिता के साथ अधिक रहता।

'आप किसे ढूँढते हो मम्मी इसमें?' निशीथ ने बरबस पूछ लिया।
'किसी को ढूँढती थोड़े हूँ, बस देखती हूँ।'
'कोई मिल जाये तो क्या पहचान लोगे ?'
वह कुछ पल सोचती रही...' पता नहीं...कभी कोई मिले तो पता चले!'

रात को सबने मिलकर चाइनीज़ खाया।देर रात तक बातें की।अगले दिन शुचिता और निशीथ को कोलकाता जाना है, धवल और रीमा ने काठमांडू।कुछ दिनों तक वह बिलकुल अकेले रहने वाली है।ऐसा कम ही हुआ है।जब कभी शुचिता ने बाहर जाना होता तो वेधवल के यहाँ चले जाते हैं।शुचिता ने अकेले ही जाना हो तो वह सोहम को सम्भालती है।उसके पति के पास तो अभी भी कई शौक हैं पूरे करने के लिए।इस तरह बिलकुल अकेली वह कभी नहीं रही।

अगले दिन सुबह धवल गया और शाम को शुचिता।अब वह है और उसका टीवी।पूरा दिन कभी वह बालकनी से बाहर झाँक आती या रिमोट से चॅनल बदलती रही।शाम पाँच बजे दरवाज़े की घण्टी बजी।उसके नाम का बड़ा सा पैकेट उठाये कोई कुरियर वाला था।भला उसके नाम पर किस ने क्या भेज दिया?

पैकेट लेकर वह सीधे बेडरूम में आ गयी।भेजने वाले के नाम की जगह निशीथ का नाम देखकर वह चौंक गयी।अभी कल शाम ही तो गये हैं।

पैकेट खोलते ही वह अवाक रह गयी...पेंटिंग के सामान का पूरा बक्स था,साथ में एक लिफाफा...खोलकर देखा तो एक पुरानी तसवीर मिली...पुराने घर में सोफे पर बैठी उसकी चालीस साल पुरानी तसवीर।पीछे दीवार पर उसकी बनायी पेंटिंग्स थी।साथ वाली मेज़ पर भी उसी की बनायी पेंटिंग सजी थी।हाथ में पेंटिंग का ब्रश पकड़े, स्कर्ट पहने,सोफे पर किशोरावस्था की मादक अदा में वह...

कौन सी पुरातत्त्व की खुदाई में ढूँढ निकाला निशीथ ने इसे!कितनी बातें सिलसिलेवार याद आ गयी उस तसवीर से।भाई बहनों की ड्रॉइंग बुक में बहुत बार पेंटिंग वह बनाकर देती, जिसे अपनी बताकर वे अच्छे अंक लाते थे।बड़े भैया ने ही उसकी पेंटिंग्स को दीवार पर टाँग दिया था।दीवाली और नववर्ष पर उसने कितनी बार अपने हाथों से बना कर कार्ड रिश्तेदारों और सहेलियों को भेजे हैं।तब कहाँ होती थी ये आर्चीज़ की दुकानें जहाँ हर मौके और भावनाओं के छपे-छपाये कार्ड मिल जाते हैं।उसकी मेहनत से बनी पेंटिंग के कार्ड अपने आप में लाखों शब्दों की शुभकामनाएँ और भावनायें व्यक्त करते थे।वो पेंटिंग्स अब कहाँ हैं, वो कार्ड किसी ने सहेजे भी हैं या नहीं...कई चित्र और प्रश्न मन-मस्तिष्क में घूम गये।

तभी लिफाफे से एक पर्ची गिरी...एक सादे कागज पर कुछ पंक्तियाँ ...'एक गुमशुदा लड़की की तसवीर मिली है मम्मी, मैंने ढूँढ लिया है उसे,आप घर ले आइये उसे,प्लीज़...
निशीथ '.…..आखिरी शब्द तक पहुँचते उसकी आँखें धुँधला गयीं।

' अरे,सुनो...टीवी चल रहा है, तुम्हारे गुमशुदा के नाम आ रहे हैं...' उसके पति आ गये।वह टीवी चलता छोड़ आयी थी।उसके कानों में शब्द गूँज रहे है...रंग गोरा,क़द पाँच फुट दो इंच,चेहरा गोल...इसकी सूचना मिलते ही.....

' क्या कर रही हो, तुम्हारा प्रोग्राम आ रहा है,' उसके पति अंदर आ गये।

' बन्द कर दो टीवी...' कहकर वह बक्सा खोलने लगी...



© भारती बब्बर