भूख--
भूख चित्रा मुद्गल जी कि मार्मिक समाज एव जीवन के यथार्थ का आईंना है।नगर महानगर की संस्कृति में मानवीय मुल्यों के छरण
एव द्वंद के प्रतिकर्षण की वेदना एवं कराह का वर्तमान तो भविष्य के लिये जागरूकता का शसक्त संदेश है।
वास्तव मे चित्रा मुद्गल जी स्वयं के जीवन मे बहुत उतार चढ़ाव को जिया एव समाज के हर वर्ग की पीड़ा का एहसास किया एव स्वयं जिया।
चित्रा मुद्गल का जन्म दस दिसम्बर 1944 को चेन्नई के सेना चिकित्सालय में हुआ था पिता ठाकुर प्रताप सिंह माता श्रीमती विमला देवी चित्रा मुद्गल की माँ तालुककेदार गया बक्स सिंह की संतानों में मंझली संतान थी चित्रा ने अपने जीवन मे माता पिता के बीच रिश्ते बनते विगड़ते दोनों दौर देखा जब चित्रा की आयु 31 वर्ष की थी तब चित्रा के पिता ठाकुर प्रताप सिंह ने मां विमला को छोड़ दिया जिसके कारण विमला को अपने पिता गया बक्स सिंह के घर शरणार्थी की तरह जीवन यापन करना पड़ा अपनी तमाम आकांक्षाओं का दम घोट कर सिर्फ सांस एव धड़कन की जीवित शव की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ा कारण पिता गया बक्स सिंह की ठाट बाट एव बयालीस गांव के तालुककेदार के रुतबे एव संस्कृतियों की दासता का वेबश विवश जीवन पति प्रताप के निधन के बाद विमला के जीवन में उन्मुक्त वातावरण अवश्य आये।चित्रा के पिता एक नव सेना अधिकारी थे जिसके कारण चित्रा के बचपन पर रॉयल संस्कृति का
प्रभाव भी परिलक्षित है।चित्रा की प्रारंभिक शिक्षा चौथी क्लास गांव निचली खेड़ा निकट गाँव भरती पुर से हुई शेष शिक्षा मुम्बई एव पूना से हुई एव पत्राचार हुई।17 फरवरी 1965 को पिता एव परिवार की इच्छा के विरुद्ध चित्रा ने अवदेश नारायण मुद्गल से अंतर्जातीय विवाह आर्य समाज पद्धति से किया।शाही रुतबे का पिता घर छोड़ चित्रा पति अवधेश नारायण के साथ मुंम्बई की झुग्गी झोपड़ियों में आयी और साहस मेहनत से
स्वाभिमान के जीवन को चुना मजदूरों और श्रमिको के हितों के लिए संघर्ष घर मे काम करने वाली बाईयो के संस्था जागरण में कार्य तथा कामबार अघाड़ी मजदूर यूनियन की कार्यकर्मा के रूप में एव महिलाओं की संस्था स्याधार के लिये कार्य किया भूख कहानी चित्रा जी के स्वय के जीवन मे उतार चढ़ाव एव विकसीत हो रही नगरीय संस्कृति के द्वंद के प्रतिकर्षण की चिंगारी की ज्वाला का सामाजिक चित्रण का प्रकाश है जो वर्तमान में मानवीय ब्यथा एव संवेदना का सत्त्यार्थ है।कहानी मराठी भाषा एव संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है चित्रा जी की कहानियां किसी राजनीतिक संकल्प या वाद का शंखनाद नही है बल्कि मानवीय सरोकार की बुनियाद से जुड़ी हुई है चित्रा जी अपनी कहानियों में सीमाओं को लांघती बड़ी मार्मिकता से घर परिवारों संबधो को सौंदर्य के कथानक में कुशलता से बांधने में सफल है ।
भूख कहानी को मूलतः शुरुआत ही
एक ऐसे परिवार परिवेश से होता है
जिसके समक्ष जीवन के लिये रोटी ही
मूल समस्या है कहानी मूलतः दो प्रमुख पत्रों लक्ष्मा एव सावित्री अक्का
के इर्द गिर्द ही घूमती एव आगे बढ़ती महानगरीय झुग्गी झोपड़ी जीवन एव परिवारों के परिवेश से आगे बढ़ती है
कहानी सावित्री अक्का और लक्ष्मा के
आपसी समस्याओं के संबाद से शुरू होती है लक्ष्मा एव सावित्री अक्का का आपसी वार्तालाप सामाजिक एव प्रसाशनिक संदर्भों में
#झोपड़ी में लगी किवाड़ों से सावित्री अक्का झांकती है आहट सुनकर सुप फटकारना लक्ष्मा खड़ी हो सावित्री को अंदर आने का आग्रह और सावित्री का सूप में पड़ी ज्वार को अजुरी में भर कर गौर से देखते प्रश्न करना क्या राशन से लिया है लक्ष्मा का जबाब कारड किधर मेरा सावित्री को विश्वास नही हुआ समाज के पिछड़ेपन एव अभाव के भय से त्रस्त मानवता का जीवंत चित्रण है टेमरेरी बनता है मुकादम अपना परमेश्वरन के पास जाना पिच्छु झोपड़ी किसका गणेशी का उसको बोलना वोपन के कागज पर लिख देगा तू उसका भदोतरी टाबातोड़ बनेगा तेरा कारड चीकट गुदड़ी पर पड़े कुंमुनाए छोटू को हाथ लंबा कर थपकी देते हुए गहरा विश्वास भरा जाएगी गोद मे लेकर छोटू को स्तन उसके मुंह मे देकर स्तनपान कराना कुछ पल चुकरने के बाद बच्चा स्तन छोड़कर बिरचाया सा चीखने लगा क्या होना आचत नई कांची दे वोईच देती पन मैं भेजती एक बाटी तंदुल सावित्री उठ खड़ी हुई सावित्री उसका आशय संमझ उठ खड़ी हुई तेरा बड़ा किधर और मझला किस्तू खेलते होएंगे किधर थोड़ा देर बैठ अक्का ज्वार का की रोटी का सूखा टुकड़ा छोटू के मुंह मे मिस मिंसकर डालने लगी छोटू मुंह चलाने लगा
दरवाजा किधर खोलते फिलॉट वाले एक दो ने खोला तो पिच्छु पूछी मैं भांडी कटका वास्ते बाई मांगता बोलने को लगी किदर रेती किदर से आई तेरा पोचाने वाली कोई बाई आजू बाजू में काम करती है क्या करती तो उसको साथ ले के आना हम तुमको पेचानते नही कैसे रखेगा ये गोदी क़ा बच्चा किसके पास रक्खेगी जब काम कू आएगी मैं बोली बाकी दोनों बच्चा पन मेरा छोटा छोटा संभालने को घर मे कोई नही साथेच रक्खेगी तो दरवाजा वो मेरा मुहपेंच बंद कर दिये सुबुर कर सुबुर कर काम मिलेगा
किदर ना किदर मिलेगा मैं पता लगाती कोई अपना पेचानवाली बाई मिलेगी तो पूछेगी उसको ये फिलॉटवाले चोरों बोरी से बहुत डरते है।#
लक्ष्मा का मुलुक के प्रति विश्वास का जो उसके जीवन मे निराशा की स्थितियों में आशा के ऊर्जा का सांचार करता है और विचारों एवं ख्यालों को बल देता है जिसकी वास्तविकता
मुलुक में समुद्र तट पर बसे उसके पूरे कुटुंब को अचानक एक दोपहर उन्मादी तूफान लील गया घर मे दिया जलाने वाला भी नही बचा मैं मरी क्या सबके साथ ?अपना दुःख तसल्ली नही देता दूसरों का दुःख जरूर साहस पिरो देता है विह्वल होकर अक्का की हथेली भींच ली कल मेरी दुकान आना सेठ बहुत हरामी है पर तेरे वास्ते हाथ पैर जोड़ेगी सावित्री लक्ष्मा की दयनीय
मानवीय संवेदनाओं का शसक्त चरित्र सावित्री का किरदार कहानी के प्रत्येक
पक्ष को प्रभवित करता है।।
यह जानते हुये की सेठ अच्छा इंसान नही है फिर भी सावित्री लक्ष्मा को काम के लिये इस विश्वास से बुलाती है कि शायद सेठ उसके अनुनय विनय एव लक्ष्मा की दयनीय परिस्थिति पर तरस खा कर काम दे दे बुलाती है
और खयालों में लक्ष्मा के अतीत के विषय मे सोचती है #मरद मिस्त्री था तीस रुपये दिहाड़ी लेता मजे से गृहस्ती कट रही थी।एक सुबु पच्चीस माले ऊंची इमारत काम शुरू किया था बंधे बांसों के सहारे फल्ली पर टिके पांव बालकनी पर पलस्तर चढ़ाते फिसल गए पन्द्रहवें माले से जो कटहल सा चुआ तो आह भी नही भर
पाया गुंडप्पा सेठ खड़ूस था साबित कर दिया कि मिस्त्री बाटली चढ़ाए हुये था अलबत्ता रात को बोतल चढ़ाके सोया था पर सुबु एकदम होश में काम पर गया था मुह से दारू की वास नही गयी थी हज़ार रुपये देकर टरका दिया हरामी ने# कहानी के इस अंश में निम्न एव मजदूर तबको में दारू की संस्कृति के परिणाम को उजागार किया है तो दारू को अभिजात्य वर्ग के निम्न के दमन के हथियार के रूप
में कहानी में वर्तमान एव कहानी परिवेश में जबजस्त समन्वय स्थापित करती हुई निम्न वर्ग में दारू संस्कृति पर प्रहार करती है सबने बोला ठेकेदार सेठ को लक्ष्मा को काम दे दे पर नही रखा बोला इसका तो पेट फुला है बैठ के मंजूरी लेगी बैठ के मंजूरी देने को उसके पास पैसा नही मिस्त्री मरा तो वह पेट से थीं सातवां महीना चढ़ा हुआ था#
लक्ष्मा सावित्री अक्का के बुलाने पर काम के लिये वहां जाती है जहां सावित्री काम करती है।
#छोटे को कमर पर लादे लक्ष्मा बनिये के दुकान के सामने जा खड़ी होती है सावित्री की नज़र उस पर पड़ती है वह काम से हाथ खींच बनिये के पास पहुंचती है औए लक्ष्मा की मुसीबतों का रोना रोकर उस पर दया करने की सिपारिस करने लगी बनिये के डपटने पर की जा कर अपना काम करो विवश सी एक बड़े झरने से अनाज चलने बैठ गयी उसकी बगल में पंजाबी गेहूं की ढेरियां लगी हुई थी पहले सेठ से उसके मेहनताने का करार गोनी पीछे दो रुपये था फिर सेठ को लगा इस सौदे में नुकसान है सेठ ने दिन हिसाब से मज़दूरी तय कर दी।
सेठ ने ग्राहकों से फुर्सत पाने के बाद लक्ष्मा की ओर मुखातिब हुआ और पूछा वह पहले कहां काम करती थी
लक्ष्मा ने बताया की मिस्त्री पति जिंदा था तब उसके साथ बेगार करती थी ईट गारे के तसले ढोती थी और पिछले डेढ़ साल से वह किसी काम पर नही है सेठ ने उसे संदिग्ध निगाह से देखा और भौहें टेढ़ी कर सवाल किया क्या उसका यही एक बच्चा है जो गोदी में है ?लक्ष्मा के यह बताने पर की दो बच्चे और है सेठ ने उन बच्चों की उम्र जाननी चाही उसने बेझिझक बता दिया बड़ा वाला छः का और मझला चार का सेठ ने उसे छूटते ही टका सा जबाब दिया कइया रक्खेगा तुमेरा को ?बड़ा बच्चा वाली औरत को पडवड़ता नही पीछे एक बच्चे वाली औरत को रखा होता उसने इतना घोटाला किया कि क्या बोलूं वो काम पर बैठती नही की उसका एक न एक बच्चा मिलने को आताच।पता नही कैसे होशियारी से वो दो दो चार चार किलो अनाज़ गायब कर देती मेरा मगज फिर जाता ।पूछने पर शेन्डी लगाती सेठ कचरा बोत निकलता फिर थोड़ा अर्थ पूर्ण ढंग से बोला काम पर रखने को सकता पर गारन्टी के वास्ते कोई दागिनी बीगिना डिपॉजिट रखो कारण गोनी पीछे किलो डेढ़ किलो कचरा निकलता है उससे जास्ती कचरा निकलेगा डिपाजिट से कीमत कट जाएगा ।क्या बोले दागिना होता तो आज उसकी दुकान पर उससे मंजूरी मांगने आती छेनी हथौड़ा ना खरीद लेती और गली गली हांक लगाती टाकी लगवा लो टाँकी ।कोई नही जानता कि छेनी हथोड़े हाथ मे आते ही सिलबट्टे पर उसके हाथ थिर्कने लगते है।लौट कर घर पहुंची तो दोनों बच्चे घर से नदारत क्षुब्ध मन हताशा गुस्से खीज औए चिडचिडाहट में बदल गयी उल्टे पांव वह उन्हें खोजने गली में लपकी ।वे सड़क के किनारे गटर में धंसे हमजोलियों के साथ मछ्ली पकड़ते दिखाई दिये उन्हें घसीटते हुये खोली में लाई और लादी पर पटक मोंगरी से पीटने लगी मानो बच्चो की देह नही मोटे सेठ की थुल थुल देह हो जिसने उसे चलते नौकरी से इंकार कर दिया जान बचाने को बिलबिलाते छटपटाते मुरगे प्राण छूटते ही बेहरकत हुये बच्चे लादी पर सिसकते औंधे मुंह पड़े रहे जिन्हें देखकर लक्ष्मा को आत्मग्लानि और क्षोभ अपनी विवसता पर होता है।
लक्ष्मा का जिंदगी की जंग में विवसता के समक्षआत्मसमर्पण गांव भाई के पास जाने एव सावित्री अक्का सामाजिक रिश्तो की वास्तविकता से रूबरू कराना आज के समाज मे भी सही प्रतीत होता है#पिछले महीने जब उसका मन विचलित हुआ उसने तय कर लिया कि वह सावित्री अक्का से चिरौरी करेगी कि उसे कुछ पैसे किराए भाड़े के लिये दे दे वह बच्चों समेत गांव चली जायेगी ससुराल में गुज़र संभव नही है ।गांवो की हालत तो यहाँ से भी बद्तर है मायके में बड़े भाई भाई है उन्ही के पास रहकर खेतों में मजूरी कर लेगी अक्का ने उसे दीन दुनियां समझाया कि जो सोच रही है वह अब गांवो में सम्भव नही है गांवो में हालात बद से बदतर है मंजूरी वह भी दो पाव चावल पर यहां पर फिर भी गनीमत है यहां तो फिर भी गनीमत है देर सबेर कुछ न कुछ जुगाड़ हो ही जायेगा फिर भाई भी बाल बच्चे वाला है महीने दो महीने की बात हो तो रिश्तेदारी निबाहेंगे जब उन्हें अनुमान हो जायेगा कि सपरिवार हमेशा के लिये रोटी तोड़ने उसकी छाती पर आ बैठी है तो पलक झपकते मया ममता खुले कपूर सी छू हो जाएगी अपने बारे में भी खूब सोचा तो पाया कि गांव जाने की इच्छा स्वयं उसकी भी नही किंतु पता नही क्यों जब भी वह टूटने हारने लगी है स्वयं को गांव के भरोसे ही भुलावा देने की कोशिश करती है ऐसा नही की इस दुनियां जहान में उसका अपना कहने लायक कोई नही।उसने पाया कि मुकुक के भरम में कई दफे उंसे ताकत दी है और समेटे रखा है और वह इस भरम को टूटने देकर बिखरना और अनाथ होना नही चाहती।
लक्ष्मा के लियेपल भर की खुशियों का विश्वास एव उसका टूटना मानवीय संवेदनाओं के उफान और उसके भंवर में डूबने उतरने जैसी स्थिति लक्ष्मा की है
#दोनों काम हो गए कारड के लिए गणेसी से लिखवा कर दे आयी उसका कही कोई कारड नह और वह भाड़ोतरी है ।मुकादम ने भी कहा कि ठेकेदार से उसके काम के लिये बात कर ली है कल सुवह वह उसे ठिकेदार से मिलवा देगा सात रुपये रोज मिलेंगे सड़क पर पत्थर कूटने होंगे जब डामर पड़ने लगेगा तब काम खत्म हो जाएगा फिर यह उसकी मेहनत स्वभाव पर निर्भर करता है कि वह ठेकेदार के अगले काम मे मजूरी पाती है या नही अगर पा गयी तो जहा भी ठेका होगा अन्य मजदूरों के साथ अपना डेरा बनाकर किराए भाड़े का झंझट नही।
उसने निश्चय किया किया कि वह तीनो बच्चों को संग ले जाएगी ।यहां उसके सामने ही नही टिकते हरामी पीछे कैसे घर बैठेंगे।
दूसरे दिन लक्ष्मा को पता चलता है कि जिस काम पर उसे रखने का आश्वासन मिला था वह छुट्टी पर गया था और लौट आया है लक्ष्मा की पल भर की खुशी दम तोड़ देती है।।
कहानी का अंतिम सोपान बेहद मार्मिक है जब लक्ष्मा के समक्ष दो रुपये प्रतिदिन पर छोटे बच्चे को किराए पर देने का प्रस्ताव सावित्री अक्का #जरा ठंठे दिमाग से सोच लक्ष्मा भीख तो वह मांगेगी छोटू से थोड़े ही मंगवायेगी बच्चा तो सिर्फ उसकी गोदी में रहेगा इसमें कोई गलत नई कलाबाई ने उसका संकोच तोड़ना चाहा वह आवाक से सबके तर्क सुनती रही ।वह आबे से बाहर हो उठी लगभग धक्का देते हुए उस औरत को खदेड़ दिया शिष्ट हो सावित्री बोली अक्का से बोली वे अब उस पर मेहरबानी करे और उसे उसके हाल पर छोड़ दे ।ऐसे मरे या वैसे मरे मरेंगे जरूर एक दिन और वह भी हत्या होगी और वह हत्यारिन सुलगती पेट की आंतो उसकी खुराक ना देकर उन्हें तरसा तरसा कर मारना हत्या नही?लगा चिलचिलाती धूप में जिस कूटती पिसती सड़क को पीछे छोड़ आई है वह पीछे कहाँ छूटी है सड़क की छाती उसके सीने से चिपक उसके संग चली आयी है। बच्चे बच सकते है उपाय अगर छोटू को उस भिखरिन के हाथों किराए पर उठा दे छोटू का पेट भरेगा ऊपर से दो रुपये मिला करेंगे उसमें किलो भर मोटा चावल आ जायेगा बड़े और मझले के पेट मे दाने पड़ जाएंगे। फिर कौन उंसे हमेशा के लिये किराए पर उठाएगी कुछ दिनों की ही बात है।सावित्री अक्का की बात अलहदा है वह तो उसके टके फटे की साथी है ।
और अक्का अपना बच्चा दो बच्चों के पेट पालने के लिये भिखरिन को किराए पर दे देती है इस प्रकार उंसे प्रति दिन दो रुपये मिलने लगते है।
भिखरिन जग्गू बाई द्वारा छोटू को भूखा रख कर रोने के लिये विवश कर ही तो भीख मांगने का जरिया था
एका एक दिन #छोटू चिहुंक कर जागा और चीखे मार कर रोने लगा जैसे किसी ने उसे सोते में चिकोटी भर ली हो ।अचानक उसे याद आया रामदेव भैयानी के इकलौते बेटे बचुआ को सांसे बांध लेने की बीमारी है ।छोटू के लक्षण भी मिलते जुलते थे उसने भी जी मजबूत कर छोटू के गाल पर जोर का थप्पड़ मारा असर दिखा ऐंठ हुई देह कुछ ढीली हुई ।डॉ चिरवलकर बच्चे की नाजुक हालत देखकर हथियार डाल दिये उंसे फौरन भाभा अस्पताल ले जाओ बच्चे को ग्लूकोज चढ़ाना होगा खून देना होगा सावित्री अक्का ने उसका आशय भांप लिया सांत्वना दी चिंता ना करे और तुरंत एक टैक्सी रोक ले।सयानी छोटू अक्का को सीधे उसी जगह ले गयी जहा गम्भीर मरीज दाखिल किया जाता है।दीवार से टिकी खड़ी अडोल लक्ष्मा की सुनी आंखे वार्ड के बन्द दरवाजे को सूजे से छेदती रही आर पार देखने को छटपटाती रही ।जैसे कोई वार्ड से बाहर आती दिखती लक्ष्मा आशास्प्ड भाव से उसकी ओर देखती ।डॉक्टर ने पल भर के लक्ष्मा को भेदती हुये नज़रों से देखा फिर रुक्ष स्वर में बोले बच्चे को खाने को नही देती क्या बच्चा भूख से मर गया उसकी आते सुख कर चिपक गयी थी
क्या लक्ष्मा के गले से आरी सी काटती एक करुण सी चीख फुट पड़ी पन कइसा वो तो बोलती होती वो उसको दूध देती बिस्कुट खिलाती उस पर बेहोशी छाने लगी ।
समय कुसमय का संकोच त्याग कांबले ताई बोली अब रोने से क्या भिखरिन बच्चे को पूजा वास्ते नाई लिया होता वह छिनाल बच्चे का पेट भरती तो बच्चा आराम से गोद मे सोता पिच्छु उसको भिक कौन देता अरे वो बच्चे को फ़क़त भूक्काच नही रखते रोता नई तो चिकोटी काट कर रुलाते लोगो का दिल पिघलना अभागिन काय कू दी तू उसको अपना छोटू।ढह रही लक्ष्मा को कुछ सुनाई नही दे रहा था उंसे सिर्फ दिखाई दे रही है ढूध की बोतल बिस्कुट का डब्वा चिपकी आते और एक बच्चे की लाश।
भूख --
भूख दुनियां के क्या -क्या
रंग ,रूप,राह दिखती।।
कभी रुलाती कभी हंसाती
भूख जाने क्या क्या दिन दिखती दर दर भटकाती।।
भूख जिंदगी, भय ,दहसत ,कहर, कोफ़्त भूख रोटी कि जिंदगी सांसो
धड़कन की मजबूरी।।
भूख आग है ,जिसकी लपटों मे
दुनियां जल जाती भूख भयंकर ज्वाला,।।
भूख क्रोध, काल जागती भूख भ्रम भयंकर बनाती भूख करुणा, दया का पात्र बनती।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।