मैं राम दूत को प्रणाम करता हूँ, जो वायुदेव के पुत्र तथा वानरों में श्रेष्ठ थे, जिनका अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण था और जो अत्यंत बुद्धिमान थे, जो मन की गति की के समान फुर्तीले थे तथा पवन की गति से चलते थे। —हनुमान स्तोत्र अपने माता-पिता के चले जाने के बाद, हनुमान पूरी तरह अपने धात्रेय पिता, वायुदेव की देखभाल में रहने लगे। कुछ वर्ष वन में बिताने के बाद हनुमान ने सोचा कि वन में इस तरह उछल-कूद करने और फल खाने से अतिरिक्त भी जीवन में कुछ करना चाहिए। उन्होंने मन में अपने पिता वायुदेव का स्मरण करके उन्हें सहायता के लिए बुलाया और कहा कि वे संसार को देखने के लिए उत्सुक हैं तथा संतों से मिलना चाहते हैं।
वायुदेव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कहा, “तुम्हारा निश्चित ही, अब यहाँ से प्रस्थान करने का समय हो गया है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ से जाने से पहले, तुम विवाह कर लो। इसके बाद तुम वानरों के प्रदेश किष्किंधा में जा सकते हो। वहाँ का राजा बाली, महान और शक्तिशाली वानर है। उसका एक भाई भी है, जिसे सुग्रीव के नाम से जाना जाता है। तुम उससे मित्रता कर लो। ऐसा करने से अवश्य ही तुम्हें यश और वैभव की प्राप्ति होगी।”
हनुमान, अपने पिता के समक्ष नतमस्तक हो गए और दृढ़तापूर्वक बोले, “प्रभु, पारिवारिक जीवन में मेरी लेश मात्र भी रुचि नहीं है। मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है और मुझे विश्वास है कि मैं सदा उसका पालन करूँगा। परंतु मुझे आपके द्वारा दी गई दूसरी सलाह अच्छी लगी। मैं बिना देर किए बाली के राज्य के लिए प्रस्थान करूँगा।”
हनुमान ने वन में अपने साथियों को स्नेहपूर्ण विदाई दी और किष्किंधा की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने सामान्य वानरों की भाँति पेड़ों के बीच से यात्रा आरंभ कर दी। कुछ देर बाद उन्हें भूख और प्यास लगी। उन्हें एक जलधारा दिखाई तो वे पानी पीने के लिए नीचे उतर आए। उन्होंने अभी अंजुलि में पानी भरा ही था कि उन्हें भयानक आवाज़ सुनाई पड़ी, “मेरी अनुमति के बिना कोई यह जल नहीं पी सकता!” आवाज़ सुनकर हनुमान ने अंजुलि में भरा पानी नीचे गिरा दिया और उस वक्ता को इधर-उधर खोजने लगे। किसी को वहाँ न देखकर, वे बोले, “तुम कौन हो? कायर की भाँति झाड़ियों के पीछे क्यों छिपे हो? सामने क्यों नहीं आते?”
ऐसा कहते ही वह समूचा वन एक ज़ोरदार गर्जना से गूँज उठा और एक भयंकर राक्षस हनुमान के सामने आ खड़ा हुआ। हनुमान उसे देखकर बिलकुल नहीं घबराए और उसका परिचय पूछा।
राक्षस ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हें अपना परिचय क्यों दूँ? तुम मेरे क्षेत्र में अनाधिकृत तरीक़े से घुस आए हो और अब मैं अवश्य ही तुम्हें अपना भोजन बनाऊँगा!”
ऐसा कहकर उसने अपना गुफा जैसा मुँह खोला और हनुमान को समूचा निगलने के लिए आगे बढ़ा। उसके मुँह से रक्त की दुर्गंध आ रही थी। इससे पहले कि वह राक्षस हनुमान को पकड़ पाता, हनुमान ने अपने पिता वायु से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग किया तथा अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि वे अब उस राक्षस के आमने-सामने खड़े हो गए। राक्षस उस छोटे-से वानर का यह करतब देखकर थोड़ा अचंभित हुआ किंतु वह भी कुछ तरक़ीबें जानता था। वह भी अपना आकार बढ़ाता चला गया और फिर अचानक हनुमान पर झपटा और बोला, “अब मैं भोजन करूँगा!”
हनुमान ने भी तुरंत अपने तन का आकार बढ़ाकर उस राक्षस से दुगुना कर लिया और उसे जोरदार लात मारी जिसके कारण राक्षस धरती पर गिर पड़ा। परंतु राक्षस दुगुने जोश से उठ खड़ा हुआ और वे दोनों बहुत लंबे समय तक लड़ते रहे किंतु किसी की भी पराजय नहीं हुई। तब हनुमान को समझ आया कि वह कोई साधारण राक्षस नहीं था और फिर उन्होंने भगवान शिव को सहायता के लिए बुलाया। हनुमान ने ध्रुब नाम की घास का तिनका लिया और उसके अंदर शिव के महान अस्त्र, पशुपतास्त्र का मंत्र फूँक दिया। फिर उन्होंने पूरी शक्ति से वह तिनका, उस राक्षस के ऊपर फेंका। तिनके के वार से वह कई गज़ दूर एक चट्टान पर जा गिरा और टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। उन टुकड़ों में से एक दिव्य प्राणी प्रकट हुआ। वह हनुमान के पास गया और उन्हें झुककर प्रणाम किया।
“प्रभु!” उसने कहा, “मैं पूर्वजन्म में एक गंधर्व था और शाप के कारण राक्षस बन गया। मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझे उस शाप से मुक्ति दिलवाई!”
हनुमान जानना चाहते थे कि उसे वह शाप कैसे मिला। तब गंधर्व ने उत्तर दिया।
“एक बार मैंने एक ऋषि की कन्या का अपहरण करने का प्रयास किया तो उन्होंने मुझे शाप देकर राक्षस बना दिया। जब मैंने उनसे शाप से मुक्त करने की प्रार्थना की तो उन्होंने मुझे कहा कि मेरा अंत उसके हाथों होगा जो शिव के अंश से उत्पन्न हुआ हो। तभी मुझे शाप से मुक्ति मिलेगी। अब मुझे पता लगा कि वे आप ही हैं, जिनका उस ऋषि ने उल्लेख किया था।”
गंधर्व ने हनुमान को आशीर्वाद दिया और चला गया। हनुमान ने भी अपनी यात्रा पर आगे बढ़ने से पहले स्वच्छ जल से अपनी प्यास बुझाई और पेटभर के फल खाए।
इसके बाद मारुति ने भारतवर्ष के उपमहाद्वीप में अपनी यात्रा जारी रखी। मार्ग में उन्होंने अनेक महान ऋषियों से भेंट की और आशीर्वाद लिया। उन्होंने कई भयंकर राक्षसों और पक्षियों का भी सामना किया तथा अत्यंत सुंदर वृक्ष और फूल भी देखे। अंत में, वे विदर्शन नामक एक बहुत बड़े वन में पहुँच गए जो इतना अंधकारपूर्ण और भयानक था कि दिन के उजाले में भी कोई वहाँ से गुज़रने का साहस नहीं करता था। वह जंगल राक्षसों और निशाचरों से भरा पड़ा था तथा उसमें कई जंगली प्राणी भी रहते थे।
हनुमान ने भगवान शिव का स्मरण किया और निर्भयता से वन में प्रवेश कर गए। चलते समय, उन्हें काटने वाले मच्छरों तथा विषैले कीड़ों ने परेशान किया। विभिन्न लताएँ और बेलें उनके पैरों से लिपट गईं और उन्हें आगे जाने से रोकने लगीं। संध्या होने पर, हनुमान को अपने चारों ओर जंगली पशुओं की गुर्राहट सुनाई पड़ने लगी। उन्होंने रात एक पेड़ पर बिताने का निर्णय किया किंतु वह पूरी रात एक हाथी को पीड़ा से कराहते हुए सुनते रहे। सुबह होते ही वे तज़ी से उस स्थान की ओर गए जहाँ से दर्दभरी आवाज़ें आ रही थीं। वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा कि एक विशालकाय हाथी आधा नदी के अंदर और आधा बाहर फँसा हुआ था। उसके पिछले पैर दृढ़ता से पानी के अंदर थे और वह भरपूर प्रयास करने पर भी नदी से बाहर नहीं निकल पा रहा था। उसे देखकर हनुमान को बहुत दुख हुआ और वे यह देखने के लिए निकट गए कि क्या चीज़ है, जो उस विशाल हाथी को पानी से बाहर नहीं आने दे रही थी। वह देखकर हैरान रह गए कि एक मगरमच्छ ने उस हाथी का एक पैर बड़ी निर्ममता से अपने मज़बूत जबड़ों में दबा रखा था। वह विशाल मगरमच्छ धीरे-धीरे हाथी को पानी के अंदर खींच रहा था। हाथी के पैर से रक्त रिसते हुए नदी में लाल रंग की धारा के रूप में बह रहा था। हाथी अपनी सूँड़ उठाकर करुण ढंग से चिंघाड़ा। हनुमान को उस पशु के लिए बड़ा दुख हुआ और वायुदेव का वह निर्भय पुत्र, पानी में कूद पड़ा।
हनुमान ने मगरमच्छ की पूँछ पकड़ी और उसे खींचने लगे। परंतु मगरमच्छ ने हाथी को छोड़ने के बजाय उसके साथ हनुमान को भी पानी के अंदर खींच लिया। हनुमान तुरंत समझ गए कि वे भूल कर रहे हैं। उन्होंने मगरमच्छ की पूँछ छोड़ दी और उसकी पीठ पर सवार हो गए तथा उसके जबड़े को पकड़ लिया। हनुमान ने अपने ज़बरदस्त बल के प्रयोग से मगरमच्छ का जबड़ा खोल दिया और हाथी को पीड़ा से मुक्त कर दिया। दर्द से और शिकार हाथ से निकल जाने के कारण, मगरमच्छ क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह ज़ोर-ज़ोर से अपनी पूँछ पानी में मारने लगा और अपने ख़ूनी जबड़े को खोलकर नए शिकार पर झपट पड़ा। आंजनेय तैरकर तुरंत उसके पीछे पहुँच गए और उसकी पूँछ पकड़ ली तथा उसे नदी-तट पर बाहर खींच लाए। इससे पहले कि मगर कुछ समझ पाता, हनुमान ने उसे फिर से पूँछ से पकड़ा और अपने सिर के ऊपर उठाकर घुमाते हुए सैकड़ों गज़ दूर उछाल दिया। मगरमच्छ ज़मीन पर गिरा और गिरते ही उसके प्राण निकल गए।
हनुमान को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मगरमच्छ के शरीर से एक अत्यंत सुंदर कन्या निकली और उसने हनुमान के पास आकर प्रणाम किया।
“आप कौन हैं और आपने मगरमच्छ का रूप कैसे धारण किया हुआ था?” हनुमान ने पूछा।
“हे आंजनेय!” वह बोली, “मेरा नाम अंबालिका है। मैं देवराज इंद्र के दरबार की एक अप्सरा हूँ। एक बार, मैं हिमालय के सरोवर में अपनी सहेलियों के साथ स्नान कर रही थी। हमने सरोवर के तट पर कुछ युवा तपस्वियों को देखा जो ध्यान में लीन बैठे थे। हम उन्हें देखकर मुग्ध हो गए और अपने संगीत व नृत्य से उन्हें रिझाने का प्रयास करने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने आँखें खोलीं और हमें करुण दृष्टि से देखते हुए समझाया कि यदि हमें उनके शाप से बचना हो तो हमें वहाँ से दूर चले जाना चाहिए। मेरी सहेलियाँ तो वहाँ से चली गईं, किंतु मैं उनमें से एक तपस्वी पर मोहित हो गई और वहाँ से नहीं गई। उसने मुझे बार-बार समझाया कि मैं उसके धैर्य की परीक्षा न लूँ, किंतु मैं नहीं मानी। अंत में उसने मुझे शाप दे दिया कि मैं विदर्षण वन के इस कीचड़ वाले तालाब में निर्मम मगरमच्छ बन जाऊँगी। मैंने उस तपस्वी से क्षमा माँगी तब उसने मुझे कहा कि शिव के अंश से उत्पन्न वायुदेव के पुत्र के हाथों ही मेरा उद्धार होगा! अब मुझे पता लगा कि वे आप ही हैं, जिनके बारे में मुझे उस तपस्वी ने बताया था। आपने मुझे मुक्ति दिलाई है इसलिए मैं आपको वरदान देना चाहती हूँ। आज के बाद आपको कभी पानी में डूबने से भय नहीं रहेगा। पानी आपको कोई क्षति नहीं पहुँचाएगा। कृपया मुझे जाने की अनुमति दें!”
हनुमान उसकी कथा सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने उसे जाने की अनुमति दे दी।
इस घटना के बाद हनुमान अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए। अनेक वनों, पर्वतों तथा नदियों को पार करते के बाद वे किष्किंधा राज्य के बाहरी प्रदेश तक पहुँच गए। बहुत दूर से ही, उन्हें वन्य पशुओं की दहाड़ और हाथियों की चिंघाड़ सुनाई दे रही थी। वे एक पेड़ पर चढ़कर देखने लगे कि वहाँ क्या हो रहा है। उन्होंने देखा कि एक सीधा-सा वानर जंगली हाथियों और अन्य वन्य पशुओं से घिरा हुआ था और पराजित होने को था। हनुमान अत्यंत तत्परता के साथ बीच में कूद पड़े और उन्होंने हाथियों को वहाँ से खदेड़ दिया।
वानर ने उनसे पूछा, “तुम कौन हो, जिसने सही समय पर यहाँ पहुँचकर मेरे प्राण बचा लिए?”
“मैं अंजना पुत्र, आंजनेय हूँ लेकिन लोग मुझे हनुमान कहते हैं। आप अपना परिचय दीजिए। आप बहुत थके हुए लग रहे हैं। आप इस संकट में कैसे फँस गए थे?”
“मेरा नाम सुग्रीव है और मैं यहाँ के राजा, बाली का छोटा भाई हूँ। इस जंगल में मायावी नाम का एक भयंकर राक्षस रहता है। एक बार मैंने और मेरे भाई ने उस राक्षस से सदा के लिए छुटकारा पाने का मन बना लिया। मेरे भाई ने मुझे और मेरे साथियों को इस मार्ग से आने को कहा तथा वह स्वयं किसी दूसरे मार्ग से गया। हालाँकि हमने मायावी को खोज लिया, लेकिन हम उसे मार नहीं सके। भीषण युद्ध के बाद, उसने हमारे सभी मित्रों को मार डाला। उसने मुझसे कहा, ‘मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ क्योंकि तुम्हारे साथ मेरा कोई झगड़ा नहीं है। मुझे तुम्हारे भाई बाली की तलाश है!’ मैं उससे जैसे ही बचकर निकला, मुझे इन वन्य पशुओं ने घेर लिया था जिन्हें तुमने अभी देखा था। मैं बहुत थक गया था और अपनी रक्षा करने में असमर्थ था और यदि तुम नहीं आते तो मेरी दुर्दशा हो जाती!”
हनुमान ने मुस्कराते हुए कहा, “सुग्रीव! मेरी और आपकी भेंट, मित्र बनने के लिए ही हुई है। हमारे सामने बहुत लंबा इतिहास है!”
“मैं तुम्हारी बात का अर्थ नहीं समझा,” सुग्रीव ने कहा।
“मेरी बात का अर्थ समय बताएगा। मैंने आपके पिता सूर्यदेव को वचन दिया है कि मैं आपका मित्र बनकर रहूँगा। आप मुझे मायावी के विषय में बताइए। वह कौन है? क्या वह सचमुच बहुत भयंकर है?”
“यह क्या प्रश्न है!” सुग्रीव ने कहा, “वह राक्षस सचमुच बहुत साहसी है। उसे केवल मेरा भाई मार सकता है।”
यह सुनकर हनुमान मुस्कराए और बोले, “यदि मस्तिष्क पर नियंत्रण हो तो इस संसार में ऐसी कोई वस्तु या व्यक्ति नहीं जिसे पराजित नहीं किया जा सकता। हालाँकि इस विषय में हम बाद में बात करेंगे। हम लोगों का मिलना पूर्वनिर्धारित था और यह हमारी मित्रता का सिर्फ़ आरंभ है। आपको विश्राम करने की आवश्यकता है और उसके बाद हम लोग आगे चलेंगे।”
सुग्रीव ने हनुमान को गले लगाकर उनसे हमेशा अपना मित्र बने रहने की प्रार्थना की और फिर सुग्रीव ने हनुमान को अपने राज्य, किष्किंधा आने का निमंत्रण दिया।
सुग्रीव चलने की स्थिति में नहीं था, इसलिए हनुमान ने उसे अपनी पीठ पर उठा लिया और एक नदी के किनारे आ पहुँचे। वे लोग वहाँ स्नान करके तरोताज़ा हो गए। फिर हनुमान जंगल से कुछ फल ले आए जिन्हें खाने के बाद उन्होंने उस रात वहीं पेड़ पर विश्राम किया।
रात में उन्होंने बहुत-से विषयों पर बात की। हनुमान ने सुग्रीव व उसके भाई बाली के जन्म की कथा सुनने की इच्छा व्यक्त की।
एक बार शीलावती नाम की एक पतिव्रता स्त्री थी। उसके पति उग्रतापस को कुष्ठरोग हो गया लेकिन वह अपने पति की बहुत स्नेहपूर्वक देखभाल करती रही। एक बार उसके पति ने वेश्या के साथ संभोग करने की इच्छा व्यक्त की। यह सुनकर शीलावती विचलित नहीं हुई और उसने निर्णय किया कि पति की इच्छा, चाहे कितनी भी अनुचित हो, पूरी करना ही पत्नी का कर्त्तव्य है। चूंकि शीलावती के पति की हालत बहुत ख़राब थी और वह चलने में असमर्थ था, उसने अपने पति को एक टोकरी में बैठाया और उसे सिर पर रखकर एक वेश्या के घर के लिए चल पड़ी। मार्ग में, वह एक मैदान से गुज़र रही थी, जहाँ मांडव्य नाम के एक महान ऋषि को झूठे आरोप में राजा की आज्ञा से सूली पर लटकाया गया था। ऋषि को यह देखकर बहुत बुरा लगा कि कैसे उस भली स्त्री का दुष्ट पति शोषण कर रहा है। मांडव्य ऋषि ने शाप दे दिया कि सूर्योदय से पूर्व उसके पति की मृत्यु हो जाएगी! शीलावती ने यह सुना तो उसने तुरंत पलटकर शाप दे दिया कि अगले दिन सूर्योदय ही नहीं होगा! उसके पतिव्रत धर्म में इतनी शक्ति थी कि वही हुआ जो उसने कहा था।
अगले दिन अपने नियत समय पर सूर्योदय नहीं हुआ। जब सूर्यदेव का सारथी अरुण उन्हें लेने पहुँचा तो उसने देखा कि सूर्यदेव अचल अवस्था में बैठे हैं। उसने सोचा कि सूर्यदेव के तैयार होने तक, वह इंद्रलोक घूम आएगा। वह जब इंद्रलोक पहुँचा तो उसने देखा कि वहाँ के द्वार पुरुषों के लिए बंद थे। इंद्र ने अंदर अपनी अप्सराओं के साथ दरबार लगा रखा था और उनका नृत्य नाट्य-मंचन देख रहा था। इंद्र ने आदेश दिया था कि सिर्फ़ स्त्रियों को भीतर प्रवेश करने दिया जाए। उसी समय अरुण वहाँ पहुँचा और उसे ये सब सुनकर निराशा हुई। उसका मन भी अंदर चल रहे नाट्यमंचन को देखने का करने लगा। उसने भीतर प्रवेश करने की एक तरक़ीब सोची। उसने स्त्री का रूप धारण किया और चुपके से भीतर घुसकर नृत्यांगनाओं में शामिल हो गया। परंतु इंद्र ने, जो सौंदर्य का ज़बरदस्त पारखी था, तुरंत उस समूह में सम्मिलित हुई नई अप्सरा को देख लिया। उसने अन्य सभी नर्तकियों को भेजकर, अरुण को द्वार पर ही रोक लिया जब वह भी उन नर्तकियों के साथ बाहर निकलने वाला था।
इंद्र जिस स्त्री को चाहता उसे अपना बना लेता था और उसने अरुण के साथ भी वही करने की कोशिश की। बेचारे अरुण को समझ नहीं आया कि वह क्या करे! अंत में अरुण को अपना भेद खोलना पड़ा। उसकी सच्चाई सुनकर इंद्र को बहुत ग़ुस्सा आया और उसने अरुण को कहा कि अरुण को पूरे दरबार को धोखा देने का दंड भोगना पड़ेगा। अरुण को इंद्र की बात माननी पड़ी और इंद्र उसे अपने साथ ले गया। इस संयोग से एक सुंदर बालक का जन्म हुआ। परंतु अरुण उसे अपने साथ नहीं ले जा सकता था, इसलिए इंद्र ने वह बालक, लालन-पालन के लिए गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को दे दिया।
इस बीच, शीलावती की महान तपस्या के कारण सूर्योदय नहीं हो पाया। संपूर्ण संसार में अंधकार फैला रहा। अंत में, देवताओं को इस विचित्र स्थिति का कारण पता लगा। वे सब मिलकर उग्रतापस के पिता अत्रि के पास गए और उनकी पत्नी अनसूया से प्रार्थना की कि वे शीलावती से उसका शाप वापस लेने के लिए कहें। तब अनसूया के कहने पर शीलावती ने अपना शाप वापस लिया और फिर सूर्योदय हो सका।
इधर जब सूर्यदेव ने अपने सारथी अरुण को खोजा तो उसका कहीं पता नहीं लगा। उसके देर से आने पर सूर्यदेव बहुत क्रोधित हुए। अरुण जब लौटा तो उसने चुपचाप अपना स्थान लेने का प्रयास किया लेकिन सूर्य ने उसे देख लिया और रोककर देर से आने का कारण पूछा। अरुण को विवश होकर सारी बात बतानी पड़ी। सूर्यदेव ने अरुण को क्षमा तो कर दिया किंतु उन्होंने भी अरुण का वह मनमोहक रूप देखने की इच्छा व्यक्त की जिसने इंद्र का मन लुभाया था। अरुण ने सूर्य को ऐसा करने से मना किया किंतु अंत में उसे सूर्य की इच्छा माननी पड़ी। फिर जो होना था वही हुआ। सूर्य भी अरुण के मनोहर रूप पर मुग्ध हो गए और उन्होंने अरुण के स्त्री रूप के साथ संभोग किया। उसके फलस्वरूप एक सुंदर बालक ने जन्म लिया और उसे भी देखभाल के लिए अहिल्या को दे दिया गया। एक दिन जब अहिल्या दोनों बच्चों के साथ खेल रही थी तो उन दोनों ने अहिल्या के पीछे चढ़ने का हठ किया। इस बात से अहिल्या को ग़ुस्सा आ गया और उसने कहा, “बंदरों! तुम क्यों मुझे इस तरह परेशान करते हो?”
उसी समय अहिल्या के पति वहाँ आ गए। वे अपनी पत्नी के व्यवहार से रुष्ट हो गए और बोले, “यदि यही तुम्हारी इच्छा है, तो फिर ये दोनों बंदर बन जाएँ!”
ऋषि के वचन असत्य नहीं हो सकते! इस तरह, वे दोनों बालक बंदर बन गए। अहिल्या को अपने प्रिय बालकों की नियति पर बहुत दुख हुआ। ऋषियों का क्रोध अल्पकालिक होता है, इसलिए उन्होंने यह भी कहा दोनों ही भाई अत्यंत बलशाली होंगे।
इंद्र ने उन दोनों बालकों के विषय में सुना तो उन्हें अपने दरबार में बुलाकर शरण दी। इंद्र से उत्पन्न बालक का नाम बाली रखा गया क्योंकि उसकी पूँछ बहुत लंबी और बलशाली थी। सूर्य से उत्पन्न बालक का नाम सुग्रीव रखा गया क्योंकि उसकी ग्रीवा (गर्दन) बहुत सुंदर थी।
बाली और सुग्रीव के जन्म से जुड़ी एक अन्य कथा भी प्रचलित है। एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा पृथ्वी पर आए और मेरु पर्वत पर, जिसे पृथ्वी की धुरी माना जाता है, विश्राम के लिए रुक गए। उस समय उनकी आँख से एक अश्रु बहकर धरती पर गिरा जिससे पृथ्वी पर प्रथम वानर का जन्म हुआ। ब्रह्मा ने उसका नाम रिक्ष रखा और उन्होंने कुछ समय उसके साथ बिताया। वह नन्हा वानर पर्वत पर खेलता और मनपसंद फल खाता था। वह प्रतिदिन संध्या के समय लौटकर ब्रह्मा के चरणों में पुष्प अर्पित करता था। एक दिन जब रिक्ष सरोवर से पानी पीने के लिए झुका तो उसने जल में अपना बिंब देखा। उसे लगा कि वह कोई शत्रु है, जो उसे पकड़कर पानी में खींचना चाहता है। वह अपने शत्रु पर हमला करने के उद्देश्य से पानी में कूद पड़ा। उसे पता नहीं कि था कि वह जादुई सरोवर था और जब वह बाहर आया तो उसने देखा कि वह मादा वानर बन चुका है। उसका रूप अत्यंत सुंदर व मनमोहक बन गया और जब वह मादा वानर मेरु पर्वत पर खड़ी थी, उसी समय इंद्र और सूर्य ने उसे देखा और वे दोनों उसके प्रति आसक्त हो गए। उसी दिन, पहले इंद्र और फिर सूर्य ने नीचे आकर उसके साथ संभोग किया।
देवताओं की संतानों का जन्म बहुत जल्दी हो जाता है। अब उस मादा वानर के पास सुनहरे रंग के दो बालक थे। दोपहर के समय जब वह उन्हें सरोवर में नहला-धुला रही थी, तब दोनों बच्चों ने उस मादा वानर पर पानी छिटका। स्वच्छ होने पर उसने देखा कि उसका फिर से लिंग परिवर्तन हो चुका है और वह दोबारा रिक्ष बन गई।
रिक्ष दोनों बच्चों को लेकर ब्रह्मा के पास पहुँचा। उन्होंने इंद्र के पुत्र का नाम बाली और सूर्य के पुत्र का नाम सुग्रीव रखा।
ब्रह्मा ने किष्किंधा का राज्य रिक्ष को दे दिया। किष्किंधा एक सघन वन था जिसमें प्रचुर मात्रा में फलों के पेड़ थे और उसमें अनेक वन्य पशु रहते थे। ब्रह्मा ने कई अन्य वानरों की रचना की तथा उन्हें उड़ने व बोलने की शक्ति प्रदान करके उनसे रीछों के साथ मैत्री करने के लिए कहा। दोनों भाई सदा एक साथ रहते थे। वे जब बड़े हुए तो उनके पिता ने उन्हें सब प्रकार की विद्या प्रदान की। रिक्ष की मृत्यु के बाद, उसके सिंहासन के बहुत-से दावेदार आए किंतु बाली ने उन सब प्रतिद्वंद्वियों को मार डाला अथवा उन्हें अपने वश में कर लिया और निर्विवाद रूप से संपूर्ण वानर जाति का राजा बन गया। उसने स्वयं को किष्किंधा के समस्त वृक्षों तथा मादा वानरों का एकमात्र स्वामी घोषित कर दिया। उसका प्रभुत्त्व निर्विवाद था और वानरों के बीच सफलतापूर्वक अपना प्रभुत्त्व अर्जित करने के कारण, बाली कभी किसी के साथ अपने अधिपत्य का फल नहीं बाँटता था। परंतु, अपनी दयालु प्रवृत्ति के कारण वह अपने छोटे भाई सुग्रीव के साथ अपना सब कुछ बाँटता था। बदले में, सुग्रीव जो बाली का सहायक भी था, पूरी निष्ठा से अपने बड़े भाई की सेवा करता था। इंद्र ने अपने पुत्र बाली को छोटे-छोटे सुनहरे रंग के कमल के पुष्पों की विजय माला दी थी जिसे पहनने के बाद बाली अजेय हो गया था।
एक बार बाली ने देवताओं और असुरों के बीच हो रहे समुद्र-मंथन के बारे में सुना तो वह उसे देखने के लिए वहाँ चला गया। उसके साथ सभी लोग समुद्र-तट पर पहुँच गए। जब उसने देखा कि उसके पिता इंद्र एवं अन्य देवता कमज़ोर पड़ रहे हैं, तो कहते हैं, बाली ने समुद्र-मंथन स्वयं अपने हाथ में ले लिया। बाली इतना शक्तिशाली था कि जिस कार्य को देवता और असुर मिलकर नहीं कर सकते थे, बाली में अकेले ही उस कार्य को पूर्ण कर देने का सामर्थ्य था। इंद्र अपने पुत्र का पराक्रम देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। देवताओं ने बाली को उनकी सहायता करने के बदले वरदान दिया कि जो भी बाली से लड़ने जाएगा उसका आधा बल कम होकर, बाली को प्राप्त हो जाएगा।
मंथन के दौरान, समुद्र में से अनेक मूल्यवान वस्तुएँ निकलीं। उनमें दो सुंदर अप्सराएँ भी थीं। उनका नाम तारा और रूमी था। बाली ने तारा को अपनी पटरानी बना लिया और रूमी सुग्रीव की पत्नी बन गई। दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक अपने राज्य लौट आए और उन्होंने बहुत समय तक शासन किया। इस बीच बाली का एक पुत्र हुआ। उसका नाम अंगद था।
बाली भगवान शिव का महान भक्त था और वह प्रतिदिन आठों दिशाओं में जाता और सभी समुद्रों में स्नान करके शिव की आराधना करता था। वह एक ही छलाँग में सात समुद्र लांघकर चारुवल नामक पर्वत पर पहुँच जाता था। वह तूफ़ान के वेग से चलता था। कोई बाण उसकी छाती को नहीं भेद सकता था। उसके छलाँग लगाने पर पर्वत डोलते थे और धूल के बादल समस्त दिशाओं में छितरकर, भय से वर्षा नहीं करते थे। संपूर्ण प्रकृति उससे डरती थी। यहाँ तक कि मृत्यु के देवता, यमराज भी उसके पास जाने से डरते थे। तूफ़ान अपनी आवाज़ धीमी कर लेता था और उसकी उपस्थिति में सिंह भी गरजने से हिचकते थे। कहते हैं, एक बार बाली ने दशानन रावण को उठाकर अपनी पूँछ में बाँध लिया था!