Prem Gali ati Sankari - 105 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 105

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प्रेम गली अति साँकरी - 105

105----

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“श्रेष्ठ?---”फ़ोन पर नाम उभरा देखकर मेरे मुँह से निकला| 

“हाऊ आर यू डूइंग ?” उधर से जानी पहचानी आवाज़ व स्टाइल था| 

“गुड—व्हाट हैप्पन्ड ?”मेरी आवाज़ एक दोस्त के जैसी तो नहीं थी| 

होती भी कैसे?जिन परिस्थितियों में से मैं उसके साथ निकलकर आई थी वे मेरे लिए बहुत आनंददायी नहीं थीं| 

“क्या अभी तक मुझसे नाराज़ हो?”उसने इतने आराम से पूछा मानो हमारे बीच बच्चों की तरह कोई खिलौने के लिए झगड़ा या गुड्डा-गुड़िया की शादी में कोई छोटी-मोटी बात हो जाने पर वे एक-दूसरे से नाराज़ हो जाते हैं  फिर अपने आप किन्हीं लम्हों में घुल-मिल भी जाते हैं| 

“अमी ! आर यू देयर ?”फ़ोन पर चुप्पी पसरी देखकर वह कुछ असहज सा हुआ लग रहा था| 

“यस,बोलिए---”मुझे लग रहा था कि अभी तो मैंने प्रमेश की दीदी से ठीक तरह नमस्ते तक नहीं की है| 

“आई वॉज़ नॉट हीयर फ़ॉर मन्थ्स, केम बैक एण्ड वॉन्टेड टू मीट यू, कैन वी ----”

“श्रेष्ठ,मैं बाहर हूँ---अभी कुछ नहीं कह सकती ---”दो सेकेंड्स बाद फिर मैंने पूछा;

“कोई खास बात है क्या?”मुझे अंदर जाकर प्रमेश की दीदी से मिलना चाहिए था| 

“मैं वहाँ आ जाता हूँ ,बताओ कहाँ हो तुम?” इसकी बहुत बड़ी तकलीफ़ थी ,कहीं पर भी जाने के लिए तैयार हो जाता था,किसी के साथ भी चलने के लिए तैयार हो जाता| कमाल का बंदा है यह भी !

“मैं प्रमेश जी के यहाँ हूँ और उनकी दीदी से मिलने आई हूँ | ” मैंने जल्दी से कहा| 

“बट---”

“नहीं,यहाँ आप आकर क्या करेंगे?और क्यों मिलना चाहते हैं?फिर बात करेंगे| ”

श्रेष्ठ को मुझसे ऐसे शब्दों की उम्मीद नहीं होगी इसीलिए वह कुछ और भी कहने जा रहा था शायद लेकिन मैंने रोक दिया और फ़ोन बंद करके अंदर आ गई | देखा, प्रमेश की दीदी बैठी थीं,उन्हें मैं पहले आते हुए ही देख चुकी थी| मैंने अंदर जाकर महसूस किया कि वे दोनों भाई-बहन यानि प्रमेश और उसकी बहन के चेहरे पर कई सवाल पसरे हुए हैं| 

“एवरी थिंग इज़ ओ.के?” प्रमेश ने पूछा| उसके चेहरे पर जैसे एक गहरा प्रश्न खुद गया था| 

“ओ----यस---”कहकर मैंने सामने बैठी दीदी के सामने प्रणाम की मुद्रा में अपना सम्मान प्रगट किया| 

“घर से फ़ोन ?” प्रमेश के पेट में जैसे दर्द हो रहा था,मुझे लगा बता देना चाहिए| वह संस्थान में कई बार श्रेष्ठ को देख तो चुका ही था| वैसे वह ही क्या, श्रेष्ठ अपने व्यक्तित्व, अपने स्टाइल से अनजाने में ही सबको प्रभावित कर लेता था| कुछ लोगों में यह आकर्षण ईश्वर प्रदत्त होता है फिर वे उसे कैरी भी बहुत अच्छी तरह से करते हैं| यह राज़ नहीं था लेकिन यह बात उस पर खरी उतरती थी| 

“नहीं,श्रेष्ठ थे----”मैंने सीधा-सपाट उत्तर दिया| 

“ही इज़ योर फ्रैंड?”प्रमेश जो इतना कम बोलता था,उसके पेट में दर्द हो रहा था शायद| मुझे हँसी आने को हुई जिसे मैंने रोक लिया| 

“आई हैव मैनी फ्रैंड्स—बट ही इज़ नॉट माय फ्रैंड, ही इज़ फ़ैमिली फ्रैंड---”मैंने उत्तर दिया और महसूस किया कि न तो उसे संतुष्टि हुई थी, न ही शायद उसकी दीदी को क्योंकि दोनों के चेहरों पर बारह बजते हुए दिखाई दे रहे थे| 

“आप कैसी हैं?”मैंने विषय बदलने के लिए प्रमेश की दीदी की ओर ध्यान देने की कोशिश की| 

“अच्छा हाय---प्रमेश को और तुमको, दोनों को डेट पर जाना चाहिए न!देको न एज कितना होता जा रहा है| ”

कमाल है, आज पहले दिन उनसे मिलने गई ,दो बार उनके भाई से मिली जिसमें मुझे कुछ संतोष नहीं मिल पाया और ये बंदी मुझसे कुछ अधिक ही उम्मीद लगाकर बैठी हैं| क्या उत्तर देती उनकी बात का?चुपचाप बैठी रही| प्रमेश की दीदी बातें बनाने में बहुत चतुर दिखाई दे रही थीं| वे बहुत सी बातें अपने परिवार के बारे में, अपने भाई प्रमेश के बारे में,अपने भाई के टेलेंट के बारे में बोलती रहीं| उन्होंने यह भी बताया कि उनके परिवार के बहुत से लोगों ने रवींद्र संगीत में योग्यता प्राप्त की है | मैं चुपचाप बैठी रही जैसे उनकी आवाज़  कहीं दूर से आ रही थी| कहीं न कहीं मेरे खुद के मन में श्रेष्ठ के फ़ोन से खुदबुदाहट हो रही थी| खैर कोई लड़की ऐसी मीठे चूरन की पुड़िया नहीं होती कि कोई भी उसे फाँक ले| मैं तो लड़की भी नहीं रह गई थी अब लेकिन एक स्त्री तो थी और आज भी स्त्री समाज के लिए कहीं न कहीं मिठाई तो है ही! खैर हम जैसे वर्ग के लोग अधिकतर ऐसी बेचारगी में नहीं जीते, वह बात और है यदि किसी प्रकार से फँस जाएं अपनी बेवकूफ़ी से! | 

“अमी ! तुम दोनों डेट पर गया, कैसा लगता है? हमेरा भाई थोड़ा शर्मीला हय| एक बात और हाय---जिस लड़की के साथ इसको शादी बनाना होगा उससे शादी से पहले संबंध नहीं बनाएगा---”मुझे यह बात बताकर जैसे वे बड़ी तसल्ली में आ गईं| मुझे पता नहीं चला उन्होंने यह बात क्यों बोली?इसका अर्थ क्या था? वह मुझसे क्या कहना चाहती थीं? लेकिन यह ऐसी बात थी कि मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पा रही थी| क्या पूछती भला? मैंने इस सब बारे में कहाँ कुछ सोचा था, कोई भी नहीं सोचता ऐसी बातों के बारे में, अनर्गल---हुँह---मुझे लगा यहाँ से चलना चाहिए वर्ना मैं कुछ कह बैठूँगी| 

“ये शर्बत लो न,हम घर में बनवाता है| ” शर्बत अभी तक प्रतीक्षा में था कि उसका स्वाद लेने वाले आएं और उसके साथ इंसाफ़ करें ?

“हमारे यहाँ खाना खाकर जाना है अमी तुमको, हमारा कुक बहूत अच्छा खाना बनाता हाय----”उनकी भाषा कभी बिलकुल ठीक लगती कभी उसमें कुछ अलग ही उछाल आ जाता| खैर –

“जी,दीदी फिर कभी| अभी तो काफ़ी देर हो गई है घर से निकले हुए---अम्मा भी इंतज़ार कर रही होंगी| ” मैंने छुटकारा पाने की नीयत से कहा| 

“नहीं,खाना तो तुमको खाना ही है,हम बोलकर आया है अभी कुक को,यू वॉन्ट समथिंग स्पेशल?”

“नहीं—नहीं---नथिंग स्पेशल लेकिन दीदी आज नहीं, कभी और----प्लीज़ ”न जाने मुझे क्यों बड़ी उलझन सी हो रही थी| शर्बत के ग्लास हम सबके हाथों में थे,कुछ स्नैक्स भी सेंटर-टेबल पर था लेकिन किसी ने उसकी ओर हाथ नहीं बढ़ाया| 

“हम अम्मा को फ़ोन कर देते हैं न----”उन्होंने यह कहा और मैं कुछ सोच पाऊँ या कह पाऊँ ,दूसरी ओर जाकर अम्मा को फ़ोन करने लगीं| 

“नहीं,नहीं हम अमी को खाना खाए बिना नहीं आने को दे सकता---”वे काफ़ी देर तक अम्मा से इसरार करती रहीं| मैं नहीं जान पाई उन्होंने अम्मा से क्या बात की लेकिन अपने आप बात करने के बाद अपना फ़ोन मेरे हाथ में पकड़ा दिया जिससे मैं अम्मा से बात कर सकूँ| 

“अमी! खा लो बेटा,जब इतना ज़ोर दे रही हैं----” अम्मा, जिन्होंने किसी को उसकी इच्छा न होने पर इच्छा के विपरीत काम करने के लिए नहीं कहा था, उनका स्वर मुझे ऐसा लगा मानो वे मेरी इच्छा के विरुद्ध भी यही चाह रही थीं कि मैं खाना खा लूँ| 

अच्छा तो नहीं लगा लेकिन किसी का भी अपमान करने का न मेरा स्वभाव था और न ही इस समय अधिक स्ट्रिक्ट होने का मूड!मैंने चुपचाप हामी भरकर फ़ोन प्रमेश की दीदी के हाथ में पकड़ा दिया| 

“शर्बत कैसा लगा अमी?”उन्होंने पूछा| 

“जी,बहुत अच्छा है---”हालाँकि थोड़ा गर्म हो गया था फिर भी स्वादिष्ट और ताज़गी भरा था। इसमें कोई संशय नहीं था| 

“प्रोमेश ! जाओ अमी को घर दिखाकर लाओ और हाँ,अपना कमरा भी----”कहकर वे जैसे मन ही मन मुस्कराईं जो मुझे महसूस हो गया| प्रमेश अपनी बहन के सामने एक कठपुतली सा लगा मुझे| इतना आज्ञाकारी ! होगा भई, सब परिवारों का अपना-अपना तरीका होता है सोचने का, रहने का !

क्या बकवास थी ! श्रेष्ठ किसी और तरह से बोर कर गया था तो प्रमेश और उसकी दीदी अलग तरह से हाथ धोकर पीछे पड़ गए थे| मुझे जाना पड़ा घर देखने और हाँ, प्रमेश का कमरा भी| आजकल के मध्यमवर्गीय मकानों से हर हाल में बेहतर सजावट वाला घर था वह, प्रमेश का कमरा खूब सुंदर था और बाहर से ही पेंटिंग्स और फूलों के गमलों से सजा होने के कारण किसी कलाकार के खुशनुमा ताज़े हवा के झौंके सा महसूस हो रहा था| मेरी आँखों में उस घर को सजाने वाले के प्रति प्रशंसा भर आई थी| शर्बत का सुरूर मेरे सिर पर चढ़ने लगा था जैसे---

जब तक हम घर का चक्कर लगाकर लौटे, डाइनिंग-टेबल सज चुकी थी|