उन दिनों गोरखपुर की दुनिया बहुत सीमित हुआ करती थी | एक ओर एयर फ़ोर्स स्टेशन शहर का आखिरी छोर माना जाता था तो दूसरी ओर तुर्कमान
पुर | एक ओर रुस्तमपुर ढाला तो दूसरी ओर आम बाज़ार और फिर आगे चलकर मेडिकल कालेज | सायकिल आवागमन की मुख्य सवारी हुआ करती थी और आप सायकिल उठाकर कुछ ही देर में पूरा शहर नाप सकते थे | लगभग आधे शहर में रामगढ़ ताल अपने घने शैवाल के साथ शबाब बिखेरा करता था | राप्ती नदी शहर का श्रृंगार बनकर अपनी समृद्ध जल भंडारण पर इतना इतराती थी कि वर्षाकाल में बाढ़ बनकर शहरवासियों के लिए मुसीबत भी बना करती
थी | गिने चुने प्रतिष्ठित स्कूल हुआ करते थे और उनमें पढाने वाले अध्यापकों को लगभग पूरा शहर जानता
था | कचहरी सबसे ज्यादा चहल पहल वाली जगह होती थी और उसके इर्द गिर्द सुबह सुबह गोइंठा पर लिट्टी चोखा का भोजन बनाते दूर दराज़ से आये फरियादी दिखते थे और बीच दोपहर अगर हम स्कूल से छुट्टी पा जाते तो कचहरी जाकर बाइस्कोप, मदारी, संपेरा और जादूगर के खेल भी मुफ्त में देखा करते थे | कुल मिला कर छोटा सा था यह अपना शहर गोरखपुर | कुछ - कुछ गाँव जैसा |इसी छोटे से शहर का वह मेरा बड़ा दोस्त था – देवव्रत तिवारी| पेशे से अध्यापक और शौक से? शौक से तो मैं उसे कहूँगा - बहुरूपिया |
पहले अलहदादपुर चौराहे पर बने एक दुमंजिले मकान में वह रहा करता था |पिता (डा.रामचन्द्र तिवारी) की हिन्दी प्रवक्ता के रूप में नई नई नौकरी लगी थी उस समय के जल्दी ही खुले हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय में | मिशन स्कूल (अब सेंट एंड्रूज़ इंटर कालेज ) में छठवीं क्लास में हम सहपाठी थे और चूंकि मैं भी अलहदादपुर में ही रहता था इसलिए देवव्रत के साथ पैदल ही आना जाना हुआ करता था | किसी किसी रविवार को बड़ी हिम्मत करके , घरवालों को बिना बताये हम दोनों इकठ्ठा होकर अपने समान रूचि के समवयस्क लडकों के साथ क्रिकेट या फ़ुटबाल खेला करते थे | बैट,बाल और फ़ुटबाल जुटाने की ज़िम्मेदारी का निर्वहन देवव्रत ही किया करते थे इसलिए सर्वसम्मत से वे टीम के कैप्टेन हुआ करते थे | आगे चलकर उन्होंने पैड और ग्लब्स भी सुलभ कराये |हम सबकी जुटान ब्राम्हण स्कूल (अब टी.डी.एम.) या नार्मल स्कूल के ग्राउंड पर होती
थी |हौसले और उमंग की छलांग अक्सर उन्हीं मैदानों पर जुटने वाले दूसरे मोहल्ले के लोगों से मैच भी ठान लेने को उतावला कर देती और तब टीम को जिताने का दारोमदार भी देवव्रत ही उठाया करते थे | उनका खिलाड़ी का रूप देखने लायक हुआ करता था |क्या बालिंग,क्या बैटिंग और क्या फील्डिंग .. सबमें सर्वोत्तम | उनकी अच्छी खासी लम्बाई, बड़े बड़े हाथ और पंजा और लम्बी टांगें हम सबकी हथियार थीं |मैच जीतते तो हौसला बढ़ जाता था |आगे चलकर टाउनहाल का मैदान हमारे क्रिकेट मैच की रणभूमि हुआ करती थी | हम सभी को कभी कभी देवव्रत पर आश्चर्य भी हुआ करता था कि कैसे कैसे वे “कूल” रहकर भी विपरीत परिस्थितियों को अपने बस में कर लिया करते थे |नौवीं तक हम साथ साथ थे | कठिनतम गणित और संस्कृत के चलते मैं नौवीं कक्षा में फेल हो गया और देवव्रत आगे हो लिए |लेकिन यह देखिये कि देवव्रत के अनुज धर्मव्रत अब हमारे सहपाठी हो गए |चूंकि स्कूल वही था इसलिए मुझे अब एक ही परिवार से दो मित्र मिल गए | देवव्रत अब स्कूल की टीम में शामिल हुआ करते थे |फ़ुटबाल , हाकी ,बालीबाल सभी खेलों में उनकी समान पकड़ हुआ करती थी |
1969 में हाई स्कूल करने के बाद मैं दयानन्द इंटर कालेज में चला गया और अब हमारे स्कूल और मोहल्ले भी अलग अलग हो चुके थे |वे बेतियाहाता के अपने नवनिर्मित मकान में और मैं पैडलेगंज के एलाटमेंट के मकान में शिफ्ट हो गया था |जाने क्यों एक लंबा अंतराल हमारे संपर्कों में आया | वर्ष 1977 में मैंने गोरखपुर छोड़ दिया और आकाशवाणी की मेरी नौकरी की शुरुआत इलाहाबाद से हुई |उसी साल के अंत तक जब मैंने आकाशवाणी गोरखपुर ज्वाइन किया तो एक दिन पता चला कि मेरे बाल सखा देवव्रत एम.पी.इंटर कालेज में 1981-82 में प्रवक्ता हो चुके हैं | मई 1984 में उनकी शादी भी हो चुकी है और वे आकाशवाणी में प्राय: अपने हरे रंग के विजय सुपर डीलक्स स्कूटर से आते रहते हैं |दशकों बाद बचपन के मित्र देवव्रत से एक बार फिर मुलाक़ात हुई जो उनके जीवन के अंतिम समय तक बनी रही |अब हम पारिवारिक मित्रता का कुशल निर्वहन करने लगे थे |उन दिनों तक खेलकूद के अलावे देवव्रत ने ढेर सारे क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी |विद्यालय की खेलकूद की टीमों को लेकर बाहर जाने लगे थे |आकाशवाणी गोरखपुर में अपने मृदुल और सहयोगपूर्ण व्यवहार के चलते उन्होंने सभी को अपना प्रिय बना लिया था |उनका वह व्यक्तित्व उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक वैसा ही बना रहा |
गोरखपुर मेरी जन्मभूमि और आकाशवाणी गोरखपुर अनेक दशक तक मेरी कर्मभूमि रही है |अपने पिताजी की रचनात्मक अभिरुचि ने मुझमें भी लेखन की अलख जगाई और मैं भी लिखने पढने लगा था |जब आकाशवाणी केंद्र की स्थापना हुई तो उसमें नौकरी करना मेरा एक ख़्वाब बन गया |ढेर सारे पापड़ बेलने पड़े तब जाकर उस ज़माने के लिए अत्यंत प्रतिष्ठित एकमात्र सरकारी प्रसारण संगठन में सेवा करने का अवसर मिला | वर्ष 1973 में राजनीति, अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य के साथ कला स्नातक और जुलाई 1976 में कानून की डिग्री लेकर मैंने अपने पिताजी के साथ दीवानी कचहरी जाने आने का क्रम अत्यंत बेमन से शुरू ही किया था कि 30 अप्रैल 1977 को मुझे प्रसारण अधिशाषी के रूप में ज्वाइन करने का अवसर मिला | मुझे अब भी याद है वर्तमान में भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्र में वित्त राज्यमंत्री शिवप्रताप शुक्ल पिताजी के कचहरी के चैम्बर से मुझे लेकर रिक्शे से सी.एम.ओ. आफिस गए थे और अपने सामने मेरा मेडिकल हाथोंहाथ करवा कर लाये थे | सचमुच , छोटे शहर गोरखपुर से निकले ऐसे बड़े लोगों की स्मृतियों का आदि अंत नहीं है | अपनी बड़ी बिटिया की कलात्मक अभिरुचियों के चलते मित्र देवव्रत ने मई-जून 1986 से ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में “किसलय” नामक बाल रंगमंच की कार्यशालाएं अपने कुशल निर्देशन में हर साल चलाने लगे थे |कोई एक नाटक लिया जाता था |उसमें नाट्य विधा के विशेषज्ञों को भी बुलाते थे |छोटे छोटे बच्चों को उच्चारण,संवाद अदायगी,स्टेज पर इंट्री ,ध्वनी और प्रकाश ,मेक अप ,आदि पहलुओं पर जानकारियाँ दी जाती थीं |सारे साधन जुटाने ,स्थान चयन,ब्रेक के दौरान चायपान आदि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की हुआ करती थी | कार्यशाला के समापन पर किसी एक या दो बाल नाटकों कीप्रस्तुतियां उसके प्रतिभागी किया करते थे |एम्.पी.इंटर कालेज का हाल प्राय: इसके लिए चुना जाता था |चित्रगुप्त मन्दिर,बख्शीपुर के हाल में एक साल उन्होंने नाटक की जगह बच्चों के लिए संगीत की कार्यशाला भी चलाई थी और समापन पर कबीर की रचनाओं पर अत्यंत ही सम्मोहक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था जो अभी तक मेरी स्मृतियों में बना हुआ है |एक साल उन्होंने बच्चों के लिए इन्हीं छुट्टियों में क्रिकेट का कैम्प भी चलाया था जिसमें मेरे बच्चे भी भाग लिए थे | उनका पत्र पत्रिकाओं में लेखन का काम भी शुरू हो चुका था |सबसे बड़ी बात यह कि वे इन सभी आयोजनों में चंदा नहीं लिया करते थे और हजारों रूपये खुद खर्चकिया करते थे |
लगभग 37 साल मैंने आकाशवाणी के कार्यक्रम निर्माण के अनुभवों से गुजरा हूँ और जब उन अवधि को याद करता हूँ तो अपने बाल सखा देवव्रत का नाम शीर्ष पर इसलिए पाता हूँ क्योंकि किसी भी विषय पर कार्यक्रम निर्माण की सामग्री के लिए उनकी डिक्शनरी में असम्भव नाम का शब्द था ही नहीं |उन दिनों संचार और सूचना के इतने विकसित संसाधन नहीं हुआ करते थे |कार्यक्रम निर्माण के लिए पहले तत्विषयक सामग्री की तलाश , अनुसन्धान- पठन पाठन और तब लेखन हुआ करता था |गूगल नहीं था ,फोटोकापी मशीन नहीं हुआ करती थी और कार्बन लगा कर कापियां बनती थीं | देवव्रत यह सब तैयार करके आते थे |कभी कभी मैं उनसे कहा भी करता था कि “ यार तुम्हें जितनी धनराशि पारिश्रमिक के रूप में रेडियो से मिलती है वह सब तो तुम इन्हीं सब पर खर्च देते हो “..तो वे बस मुस्कुरा दिया करते थे | इसीलिए मैं तो मैं , मेरे सहकर्मी और दूसरे केन्द्रों के समान पदवाले साथी भी देवव्रत के इस समर्पण भाव से वाकिफ़ थे और इसीलिए वे अब सिर्फ़ मेरे ही नहीं बल्कि पूरे रेडियो के दोस्त बन बैठे थे |आकाशवाणी के शिक्षा प्रसारण और विद्यार्थियों के लिए कार्यक्रम के लिए तकनीकी पाठ की तय्यारी में एक शिक्षक होने के नाते उन्हें महारत हासिल थी |उनके लिखे नाटक.लघु नाटिकाओं और रूपकों में जीवन्तता हुआ करती थी |इसीलिए अनेक बार प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर के प्रसारणों में उन्हें सम्मिलित भी किया गया था |
मुझे आश्चर्य है कि बचपन से खिलाड़ी और हमेशा चहलक़दमी करते रहने वाला ,पान-सिगरेट-तम्बाकू से दूर रहने वाला मेरा शाकाहारी दोस्त देवव्रत क्यों और कैसे मार्च 2009 में किडनी इन्फेक्शन की चपेट में आ गया ?दवा दारू के बाद भी जब उसकी बारी बारी से दोनों किडनी फेल हो गई तो उसके लिए जीवन रक्षक बन कर किडनी डोनर के रूप में सामने आईं उनकी धर्मपत्नी शैल ! 05 सितम्बर 2011 को उनकी किडनी ट्रांसप्लांट हुई और एकबारगी लगा कि देवव्रत अब पूर्णायु तक अपने रंगकर्म के सपने को साकार कर सकेंगे | मृत्यु से पूर्व उनसे हुई मुलाक़ात में मैंने उनमें उसी बचपन वाले उत्साह को पाया था जो शायद दीपक की अंतिम लौ के समान ही साबित हुआ | 07 मार्च 1955 को जन्में देवव्रत कुछ पूरे और ढेर सारे अधूरे ख़्वाब के साथ 60 साल की उम्र में 29 जून 2015 को रुखसत हो लिए |गोरखपुर का वह छोटा शहरी रूप अब बहुत ज़्यादा बदल चुका है |बच्चों की अतिरिक्त खेलकूद, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए साधन सम्पन्न ढेर सारी संस्थाएं सामने आ चुकी हैं |किन्तु मेरी स्मृतियों के अंतहीन गलियारों में देवव्रत का बाल नाट्यशालाएं आयोजित करने और उसे हर साल अविस्मरणीय बना देने का उतावलापन अब भी उतरता रहता है |
महाराणा प्रताप इंटर कालेज नामक गोरखपुर के जिस विद्यालय को खेलकूद में हमेशा कीर्तिमान दिलाते रहने के लिए खेलकूद प्रभारी शिक्षक देवव्रत संकल्पबध्द रहा करते थे ,उस विद्यालय के प्रबन्धक आज उ.प्र. के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जी हैं और अपने ऐसे प्रतिभावान शिक्षक की स्मृति को चिर आयु आयु प्रदान करने के लिए यदि उनका एक इशारा हो जाय तो गोरखपुर में देवव्रत जैसे मित्र , गोरखपुर में बाल रंगमंच के पुरोधा के लिए और मंच कलाकारों के लिए भी सम्मान की बात होगी |