Asamartho ka bal Samarth Rmadas - 15 in Hindi Biography by ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ books and stories PDF | असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 15

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 15

कर्म उपदेश

समर्थ रामदास का लोगों की समझ बढ़ाने का तरीका कई बार अनूठा होता था। जब भी वे भिक्षा माँगने जाते तो उसके पीछे भी यही उद्देश्य होता कि जनसंपर्क बढ़े और सामाजिक परिस्थिति का आँकलन होता रहे।

वे जहाँ भी जाते. लोगों का निरीक्षण और परिस्थिति का अवलोकन करते। लोगों की दिक्कतें जानकर, उनके प्रतिसाद से अपने मन की स्थिति भाँपते। जिससे वे अपनी साधना कितनी सफल हुई है, यह भी परखते।

इस बहाने समाज किस तरफ जा रहा है, यह देखना और लोगों का सही मार्गदर्शन करना, यही उनका असली उद्देश्य था। उन्हें कुछ नई बातें भी सुनने को मिलती थीं क्योंकि जब वे भिक्षा माँगने जाते तो कुछ घरों में ऐसे लोग भी मिलते थे, जो संसार में रहकर ही अपनी साधना कर रहे थे। वे उन्हें नई-नई बातें बताते थे।

ऐसे ही एक दिन वे किसी द्वार पर भिक्षा माँगने गए थे। उस घर की स्त्री ने उन्हें खाना लाकर दिया और कहा, 'स्वामीजी, मुझे उपदेश का अमृत दीजिए।' रामदास स्वामी की पारखी दृष्टि कह रही थी कि वह स्त्री ज्ञान उपदेश लेने की पात्र नहीं है। उसका मन विकारों से भरा हुआ है। लेकिन रामदास स्वामी व्यवहारकुशल भी थे। वे जानते थे कि जो अपात्र है, उसे 'तुम इसके पात्र नहीं हो' ऐसा सीधे बताया जाए तो वह बुरा मान सकता है। अपने बारे में ऐसी बात सुनकर उसके मन में उठी दुर्भावना उसे पहले से ज़्यादा अपात्र बना देगी इसलिए उस वक्त ‘मैं कल आकर आपको उपदेश दूँगा’, कहकर वे चले गए।

अगले दिन उस स्त्री के द्वार पहुँचकर उन्होंने भिक्षा के लिए पुकार लगाई। ‘आज मुझे उपदेश अमृत मिलेगा’, यह सोचकर वह स्त्री बड़ी खुश थी इसलिए स्वामीजी को परोसने के लिए उसने खीर बनाई थी। एक बरतन में खीर लेकर वह बाहर आ गई।

समर्थ रामदास ने भिक्षा ग्रहण करने के लिए अपना कमंडल आगे बढ़ाया। स्त्री उन्हें खीर परोसने ही वाली थी लेकिन कमंडल देखकर, वह चौंककर दो कदम पीछे हट गई। क्योंकि उस कमंडल में गोबर भरा हुआ था।

स्त्री ने विस्मय से कहा, ‘स्वामी, इसमें तो गोबर भरा है। इसमें खीर कैसे डाल सकती हूँ?’

स्वामीजी ने पूछा, 'क्यों नहीं डाल सकती?'

‘ऐसे तो दूध खराब हो जाएगा, लाइए इसे धोकर पहले साफ कर देती हूँ।’ स्त्री ने उत्तर दिया।

स्वामी ने कहा, “यही हमारे मन के साथ भी होता है, इसमें बहुत कचरा भरा हुआ है। जब तक नफरत, द्वेष, अहंकार, लालच आदि वृत्तियों का गोबर अंदर से निकल नहीं जाता तब तक इसमें ज्ञान नहीं डाला जा सकता। पहले अपने मन को साफ बनाओ, इसे विकार रहित बनाने का कर्म करो, फिर तुम ज्ञान पाने की पात्र बन जाओगी।”

अपने उपदेश में समर्थ रामदास ने कर्म मार्ग को बड़ा महत्त्व दिया है। इंसान की अकर्मण्यता ही उसकी और पूरे समाज की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार है, ऐसा उनका मानना था।

आधि ते करावे कर्म कर्म मार्गे उपासना ।
उपासका सापडे ज्ञान। ज्ञाने मोक्षचि पावणे ॥

अर्थात पहले कर्म करें, फिर कर्म द्वारा उपासना। उपासक को ज्ञान मिलता है और ज्ञान से मोक्ष मिलता है।

इस श्लोक द्वारा उन्होंने कर्ममार्ग पर चलने का संदेश दिया है। कर्ममार्ग से उपासना (कर्म को ही उपासना बनाना) करने पर ज्ञान प्राप्त होता है, जो मोक्ष की तरफ ले जाता है, यह कहते हुए उन्होंने समाज को कर्म करने के लिए प्रेरित किया।

प्रभु राम की भक्ति में उन्हें आत्मज्ञान मिला। इस आत्मज्ञान से उनके द्वारा अनेक उपदेश पर ग्रंथ बने। सांसारिक बातें हों, व्यवहारकुशलता हो या परमार्थ का ज्ञान, मनुष्य को जीवन में काम आनेवाला हर ज्ञान उन्होंने अपने ग्रंथों द्वारा दिया है। जीवनमूल्य, परिस्थिति का आँकलन, व्यवहार (वर्तन), आत्मपरीक्षण ऐसे अनेकों पहलू उनके ग्रंथों द्वारा उजागर हुए हैं, जो मानवी जीवन को समृद्ध बनाने में समर्थ हैं।

ज्ञान से पात्रता बढ़ती है लेकिन ज्ञान पाने की पात्रता केवल अहंकार को समर्पित करने से ही मिलती है। अहंकार रहित इंसान ज्ञान का उपयोग दूसरों के कल्याण के लिए करता है।


देहे बुद्धिचा निश्चयों दृढ झाला । देहातीत ते हीच सांडीत गेला ।
देहेबुधि ते आत्मबुधि करावी। सदा संगती सज्जनाची धरावी॥163॥

अर्थ - देहबुद्धि को ही सच मानकर चलने से देहातीत अवस्था में जो लाभ है वह नहीं मिल पाता। देहबुद्धि का त्याग कर आत्मबुद्धि जगाओ। यह सज्जन की संगत में रहकर ही संभव है।

अर्क - खुद को शरीर मानना और यही विश्वास दृढ़ होना आत्मज्ञान पाने में सबसे बड़ी बाधा है। स्व का असली स्वरूप देह से परे है। वह शरीर की वजह से मालूम पड़ता है इसलिए ‘मैं यह शरीर हूँ’, भ्रम पैदा होता है। जीवन में असली गुरु आते हैं तो यह भ्रम टूटता है। इसलिए समर्थ रामदास सज्जन की संगत में रहने को महत्त्व देते हैं।

मनें कल्पिला विषयो सोडवावा । मनें देव निर्गुण तो वोळखावा ।
मनें कल्पिता कल्पना ते सरावी। सदा संगती सज्जनाची धरावी ॥164॥

अर्थ - मन को विषयों की कल्पना से मुक्त करो ताकि वह त्रिगुणातीत निराकार ईश्वर को पहचान सके। मन एक के बाद दूसरी कल्पना करता रहता है। उसकी यह आदत छूटे इसलिए सदा सज्जन की संगत में रहो।

अर्क - मन ईश्वर की भी कल्पना बना लेता है और उसी को सच मान लेता है। असली ईश्वर के दर्शन होने में यह कल्पना ही बाधा बनती है। कल्पना इंसान को वर्तमान से दूर आभासी दुनिया में ले जाती है। वास्तव का दर्शन होने के लिए कल्पना से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है। मन की कल्पना में रहने की आदत को तोड़ने के लिए समर्थ रामदास मन को सज्जन की संगत में रहने का उपदेश देते हैं।