ठंडी सड़क(नैनीताल)-४
मैंने बूढ़े से आगे कहा-
जब आप प्यार में हों
खूब प्यार में हों,यही जी करता है।
जहाँ आप नैनीताल की राहों पर हों,ठंड का अहसास मिट जाता है। डीएसबी महाविद्यालय से हनुमानगढ़ी जा रहे हों। यहाँ काफल नहीं, हिसालू नहीं पर राह का आभास भी नहीं होता है। किसी को खोजते-खाजते हनुमानगढ़ी पहुँच जाते हैं। इसमें राजुला-मालूशाही से सपने नहीं हैं। कहा जाता है, राजुला-मालूशाही का जन्म बागनाथ( शिवजी) की कृपा से हुआ था। दोनों के माता-पिता ने उनकी सगाई भी वर माँगने के बाद कर दी थी। लेकिन नियति ने दोनों को पहले अलग कर दिया और फिर मिला भी दिया। मालूशाही कत्यूरी राजा था और राजुला शौक की बेटी। इस संदर्भ में कुमाऊँ में एक लोकगीत है। " मागि दि छा मागि दियो बज्यु, सुनपतै शौकै कि चेलि---"( पिता जी शौक की बेटी को माँग देते हो तो माँग दो---)।
यहाँ यथार्थ की धूप है। जटिल मन है। दोस्त का साथ है।खींचती है जिजीविषा स्नेह की तो अनन्ता से मेलमिलाप होने लगता है। अनमोल वचन भी पास में नहीं हैं। न पत्र है, देने के लिये। केवल शीतल,उज्जवल,निर्मल मन है। दृष्टि स्पष्टता लिये। जन्म-जन्मांतर के आवेगों से बोझिल आत्मा।
ऐसी उड़ान जिसे बैठने के लिए कोई हराभरा वृक्ष नहीं वहाँ। पर उड़ना है। उसके पास पहुँचना है। इतना ही पूछना है मुझे क्यों नहीं बुलाया? साथ-साथ चलते। मेरा मन तो झील में मछली की तरह तैर रहा था। लेकिन तुमने झील को ही सूखा दिया। अधिक देर उसके पास रूक भी नहीं सकता था। खलनायक दूर से घूर रहे थे। सोच रहे थे कंकड़ कहाँ से आ गया इस खुशी के माहौल में ! मैंने कहा उधार रहा शेष। धीरे से कहा बहुत अच्छी लग रही हो। हिन्दी फिल्मों की नायका राखी की तरह दिख रही हो आज। उसने सुना नहीं शायद। कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं चल दिया अगली पहाड़ी की ओर जो वेधशाला के निकट थी,दोस्त साथ था। पीछे मुड़ कर नहीं देखा। जब लौटे तो ठंडी सड़क से आये।पाषाण देवी को प्रणाम किया। सुना है वहाँ से बहुत लोग झील में छलांग लगाते हैं दुख में टूटकर। लेखक काफ्का के शब्दों में ,"अब मैं तुम्हारी आँखों मे देख सकता हूँ ( मांसाहार छोड़ने पर पशुओं से)" नैनादेवी के मन्दिर के बाहर वे सब चाट खा रहे थे। मन को लपेटा और कैपिटल सिनेमा के पास शाम की चाय पी।
मन उदास था। शायद उसने लौटते समय मुझे ढूंढा होगा, ऐसा मन में आया।
फिर एक दिन हम अपनी प्रयोगशाला में थे। दरवाजा खुला था। हम उष्मा से संबंधित प्रयोग कर रहे थे। मेरी पीठ दरवाजे की ओर थी।वह दरवाजे पर खड़ी दिखी। मेरे दोस्त ने उसे देखा। वह मेरे कानों में बुदबुदाया। मैं मुड़ा। दोस्त बोला, तुम्हें बुला रही है। मैंने उसकी ओर मुड़कर पूछा मुझे ! वह बोली हाँ। तब तक वह कोने में खड़ी हो गयी थी। वह बोली हमारी कक्षा के छात्र कहाँ होंगे? मैं बोला मुझे पता नहीं। थोड़ी देर मौन रहा। फिर वह चली गयी, एक खालीपन छोड़कर।
बर्षों बाद लिखने को मन होता है-
नमन कर मन चला था
राह कठिन होती गयी,
दिखा हुआ स्वप्न भी
टूट कर नीचे गिरा,
पर भूमि सारी हरित होकर
स्नेहसिक्त हो गयी।
दृष्टि बन अचल-अटल
कुछ देर वहाँ टिकी,
मिली हुयी दृष्टि में
घनघोर घन घिर गये,
तड़ित चाल भी चमक कर
दो बूँद पर जा टिकी।
हनुमानगढ़ी में हनुमान जी थे
मैं खोजता शिक्षार्थी था,
मन में बसा रूप किसी का
भव्य से दिव्य हुआ था।
बूढ़े की सुनते-सुनते आँखें लग गयीं।
* महेश रौतेला