राजौरी के पास पर्वतीय रियासत पुंछ का एक छोटा सा गाँव है ‘रजौरी’, यहीं सन् 1670 ई. में राजपूत रामदेव के यहाँ कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एक मेधावी बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम लक्ष्मण देव रखा गया। बड़ा होने पर वह बहुत ही निडर तथा साहसी निकला। जंगली जानवरों का शिकार करने में उसकी बहुत रुचि थी। उसका लक्ष्य अचूक होता था। वह अत्यंत शक्तिशाली था, जिससे जंगल के हिंसक पशु भी उससे भयभीत रहा करते थे, उसके मुख और नेत्रों में अनोखी चमक व्याप्त थी। एक बार भूल से उसने एक हिरणी को अपने तीर का शिकार बना लिया। हिरणी तो तुरंत मर गई, लेकिन उसके पेट में से बच्चे निकले, इसे देखकर लक्ष्मणदेव का मन करुणा से भर गया। उसने अपना धुनष बाण वहीं तोड़कर फेंक दिया और संन्यासी बन गया। उसने दक्षिण दिशा की ओर दूर जाकर महाराष्ट्र के नांदेड़ के पास वन में जाकर अपनी धूनी रमाई। शीघ्र ही इस तरुण तेजस्वी संन्यासी का यश दूर-दूर तक फैल गया। अब वह लक्ष्मणदेव से माधवदास वैरागी बन गया और भगवा वस्त्र धारण करके तपस्या में लीन हो गया।
उस समय उत्तर भारत में आक्रामक मुसलमानों के अत्याचार अपनी चरम पर थे। दिल्ली में गुरु तेगबहादुर हिंदुओं का धर्म बचाने के लिए अपना बलिदान दे चुके थे। उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह के दो बालक फतेह सिंह और जोरावर सिंह मुसलमान धर्म स्वीकार न करने के कारण दीवार में जीवित चुनवाए जा चुके थे। उनके शेष दोनों बालक चमकौर की लड़ाई में लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त कर चुके थे। इन घटनाओं की कहानी माधवदास वैरागी के कानों में पड़ चुकी थी। मुसलमानों के अत्याचारों से अपनी रक्षा करने के लिए गुरु गोविंद सिंहजी ने अपने अनुयायियों को पंच करार धारण करने का आदेश दिया, ये थे– केश, कंघा, कड़ा, कच्छ और कृपाण। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की नींव रखी। इसके बाद गुरु गोविंद सिंह घूमते-फिरते और लोगों को जगाते व संगठित करते हुए दक्षिण की ओर निकल गए। मुगलों के द्वारा अपने पिता का बलिदान व पुत्रों की बलि गुरु गोविंद सिंहजी को मुसलमानों से बदला लेने के लिए प्रेरित कर रही, उसी समय नांदेड़ में गोदावरी नदी के किनारे एक कुटिया में उनकी भेंट इस तरुण संन्यासी बाबा माधवदास वैरागी से हुई। लक्ष्मण देव यहाँ इसी नाम से जाने-पहचाने जाते थे। जब गुरु गोविंद सिंहजी की उनसे भेंट हुई, वे ध्यान मग्न थे तथा उनके चेहरे से तेज टपक रहा था। थोड़ी देर बाद वैरागी ने अपनी आँखें खोलीं, दोनों ने एक-दूसरे को देखा और उनके बीच एक अज्ञात आकर्षण उत्पन्न हो गया। गुरु गोविंद सिंहजी ने वैरागी से कहा, “तुम यहाँ एकांत में मोक्ष की प्राप्ति हेतु साधना में लगे हो और उधर देश में हाहाकार मचा हुआ है। मंदिर तोड़े जा रहे हैं, बच्चों को जीवित दीवारों में चुनवाया जा रहा है। माँ-बहनों का अपमान हो रहा है, हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा रहा है। भाई मतिदास को आरे से चीरा गया, भाई सतिदास को रुई में लपेटकर आग लगाकर मारा गया, भाई दयालाजी को डेग में उबलते हुए पानी में खौलाकर मारा गया। क्या तुम्हें यह सब देखकर ग्लानि उत्पन्न नहीं होती? क्या तुम्हारा रक्त उबाल नहीं खाता? क्या तुम्हें देश, धर्म और जाति से बढ़कर एकांत-साधनाप्रिय है ? सोचकर देखो! भारत माँ तुम्हें बुला रही है।”
यह सुनकर वैरागी की आत्मा कराह उठी। वह गुरु गोविंद सिंहजी के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा, “मैं आज से आपका बंदा हूँ। आप मुझे आदेश दें कि मुझे क्या करना है? मैं भारत माँ का पुत्र हूँ। मैं धर्म, देश और हिंदुओं की रक्षा में अपना सर्वस्व अर्पण कर दूँगा और इन सभी अपमानों का बदला चुकाए बिना चैन से नहीं बैठूंगा।” गुरु गोविंद सिंहजी ने वैरागी को उठाकर हृदय से लगा लिया। तभी से वे ‘बंदा वैरागी' कहलाने लगे। उसने धूनी को ठोकर मार दिया। गेरुआ वस्त्र त्याग दिए और धनुष-बाण धारण कर लिया। अब देश और धर्म की रक्षा ही उनकी पूजा, आराधना और साधना थी। खड्ग उनकी जीवनसंगिनी बन चुकी थी। गुरु गोविंद सिंहजी ने उन्हें खालसा में शामिल कर लिया। इस अवसर पर गुरुजी ने उन्हें अपने तरकस से निकालकर पाँच तीर दिए। एक निसान साहब और एक नगाड़ा भी उन्हें दिया तथा बीस सिखों के एक दस्ते व पंच प्यारों के साथ उन्होंने बंदा बैरागी को पंजाब जाकर सिखों को जत्थेबंद करने के लिए भेजा। पंच प्यारों में भाई विनोद सिंह, भाई कहान सिंह, भाई राज सिंह, भाई दया सिंह व भाई रन सिंह शामिल किए गए। ये सभी वीर बंदा बैरागी को सहयोग करने के लिए उनके साथ किए गए। गुरु ने उन्हें वह खांड़ भी सौंपा, जिससे उन्होंने अमृत छकाया था, लेकिन वैरागी ने यह कहकर उसे लौटा दिया कि इस पर दल खालसा (पंथ) का अधिकार है। उन्होंने उनको एक सिरोपा और जत्थेदार का ओहदा भी दिया। चलते समय गुरुजी ने समझाया, 'शूरवीरता दिखाना, मौत से कभी न डरना, भय सर्वत्र मन से निकाल देना, यदि असूलों से गिरे तो बड़ी हानि होगी। मेरे हृदय के परम प्यारे, खालसाजी की आज्ञा में रहना, गुरुग्रंथ साहिब के हुजूर में नम्रता से अभिमान छोड़ कर बैठना, गद्दी आसन लगाकर मत बैठना।' इस पर वैरागी ने कहा, “जैसी आपने आज्ञा की है, वैसा ही करूँगा।”
अब वीर बंदा वैरागी पच्चीस सिखों के साथ पंजाब की ओर चल पड़े। इस समय वैरागी की आयु 36 वर्ष की थी । संवत् 1764 के श्रावण मास में वैरागी अपनी टोली के साथ खंडा पहुंचे। यहाँ पर अनेक लोग उसकी टोली में सम्मिलित हो गए और हिसार पहुँचते-पहुँचते वीर बंदा वैरागी के पास एक छोटी की सेना तैयार हो गई। कैथल के फौजदार को सबक सिखलाकर सबसे पहले समाना पर आक्रमण किया गया। यह समाना ही था, जहाँ के जल्लाद जलालुद्दीन ने पहले गुरु तेगबहादुर सिंह को चाँदनी चौक में शहीद किया था और उसके बाद विशाल बेग और विशाल बेग नाम के दो जल्लादों ने जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह को दीवार में चुनकर शहीद किया था। समाना की ईंट से ईंट बजा दी गई तथा पटियाला के निकट कपूरी के हाकिम को उसके पापों की सजा दी गई। वे वहाँ से साढोंरा पहुँचे और वहाँ से सरहिंद की ओर बढ़े, क्योंकि यहीं के नवाब वजीर खान के आदेश पर गुरु-पुत्रों को दीवार में चुना गया था।
संवत् 1765 की ज्येष्ठ मास में एक ओर नवाब की विशाल सेना खड़ी थी और दूसरी ओर वैरागी की यशस्वी सिख सेना। सहसा वैरागी की सेना में तुरही बज उठी, नगाड़ों पर चोट पड़ी और शंखनाद की ध्वनि से आकाश गूँज उठा। नवाब की सेना के पास असीमित गोला-बारूद था । वैरागी की सेना बहादुरी से भरी पड़ी थी। वैरागी के तीरों ने नवाब के तोपचियों का सफया कर दिया, जो कुछ बचे थे, वे तोपों को छोड़कर भाग खड़े हुए। इसके बाद वैरागी ने म्यान से तलवार खींच ली और शत्रु पर टूट पड़ा । जिधर उसकी तलवार घूम जाती, लाशों के ढेर लग जाते। अब सिख सेना ने भी सरहिंद की सेना पर धावा बोल दिया। उन्होंने ऐसा भयंकर आक्रमण किया कि सैकड़ों पठान सैनिक धराशाई हो गए। इसे देखकर वजीर खाँ मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ, परंतु वैरागी के सैनिकों ने उसे बंदी बना लिया। वैरागी की साध पूरी हो गई। गुरु पुत्रों के बलिदान का प्रतिशोध लेने हेतु उसने पूरे सरहिंद को तहस-नहस करने का आदेश दिया। वैरागी के सैनिकों ने वजीर खाँ को ठोकरें मार-मारकर खड़ा किया, उसका मुँह काला करके सारे नगर में जुलूस निकाला गया और उसे खूब अपमानित करने के बाद एक जलती हुई चिता में जीवित ही जला दिया गया। इस घटना के बाद बंदा वैरागी के पराक्रम, शौर्य और बुद्धिमत्ता की चर्चा थोड़े ही समय में चारों ओर फैल गई और मुसलमान उनके नाम से ही काँपने लगे। वैरागी की सेना ने पठानकोट तक धावा बोला तथा उन पहाड़ी हिंदू राजाओं को भी दंडित किया जिन्होंने मुसलमानों का साथ दिया था। शीघ्र ही उन्होंने लाहौर के दक्षिण-पूर्व के पंजाब पर अपना अधिकार कर लिया तथा सिखों के प्रथम साम्राज्य की नींव डाली। भाई बाज सिंह सरहिंद के मुखिया बनाए गए तथा भाई आली सिंह नायब बनाए गए। गुरु के नाम के सिक्के ढाले गए तथा जीते गए क्षेत्रों में सूबेदारों की नियुक्ति की गई।
हालाँकि मुसलिम शासकों ने सिखों को वैरागी से अलग करने के लिए अनेक षड्यंत्र किए। संवत् 1773 में अमृतसर में बैसाखी का विशाल मेला लगा। सारे भारत से सिख जनता और वैरागी इस मेले में आए हुए थे। इसमें वैरागी के खिलाफ तत्खालसा नामक दल बना। उसने वैरागी का अपमान करने के लिए उनका बहुत सारा सामान लूट लिया। वैरागी के सामने विषम परिस्थिति पैदा हो गई, किंतु उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और बड़े धैर्य के साथ पुनः सिख सेना का गठन किया और निश्चय किया कि वह लाहौर पर आक्रमण करके जीवन-मरण की लड़ाई लड़ेगा। अब उन्होंने आगे बढ़कर बागवांपुरा के पास अपना पड़ाव डाल दिया। यह सुनकर लाहौर का सूबेदार असलम खाँ घबरा गया। उसने तत्खालसा की सेना को अपने पक्ष में आमंत्रित किया। तत्खालसा ने सरदार मीर सिंह के नेतृत्व में 5000 सैनिकों की सिख सेना सूबा लाहौर की सहायता के लिए रवाना कर दिया। उधर वैरागी की सेना सूबा लाहौर की सेना पर टूट पड़ी। सूबा की सेना पराजित हो चुकी थी, कुछ भाग भी चुकी थी, लेकिन अब असलम खाँ ने तत्खालसा सेना को आगे कर दिया। वैरागी ने जब सिख सेना को अपने सामने देखा तो उनका हृदय टूटकर बिखर गया। यद्यपि वैरागी की सेना का मनोबल बढ़ा हुआ था और वह बड़ी से बड़ी सेना का सामना करने में सक्षम थी, लेकिन वैरागी ने सेना को लौटने का आदेश दिया। उनकी आत्मा ने अपने ही भाई, बंदों पर आक्रमण को अस्वीकार कर दिया। भारी मन से वैरागी अपनी सेना के साथ वापस गुरुदासपुर के किले में आ गए। बादशाह ने संवत् 1776 में एक बहादुर और निडर सेनापति अब्दुल समद खाँ को 30,000 सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर वैरागी को कुचलने का आदेश दिया। एक ओर लाहौर से तथा दूसरी ओर जालंधर से सेना रवाना की गई। इन सेनाओं ने गुरुदासपुर के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। यह घेरेबंदी आठ महीने चली। किले में खाद्यान्न का अभाव हो गया। ऐसे में विवश होकर किले का द्वार खोलने का निर्णय लिया गया और 3 दिसंबर, 1715 को किले के द्वार खोल दिए गए। शत्रु सेना ने किले में प्रवेश किया और 300 सिंह वहीं शहीद कर दिए गए। बाबाजी वैरागी को और उनके 200 साथियों को बेड़ियाँ डालकर पहले लाहौर लाया गया, फिर उन्हे एक अनोखे जुलूस के रूप में दिल्ली लाया गया, जिसमें विरोधी, शहीद सिख सिंहों के सिर अपने नेजों पर टाँगकर चल रहे थे। उनके पीछे 698 बंदी सिख योद्धा बेड़ियों में पैदल चल रहे थे। बाबा बंदा सिंह वैरागी को पिंजरे में बंद करके लाया गया। 5 मार्च, 1716 को दिल्ली में कोतवाली के सामने सीसगंज के पास जहाँ गुरु तेगबहादुर को शहीद किया गया था, एक विशेष चबूतरा बनाया गया। सौ सिख रोज लाए जाते और उन्हें बंदा सिंह बहादुर के सामने शीशगंज किया जाता। एक समकालीन इतिहासकार ने लिखा है कि “सिखों का शहादत देते समय अटलअडोल (अपने धर्म पर) रहना तो वर्णनीय है ही। अपितु इससे भी बढ़कर हैरान करनेवाली बात यह है कि जैसे वे मौत को चिढ़ाते हुए लगते तथा जल्लाद से हँसी-मजाक करते थे। वे उससे इस बात के लिए विनती करते थे कि उन्हें दूसरे से पहले शहीद किया जाए।
9 जून, 1716 को बाबा बंदा सिंह, उनके चार वर्षीय बेटे अजय सिंह तथा शेष बंदी सिखों को एक जुलूस के रूप में कुतुबमीनार के पास ख्वाजा कुतुबुद्दीन के मकबरे के पास ले जाकर बारी-बारी से शहीद करना शुरू किया। जब फर्रुखशियर के सामने बंदा वैरागी को लाया गया तो उसने बाबा से पूछा कि तुम्हें कैसे मारा जाए? तो दृढ़ता की मूर्ति वैरागी ने जबाब दिया, “जैसी तुम अपने लिए चाहते हो, वैसी मुझे दो, जिमि तै मरनो ओमि मोहि मरवाये”। बाबा के इस उत्तर से क्रोधित होकर फर्रुखशियर ने बाबाजी का मांस आग में तपाकर लाल की गई संड़सियाँ से नुचवाया, फिर बेटे अजय सिंह का दिल निकालकर उनके मुँह में ठूंसा गया, बाबा शांत बैठे रहे। इस पर वजीर अमीन खान ने पूछा, “तुम्हारे चेहरे पर नूर झलकने से प्रतीत होता है कि तुम कोई पहुँचे हुए शख्स हो, फिर यातनाएँ क्यों मिल रही है?” यह सुन बाबा ने कहा, “सुनो खान, किसी का क्या मकदूर था, जो मुझको मारता, मैं तुम्हें बताता हूँ कि यह सब क्यों हो रहा है? जब पाप सीमा पार कर जाए, तब वाहे गुरु मुझ जैसे बंदे भेजता है, ताकि दुष्टों का दमन किया जाए। हम आखिर इनसान हैं, यह नहीं जानते कि कितनी ताड़ना उचित है। कहीं अधिक भी दे दी जाती है, तब वाहे गुरु तेरे जैसे बंदे भेज देता है, ताकि हिसाब यहीं बराबर हो जाए। आगे पूछताछ का हिसाब न रहे। ” वजीरे आजम हैरान हो सब सुनता रहा, जल्लाद ने पहले बाबा की एक आँख निकाली, फिर बाजू काटा, फिर एक पैर, फिर दूसरी आँख, फिर दूसरा बाजू और टाँग काटा और तलवार से सिर उतारकर शहीद कर दिया। इसीलिए सभी ओर कहा जाने लगा
‘बंदा सिंह रलि सिक्खां नाल सीस कटाया पर धर्म नू दाग जारा नहीं लाया।’
नमन है महाराज वीर बंदा बैरागी को 🙇