उस रात्रि रानी कुमुदिनी महाराज कुशाग्रसेन से मिलकर आ चुकी थीं और उन सभी ने बताया कि कितना बड़ा संकट आ पड़ा था उन सभी के ऊपर, किन्तु कालवाची ने अपनी सूझबूझ से उस समस्या का समाधान कर लिया और अब सभी के मध्य ये योजना बनने लगी कि अब कैसें भी करके महाराज कुशाग्रसेन और उनके माता पिता को उस बंदीगृह से मुक्त करा लिया जाए,किन्तु कैसें इसका उपाय सभी सोच ही रहे थे कि तभी कौत्रेय बोला....
"मेरे पास एक अद्भुत योजना है"
"ओह...तो अब तुम भी योजना बनाने लगे",त्रिलोचना बोली....
"लो नहीं बताता योजना,मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिलोचना ही सर्वबुद्धिमान है तो योजना भी वही बनाऐगी", कौत्रेय क्रोधपूर्वक बोला....
"अरे! इतना क्रोध! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि कौत्रेय की क्रोध की ज्वाला में कहीं त्रिलोचना भस्म ना हो जाएँ", भैरवी बोली...
"भैरवी! त्रिलोचना के लिए ऐसी अशुभ बातें मत करो"क्रौत्रेय बोला....
"ओहो...त्रिलोचना के लिए इतना प्रेम",भैरवी अपनी आँखें बड़ी करते हुए बोली....
"हाँ! है प्रेम तो क्या करोगी तुम? वो मेरी मित्र है,तुम्हारी भाँति नहीं जो हर समय मेरी निन्दा करती रहती हो",कौत्रेय बोला....
कौत्रेय की इस बात पर त्रिलोचना तनिक लजा गई और उसने अपनी पलके झुका लीं,तब भैरवी कौत्रेय से बोली....
"ओहो....मैं निन्दा करती हूँ तुम्हारी! ऐसा तुमसे किसने कहा महोदय! अभी कुछ समय पहले त्रिलोचना ही तुम्हारी निन्दा कर रही थी,परन्तु तुम उसे तो कुछ नहीं कहोगे,क्योंकि ....अब रहने दो इसके आगें मैं कुछ कहना नहीं चाहती",भैरवी बोली...
"अरे!कौत्रेय! तुम अपना विचार कहो,ये भैरवी ना वार्तालाप के मध्य ही बोल पड़ती है",अचलराज बोला...
"हाँ! तो मैं ये कह रहा था कि क्यों ना हम महाराज कुशाग्रसेन और उनके माता पिता को पंक्षी रुप में बदलकर यहाँ उड़ा लाएँ और ये तो अत्यधिक सरल कार्य होगा कालवाची के लिए",कौत्रेय बोला....
"अरे! क्या योजना बनाई है,ये तो अति उत्तम है",अचलराज बोला....
"किन्तु! कौत्रेय यदि महाराज कुशाग्रसेन बंदीगृह से मुक्त हो भी गए तो हम उन्हें छुपाकर कहाँ रखेगें क्योंकि गिरिराज और उसके सैनिक तो उन्हें पाताल लोक से भी खोज निकालेगें और हम सभी के लिए भी संकट बढ़ जाएगा",सेनापति व्योमकेश बोले....
"उन्हें पंक्षी रुप में हम कहीं भी छुपाकर रख सकते हैं"कौत्रेय बोला....
"वो तो ठीक है कौत्रेय! परन्तु इसके पश्चात यदि हम सभी राजमहल में रहे तो कहीं हम सभी पर गिरिराज को कोई संदेह हो गया तो तब हमारा क्या होगा"? अचलराज ने पूछा....
"जब महाराज कुशाग्रसेन और उनके माता पिता बंदीगृह से वापस आ जाऐगें तो इसके पश्चात तुम सभी को राजमहल में रहने की क्या आवश्यकता है?" कौत्रेय बोला...
"मैं कौत्रेय से सहमत हूँ",भूतेश्वर बोला....
"हाँ! मुझे भी कौत्रेय का कथन सही लगा",कालवाची बोली....
"तो क्या अब हमें महाराज कुशाग्रसेन को शीघ्र ही राजमहल से मुक्त करवा लेना चाहिए",रानी कुमुदिनी बोला...
"हाँ! कदाचित! मुझे भी ऐसा प्रतीत होता है कि अब समय हो चुका है महाराज कुशाग्रसेन के बंदीगृह से वापस आने का",सेनापति व्योमकेश बोल....
"किन्तु! महाराज कुशाग्रसेन को बंदीगृह से मुक्त करवाने के पश्चात हमें तनिक सावधानी बरतनी होगी", अचलराज बोला...
"कैसी सावधानी अचलराज?",रानी कुमुदिनी ने पूछा...
"हम एकाएक से राजमहल का त्याग नहीं कर सकते,नहीं तो हम पर सभी को संदेह हो जाएगा,इसलिए महाराज को बंदीगृह से मुक्त करवाने के पश्चात भी मैं,वत्सला और कालवाची राजमहल में कुछ दिन और रहेगें,इसके पश्चात कोई बहाना बनाकर हम राजमहल का त्याग कर देगें",अचलराज बोला....
"किन्तु! यदि हम उनसे दूर रहे तो तब हम उनका राज्य उन्हें वापस कैसें दिलवा पाऐगें",वत्सला ने पूछा....
"मैंने कहा ना कि जब महाराज बंदीगृह से वापस आ जाऐगें तो हम भी कुछ समय पश्चात राजमहल का त्याग करके उनके संग एक नई योजना बनाकर उनका राज्य उन्हें वापस करवाने में उनकी सहायता करेगें" ,अचलराज बोला....
"हाँ! तब महाराज बंदीगृह से बाहर आकर अपने लिए और भी सहायता खोज सकते हैं,उनके और भी तो मित्र होगें जिनकी वें सहायता ले सकते हैं",भूतेश्वर बोला....
"हाँ! मैं उनके एक मित्र को भलीभाँति जानता हूँ और वें हैं पड़ोसी राज्य मगधीरा के राजा विपल्व चन्द्र, उनसे महाराज कुशाग्रसेन की अत्यधिक मित्रता थी,वे उनसे सहायता ले सकते हैं",सेनापति व्योमकेश बोले....
"तो क्या ये करना उचित होगा,यदि उन्होंने महाराज की सहायता नहीं की और उसने गिरिराज के संग मिलकर महाराज कुशाग्रसेन के साथ कोई षणयन्त्र रचा तो तब हम सभी क्या करेगें?",अचलराज बोला....
"हाँ! ये भी हो सकता है",व्योमकेश जी बोले....
"तो अभी हमें किसी भी प्रकार का संकट अपने सिर नहीं लेना चाहिए,हम पहले महाराज कुशाग्रसेन को उनके माता पिता के संग बंदीगृह से मुक्त कराऐगें,इसके पश्चात ही किसी नई योजना पर कार्य करेगें", अचलराज बोला...
"हाँ! मैं भी अचलराज से सहमत हूँ", भूतेश्वर बोला....
"हाँ! यही उचित रहेगा,हमें किसी भी विषय पर सोच समझकर ही निर्णय लेना होगा,नहीं तो कहीं हमारी योजना असफल ना हो जाएँ",भैरवी बोली....
"हाँ! मैं भी महाराज को किसी भी संकट में पड़ता हुआ नहीं देख सकती",रानी कुमुदिनी बोली.....
"तो ये निश्चित हो गया कि हम केवल महाराज को उनके माता पिता के संग बंदीगृह से मुक्त करवाऐगें, इसके अतरिक्त और कुछ नहीं करेगें",कालवाची बोली....
"हाँ! केवल इतना कार्य करके हम महाराज को जब यहाँ बुला लेगें तब वे ही आगें की योजना पर प्रकाश डालेगें",भूतेश्वर बोला....
"ठीक है तो अब हम सभी को अनुमति दें,अत्यधिक बिलम्ब हो चुका है अब हमें चलना चाहिए",अचलराज बोला....
"हाँ! ठीक है,अब तुम तीनों जा सकते हो",रानी कुमुदिनी बोली....
और तभी व्योमकेश जी ने कालवाची से एक प्रश्न करते हुए कहा....
"कालवाची! मैं तुमसे कब से एक बात पूछना चाहता था किन्तु सदैव भूल जाता हूँ"
"जी! पूछिए!",कालवाची बोली....
"वो ये कि राजमहल में तुम अपने भोजन का प्रबन्ध किस प्रकार करती हो"व्योमकेश जी ने पूछा....
तब कालवाची बोली....
"जब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा शरीर क्षीण होने लगा है तो मैं राजमहल से उड़कर वन की ओर चली जाती हूँ,वन में कई आदिवासी रहते हैं वहाँ सरलता से मुझे अपना भोजन मिल जाता है, ये बात मैंने अचलराज को भी बताई थी, मैं राजमहल में निवासित किसी भी पुरुष या स्त्री के हृदय को अपना भोजन नहीं बनाती,मैं नहीं चाहती कि किसी को भी मुझ पर संदेह हो",
"तब तो तुमने ये बहुत अच्छा मार्ग खोजा अपने भोजन को प्राप्त करने का",व्योमकेश जी बोले....
"तो अब हम चलते हैं,कहीं किसी को हम पर कोई संदेह ना हो जाएँ",कालवाची बोली....
इसके पश्चात कालवाची ने वत्सला,अचलराज और स्वयं को पंक्षी रुप में बदला और चल पड़े राजमहल की ओर,इसके पश्चात दो चार दिनों में कालवाची महाराज कुशाग्रसेन और उनके माता पिता को बंदीगृह से मुक्त करवाने में सफल भी हो गई,महाराज कुशाग्रसेन के बंदीगृह से मुक्त हो जाने पर समूचे राजमहल में कोलाहल सा मच गया,किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि महाराज कुशाग्रसेन अपने माता पिता के संग बंदीगृह के किस द्वार से बाहर निकले,क्योंकि उन्हें किसी ने जाते हुए नहीं देखा था,किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे कहाँ गए,उन्हें धरती खा गई या आसमान लील गया,
गिरिराज ने सम्पूर्ण राज्य में महाराज कुशाग्रसेन की खोज में अपने सैनिक भेज दिए किन्तु कहीं भी उनका कोई भी चिन्ह् ना मिल सका और थकहार कर गिरिराज शान्तिपूर्वक अपने कक्ष में जाकर सोच विचार करने लगा कि भला कुशाग्रसेन जा कहाँ सकता है? जब अत्यधिक सोच विचार के पश्चात गिरिराज को उदासीनता ने घेर लिया तो उसने उस रात अपने कक्ष में राजनर्तकी को अपनी सहनर्तिकियों साथ अपने मनोरंजन हेतु बुलवाया,उन सहनर्तिकियों में से एक कर्बला बनी कालवाची भी थी,जब नृत्य समाप्त हो गया तो गिरिराज ने कालवाची को अपने कक्ष में ठहरने को कहा और कालवाची को विवश होकर वहाँ ठहरना पड़ा.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....