Towards the Light – Memoir in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

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उजाले की ओर –संस्मरण

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स्नेहिल सुभोर मित्रो

पड़ौसी के घर से वैसे तो हर दिन शोर आता ही था, नहीं, नहीं बच्चों की बात नहीं कर रही हूँ | उन बड़ों की बात कर रही हूँ जो बड़े तो हैं ही, अपने माथे पर समझदारी का बड़ा स लेबल चिपकाए घूमते रहते हैं |

"भैया, ते तमगा क्यों?"

"क्यों? तुमै क्या परेशानी हैगी जी ? माथा हमारा, तमगा हमारा अर चिपकने की गोंद भी किसी से मांग कै न लाए हैंगे जी फिर ----??"

"नहीं,नहीं ---हमने तो यूँ ही पूछ लिया था --इतना बुरा न मानो भाई |"

अपने कानों को पकड़कर उन्हें ज़ोर से खींचकर हमने माफ़ी मांग ली लेकिन वे फिर भी दुहराते ही तो रहे | डर के मारे वहाँ से सिर पर पैर रखकर भागना उचित था लेकिन अपना घर भैया जाय कैसे जाएँ ? बीच में तो उनके पहरेदार खड़े हैं न वैसे !

अब सबके मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि भई, ऐसी क्या बात हो गई ?

कभी होती है क्या ऐसी, वैसी बात ? बस जो होना हो, हो ही जाता है और उदासी छाने लगती है |

वैसे तो बात कुछ भी नहीं,

हम क्यों होते उदास

बात कुछ भी नहीं

किन्तु ढूंढ ही लेते हैं

कुछ न कुछ तो

जब कि खासम खास

कुछ भी नहीं ---

 

हाँ जी, जैसा हमने बताया कि वैसे तो पड़ौसी का शोर सिर-माथे क्यों?

अब यह भी कैसा प्रश्न है भलेमानुष ? है तो है | जब अपने हाथ में कोई बात या चीज़ नहीं होती तो उसे छोड़ ही देना पड़ता है | क्या करें जी,हम इतने बड़े लोग तो हैं नहीं कि पड़ौसी शोर मचाने वाले आ गए तो मकान बदल सकें ?

शोर होता है इस बात पर कि उनकी किस्मत भगवान ने ऐसी क्यों बनाई और उनके पड़ौसी की यानि हमारी कि हमारे घर का हर बंदा काम करता है और पैसा भी उसी के हिसाब से आता है ! एक उनका घर है कि कोई काम करना ही नहीं चाहता | अब पाँच बंदे और काम करने वाले बस एक तो कैसे ऐशो-आराम होगा ? ऐशो-आराम गया तेल लेने, जरूरत की चीजें भी पूरी होने में पसीने छूट जाने की नौबत आ जानी स्वाभाविक है |

परिवार के युवा बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे, मटरगश्ती कर रहे हैं तो भई बुज़ुर्ग पिता जी कैसे सबका पूरा पाड़ेंगे ? युवा काम क्यों नहीं करेंगे ? क्योंकि उनके अनुसार काम नहीं मिलता है | एक बात तो सोचें, मिलता तो है न ! उसे अपने अहं, शॉर्ट टैंपर या अड़ियल स्वभाव के कारण आप उसे नहीं करना चाहते | अब इसमें गलती किसकी है ? सबसे पहले अपने आप में झाँककर देखना बहुत जरूरी है कि हमारी गलती कहाँ पर और कैसी, क्यों है?

कोई भी काम ख़राब या छोटा नहीं होता और सभी तरह के काम में समान तरह के अवसर मौजूद होते हैं। लेकिन कोई उस काम को सफलता पूर्वक करता है या कहूँ के उस काम में काफी पैसा व इज़्ज़त बना लेता हैं और कोई उससे पैसा कमाने के बजाय सब कुछ गवां देता हैं। क्या कभी आपने सोचा हैं ऐसा क्यों होता हैं? यह तो आप सब ने सुना होगा दोस्तों से “अरे यार इस काम में ज्यादा पैसा नहीं हैं और मेहनत भी ज्यादा हैं, जबकि उसी काम में कोई अच्छा पैसा बना रहा हैं इसका मतलब यह हैं कि काम तो वह ख़राब नहीं हैं।”

तो फिर क्यों इतना फर्क हैं, कुछ लोग बोलते हैं अरे यार “वो किस्मत वाला हैं या फिर उसकी किस्मत अच्छी है अपने तो भाग्य में तो रोना ही लिखा हैं।”

मित्रों!ऐसा कुछ भी नहीं हैं हमें अपना आत्म-मूल्यांकन करणे की आवश्यकता है | हमें ईमानदारी से अपने विषय में अच्छा और बुरा सुनने और समझने के लिए तैयार रहना जरूरी है | यकीन मानी जितना हम अपने आपमें झाँककर खुद को तराशने की कोशिश करेंगे, हमें परिणाम अच्छा ही मिलेगा।

दूसरों की खिड़की में झाँकने से हम खुद का ही नुकसान करते हैं और फिर रोना भी खुद ही रोते हैं भाई, शुरू तो करें ईमानदारी से, प्रेम से दूसरों से संबंध रखना सीखें | देखें, कैसे हम अपने काम में सफ़ल नहीं होते !चलिए करते हैण कोशिश, कोई भी चीज़ वृत्त में बँधी हुई नहीं है |

 

सबको स्नेहिल शुभकामनाएं

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती