Kalvachi-Pretni Rahashy - 71 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(७१)

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(७१)

इसके पश्चात विपल्व चन्द्र उन सभी को कुछ सैनिकों के निरीक्षण में अपने संग अपने राज्य मगधीरा ले आया और उन्हें एक ऐसे स्थान पर बंदी बना दिया जो उसके राजमहल से अत्यधिक दूर था,वो एक कन्दरा थी,वो बाहर से देखने में कन्दरा की भाँति दिखाई देती थी,किन्तु वो कन्दरा नहीं थी,उस के भीतर एक बड़ा सा प्राँगण था एवं वहाँ एक कूप भी था,उस प्राँगण में ही विपल्व चन्द्र ने उन सभी को बंदी बनाकर रखा था,किन्तु यहाँ उसने एक धूर्तता कर दी थी,कालवाची और महाराज कुशाग्रसेन को उसने एक ही कारागार में रखा था एवं दूसरे में उसने वत्सला ,व्योमकेश और अचलराज को रखा था,वो इसलिए क्योंकि गिरिराज ने उसे बताया था कि कालवाची को अब भोजन की आवश्यकता पड़ने वाली है और यदि उसने समय पर अपना भोजन ग्रहण नहीं किया तो उसकी शक्तियांँ क्षीण होने लगेगी,जिससे विवश होकर उसे अपना भोजन ग्रहण करना ही पड़ेगा और तब वो कुशाग्रसेन को हानि पहुँचाने का प्रयास करेगी, जिसे कुशाग्रसेन किसी शस्त्र के बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा किन्तु गिरिराज विपल्व को ये बताना भूल गया कि कालवाची कोई भी रुप धरकर कारागार से बाहर निकल सकती है....
यही योजना बनाई थी गिरिराज ने महाराज कुशाग्रसेन को मृत्यु तक पहुँचाने हेतु,उसे ऐसा प्रतीत होता था कि कालवाची एक प्रेतनी हैऔर वो अपना भोजन प्राप्त करने हेतु कुछ भी कर सकती है और यही सब सोचकर उसने कालवाची को महाराज कुशाग्रसेन के संग रखा था,जब भी विपल्व चन्द्र उस कन्दरा में उन सभी को देखने आता तो उसे सभी की दशा बिगड़ी हुई दिखाई देती थी,किन्तु कालवाची की दशा सबसे अधिक बिगड़ती दिखाई दे रही थी, अब भोजन ग्रहण ना करने से कालवाची के केश श्वेत होने लगे थे,उसकी त्वचा भी शुष्क हो चली थी एवं वो कुरुप होती जा रही थी,साथ में उसमें अब शक्ति की कमी भी होने लगी थी और कालवाची की ऐसी दशा देखकर विपल्व को ये सोच सोचकर अत्यधिक आनन्द आ रहा था कि अब कुशाग्रसेन अत्यधिक समय तक जीवित रहने वाला नहीं है....
और एक दिन कालवाची ने भूख से व्याकुल होकर एवं अपने शक्तियों को क्षीण होता देख महाराज कुशाग्रसेन से कहा.....
"मैं तुझे मारकर अपना भोजन ग्रहण करूँगी",
तभी उनके सामने के कारागार से सेनापति व्योमकेश बोले.....
"नहीं! कालवाची!ऐसा अनर्थ मत करना'
"मैं ऐसा ही करूँगी,मैं स्वयं को और अधिक प्रताड़ित नहीं कर सकती",कालवाची बोली....
"नहीं! कालवाची! तुम तो हम सभी की मित्र हो,तुमने हम सभी की सहायता करने का प्रण लिया है,तुम ऐसा कैसें कर सकती हो"?,वत्सला बोली....
"मैं शक्तिहीन होती जा रही हूँ,मुझे भोजन चाहिए",कालवाची बोली....
"ये मत भूलो कालवाची!तुम इनसे प्रेम करती थी",व्योमकेश जी बोले....
"किन्तु! तुम भूल रहे हो कि मैं एक प्रेतनी हूँ,मानवी नहीं,मैं तुमलोगों के संग थी तब मेरा हृदयपरिवर्तन हो गया था,किन्तु आज मैं विवश हूँ ,मुझे अपना भोजन ग्रहण करना है,नहीं तो मैं नष्ट हो जाऊँगीं"
तभी महाराज कुशाग्रसेन बोले.....
"सेनापति व्योमकेश! आप कालवाची से कुछ ना कहें,यदि वो मेरी हत्या करना चाहती है तो कर सकती है,इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं"
"ये आप क्या कह रहे हैं महाराज"?,अचलराज बोला....
"यही उचित होगा अचलराज! मैंने भी अपने स्वार्थ हेतु कालवाची का उपयोग किया था,अब उसका ऋण चुकाने का समय आ चुका है",महाराज कुशाग्रसेन बोले.....
"नहीं! महाराज!तनिक सोचकर देखें,यदि आपको कुछ हो गया तो गिरिराज रानी और भैरवी की क्या दशा करेगा",सेनापति व्योमकेश बोले....
"किन्तु! इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं है,मुझे अपना बलिदान देना ही होगा",
और ऐसा कहकर महाराज कुशाग्रसेन ने कालवाची के समक्ष अपना सिर झुकाते हुए कहा.....
"लो कालवाची!मैं स्वयं को तुम्हें सौंपता हूँ"
"नहीं! कालवाची! उन्हें हानि मत पहुँचाना,अपने अतीत को स्मरण करो,तुमने हम सबकी रक्षा का वचन दिया था और आज तुम ये क्या करने जा रही हो?",अचलराज बोला....
"हाँ! कालवाची! तुम एक स्त्री हो,जो कि दयालुता का प्रतीक होती है,तनिक दया दिखाओ महाराज पर,कुछ भी ऐसा मत करना जिससे भविष्य में तुम्हें लज्जित होना पड़े", वत्सला बोली....
"अचलराज! करने दो कालवाची जो भी वो करना चाहती है,वह जो भी करेगी वो अनुचित नहीं होगा", महाराज कुशाग्रसेन बोले...
तब सेनापति व्योमकेश बोले....
"एक बार और सोच लो कालवाची! तुम ने इन्हें प्रेम किया था कभी,तुम इनका कभी भी बुरा नहीं चाह सकती,अपनी शक्तियों के विषय में सोचो कालवाची! तुम अपनी शक्तियों के विषय में तनिक धैर्यतापूर्वक विचार करो,तुम अब भी इतनी क्षीण नहीं हुई हो,अब तुम सन्दूक में भी नहीं हो,अपने पंक्षी में रुप आकर उस कारागार से निकलने का प्रयास करो और उस दुष्ट विप्लव को दण्डित करो,उसे ही अपना भोजन बना लो,किन्तु महाराज को अपना भोजन मत बनाओ"
"हाँ! कालवाची! मैं तुमसे विनती करती हूँ ,ऐसा मत करो",वत्सला बोली....
और तभी एकाएक कालवाची सचेत हो उठी,उसने अपनी शक्तियों के विषय में सोचना प्रारम्भ किया और वो अपना रूप बदलने का प्रयास करने लगी,क्योंकि सायंकाल हो चुकी थी और विपल्व अब किसी भी समय वहाँ आ सकता था और यदि वो आ गया तो कालवाची का सारा प्रयास विफल हो जाएगा ,तब वो पुनः अपना रुप नहीं बदल पाएगी,इसलिए कुछ समय के प्रयास के पश्चात वो अपना रुप बदलने में सफल हो गई,वो पंक्षी बनकर सरलता से कारागार के बाहर निकल गई और पुनः उसने अपना पुराना बीभत्स रुप धरा और महाराज कुशाग्रसेन से क्षमा माँगते हुए बोली.....
"महाराज! क्षमा करें,मैं बहुत बड़ा अपराध करने जा रही थी"
"नहीं ! कालवाची! अपराध नहीं था वो ,वो तुम्हारी विवशता थी,तुम्हें भोजन की आवश्यकता थी और तुम केवल अपना भोजन ग्रहण करने जा रही थी",
और तभी उन सभी को कन्दरा के भीतर से किसी के आने का स्वर सुनाई दिया,वो कदाचित विपल्व ही था,उसके भीतर आते ही कालवाची वहीं कूप के समीप लगे वृक्ष पर छुप गई,जैसे विपल्व उन सभी के समीप आया तो उसने देखा कि कालवाची कारागार में उपस्थित नहीं है तो उसने कुशाग्रसेन से पूछा.....
"कालवाची कहाँ है"?
"मैं क्या जानू",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"तो कौन जानता है उसके विषय में,वो तेरे साथ ही तो थी,किन्तु अब कहाँ गई",विपल्व बोला...
"कहा ना! मैं नहीं जानता",कुशाग्रसेन बोले....
"कहाँ गई वो?शीघ्रता से बोल?",विपल्व बोला...
तब कालवाची बोली....
"उनसे क्या पूछता है,देख मैं यहाँ हूँ",
"तू वहाँ कैसें पहुँची"?,विपल्व ने पूछा....
"तू वो मत पूछ,बस तू अब अपने प्राणों की चिन्ता कर",अचलराज बोला.....
और इसके पश्चात कालवाची वायु के वेग से वृक्ष से नीचें आई और उसने विपल्व के ऊपर आक्रमण कर दिया,उसमें अत्यधिक शक्ति तो नहीं थी,किन्तु इतनी शक्ति अवश्य थी कि वो विपल्व की हत्या करके अपना भोजन प्राप्त कर सकती थी और उसने यही किया,सर्वप्रथम तो उसने विपल्व के शरीर से उसका रक्त चूसना प्रारम्भ कर दिया और जब वो शिथिल होकर धरती पर गिर पड़ा तो उसने उसका हृदय निकालकर ग्रहण कर लिया और हृदय ग्रहण करते ही उसका मुँख कान्तिमय हो गया,उसके श्वेत केश पुनः काले हो गए एवं उसकी त्वचा पुनः किसी नवयुवती की भाँति हो गई,उसकी शक्तियांँ भी अब लौट आईं थीं.....
इसलिए उसने अपनी शक्तियों का प्रयोग करके सभी को कारागार से मुक्त किया एवं विपल्व के क्षत-विक्षत शरीर को उसने प्राँगण के कूप में डाल दिया, इसके पश्चात उसने सभी को पंक्षी रुप में बदल दिया और सभी वहाँ से उड़ चले,वे सभी अब अपने साथियों की खोज कर रहे थे,किन्तु अभी उन्हें उनके साथी नहीं मिले थे.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....