Bharat ki Rachna - 4 in Hindi Fiction Stories by Sharovan books and stories PDF | भारत की रचना - 4

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भारत की रचना - 4

भारत की रचना/धारावाहिक/ चतुर्थ भाग

रात बढ़ रही थी। उसके हॉस्टल की सारी लड़कियां उसके दिल के जज्बातों से बेखबर, जैसे मदहोश होकर सो चुकी थीं। स्वयं उसकी रूम-मेट अपनी नींद में बेसुध थी। परंतु रचना, वह कहीं अन्यत्र ही थी। उसका दिल कहीं और जाकर जैसे खो गया था। अपने दिल की प्यारभरी स्मृतियों में वह अभी तक जाग रही थी। रात्रि का दूसरा पहर आरम्भ हो चुका था। वातावरण किसी सर्द लाभ के समान ठंडा पड़ गया था। आकाश पर तारिकाएं छोटे-छोटे नासमझ और नादान बच्चों के समान रचना को देखती थीं और शायद उसकी मनोदशा को समझ भी नहीं पाती थीं।

ऐसी थी रचना और उसका दिल। उसके दिल का प्यार-प्यार का एक ऐसा सपना कि जिसके बारे में उसका वास्तविक अर्थ अभी वहीं अकेली जानती थी। उसके सिवा शायद भारत भी अभी तक कुछ नहीं समझ सका था। फिर वह समझ भी कैसे सकता था? एक लड़की के दिल के भावों को कोई युवक यूं जान भी कैसे सकता है, जब तक कि इशारों और आंखों को मौन भाषा, शब्दों के धरातल पर आकर अपना स्थान नहीं बना लेती। यही प्यार का चलन है- एक ऐसा रिवाज कि जिसमें नादान दिलों की बेसमझी, हमेशा अपने कदम पहले आगे बढ़ा लेती है।

रचना ने सारी रात प्रतीक्षा की। सुबह होने की आस में वह अपनी आंखें बिछाए बिस्तर पर करवटें ही बदलती रही। अपने पहले-पहले प्यार की छांव में उसे ये प्रतीक्षा भी भली लगी। फिर जब दूसरा दिन उग आया तो रचना शीघ्र ही उठ गई। समय से पहले वह जल्दी से तैयार हो गई तो उसकी रूम-मेट ने जब उसमें उतनी अधिक उत्सुकता देखी, तो एक बार को उसे भी आश्चर्य लगा। फिर जब रूम-मेट ने रचना से आंखों की मूक भाषा में इस उत्सुकता का कारण जानना चाहता, तो रचना ने इसे मात्र अपने होंठों की मुस्कान के सहारे टाल दिया।

तब रचना कॉलेज गई, एक आस पर। बड़ी उम्मीदों के साथ, दिल थामकर वह अपने भारत की तलाश करने लगी। लाइब्रेरी, गैलरी, कक्षा, गार्डन से लेकर उसने कॉलेज का वह हरेक स्थान ढूंढ डाला, जहां पर उसे भारत के होने की थोड़ी-सी भी संभावना थी। सब ही स्थानों में उसके प्यार में तरसी आंखों ने अपने भारत की खोज की। मगर यह उसका भाग्य था अथवा उसके हाथों में बनी किस्मत की लकीरों का दोष, भारत आज भी कॉलेज नहीं आया था। ये बात उसे अपनी कक्षा में जाकर अन्य छात्रों के द्वारा ज्ञात हो चुकी थी। उसने आज भी अपनी रुकती हुई सांसों के साथ, लगातार आरम्भ की चार कक्षाओं तक भारत की रह-रहकर बाट देखी थी। तब बाद में जाकर उसके दिल को यह विश्वास हुआ था कि भारत सचमुच ही आज कॉलेज नहीं आया है।

भारत नहीं दिखा, और जब नहीं मिला तो रचना फिर से उदास हो गई। मायूसियों के बादल उसकी झील-सी गहरी आंखों में डूबते चले गए। वह उदास ही नहीं हुई, बल्कि उसके दिल को दुःख भी हुआ। दुःख इस कारण हुआ क्योंकि भारत नहीं आया, यह अलग बात थी, परंतु उसके न आने का कारण क्या था, ये अवश्य ही एक चिंता का विषय था। इस प्रकार रचना फिर एक बार अपना टूटा और उदास दिल थामकर बैठ गई। फिर उसके अतिरिक्त वह कर भी क्या सकती थी। अपने दिल पर जबरन न चाहते हुए भी एक झूठे सब्र का पत्थर बांधकर उसने अपने अधूरे अरमानों को दूसरे दिन की आस पर शांत कर हरेक कक्षा में उसका दिल उचाट ही बना रहा। किसी भी कार्य में वह अपना मन नहीं दिल में जब कोई उत्साह ही बाकी न रहे, तो मनुष्य के सब ही कार्य सुस्त और फीके पड़ जाया करते हैं, रचना भी भारत की अनुपस्थिति के कारण अपने-आप में उदास और मायूस ही नहीं बल्कि शलथ-सी हो चुकी थी।

लगता था कि रचना की आंखों में शायद भारत के प्रति अपार प्रतीक्षा ही लिखी थी-भारत तीसरे दिन भी कॉलेज नहीं आया था। नहीं आया तो रचना इस बार और भी अधिक उदास हो गई। वह उदास ही नहीं थी परंतु एक निराशा की पर्तें धीरे-धीरे उसकी आंखों में ठहरने भी लगीं। फिर भी उसने अब तक अपने दिल का भेद अपने तक ही सीमित रखा था। यदि यही बात उसकी सहेलियों ज्ञात हो जाती, तो वह अच्छी तरह से उनके लिए मनोरंजन और वार्ता का विषय बन जाती।

तब इसी तरह से, एक-एक करके लगातार कई दिन सरकते चले गए-सप्ताह बीत गया, रचना भारत की प्रतीक्षा करते-करते परेशान होने लगी। फिर परेशान वह होती भी क्यों नहीं। प्यार की प्रतीक्षा में तो मनुष्य पागल तक हो जाया करता है, रचना तो फिर भी अपने-आपको संभाले हुए थी। उसकी परेशानी, उसके मन का दुःख और उसकी समस्या भी कुछ इस प्रकार की थी कि किसी और से वह इसके समाधान के विषय में सहज ही पूछ नहीं सकती थी। जब नहीं पूछ सकी तो अंक में भारत के एकतरफा प्यार में दिल-ही-दिल में उसने तड़प लेना ही उचित समझ लिया। लेकिन फिर भी उसके दिल को ये एक विश्वास था कि भारत चाहे कहीं भी न जाए, वह एक बार काॅलेज अवश्य ही आएगा। वह चाहे कहीं भी भटक क्यों न चला जाए, वह एक बार कॉलेज अवश्य ही आएगा। वह चाहे कहीं भी भटक क्यों न जाए, उसके कदम काॅलेज की इस चारदीवारी की ओर अवश्य ही मुड़ जाएंगे- उसके पग अवश्य ही उसकी ओर बढ़ेंगे, यदि उसके मन में पनपता हुआ, अपने भारत के प्रति प्रेम का अंकुर सच्चा होगा, भावनाएं पवित्र और निःस्वार्थ होंगी, दिल में कोमलता और प्रेम की सिहरन होगी। ईश्वर भी तो पवित्र प्रेम के इन दिली रिश्तों में सहायता करता है, वह उसकी सहायता क्यों नहीं करेगा। फिर जब भारत काॅलेज आएगा, त बवह अवश्य ही उससे अपने दिल का हाल कह देगी- कह देगी एक बार- और अवश्य ही; फिर चाहे उसे भारत की ओर से निराशा ही क्यों न मिले, भारत उसको खाली हाथ ही क्यों न वापस कर दे। परंतु वह एक बार उससे अवश्य ही अपना आंचल फैलाकर अपने प्यार की भीख मांगेगी। उसको यह विश्वास है कि भारत उसे कभी भी निराश नहीं करेगा। ’भारत’ ने कभी भी किसी को निराश किया भी नहीं है; क्योंकि यही उसके संस्कार हैं-रीतियां हैं-आदर्श हैं कि अपने प्यार करने वालों के लिए ’भारत’ ने सदा दिल खोलकर लुटाया है-कभी भी प्यार करने वालों की आरजुओं और हसरतों को ठुकराया नहीं है, बल्कि उनका आदर और सम्मान किया है।

इस प्रकार भारत की अनुपस्थिति में रचना कॉलेज में कभी भी खुश नहीं रहती थी। प्रायः उसको भारत भारत का सुंदर और असाधारण व्यक्तित्व परेशान करने लगता था। रचना खुद भी उसकी मनपसंद यादों में डूबी रहना चाहती थी। इसके साथ ही भारत की इस अप्रत्यशित अनुपस्थिति के कारण वह पहले से और भी अधिक चुप और खामोश हो गई थी। बिल्कुल मूक और अकारण ही जैसे टूटी-टूटी रहने लगी। किसी भी कक्षा में उसका म नही नहीं लगता था। कक्षा में प्रोफेसर आकर पढ़ाकर चले भी जाते थे, परंतु वह भारत की मधुर यादों में ही खोई रहती थी। रह-रहकर उसकी कलपनाएं करती। उसके प्रति मीठी-मीठी बातें करती। स्वयं से ही भारत के विषय में उसका हाल-चाल पूछने लगती। पूछने लगती कि ’वह कैसा है? अब क्या कर रहा है? अब कब तक वापस आएगा? कभी उसको यहां की भी याद आती है कि नहीं? आती तो जरूर ही होगी, परंतु टाल भी जाता होगा- लड़के तो यूं भी कुछ आवश्यकता से अधिक लापरवाह और बेफिक्र स्वभाव के होते ही हैं- लेकिन उसका भारत तो ऐसा नहीं होना चाहिए। उसे अवश्य ही वहां पर कुछ कार्य लग गया होगा अन्यथा वह अवश्य ही काॅलेज आ जाता- यूं व्यर्थ में वह अपनी पढ़ाई का नुकसान नहीं करेगा......।’

रचना इस प्रकार से जब भी सोचती, तो फिर सोचती ही जाती थी। कभी-कभी घंटों बीत जाते, मगर उसके सिर से भारत के प्यार का जुनून ही नहीं उतर पाता था। ऐसा था, उसका प्यार-उसके प्यार का अनुभव-पहला-पहला अछूता, अनोखा, एकतरफा और अनकहा-सा। चाहे कोई भी समय क्यों न हो, दिन हो या रात, बारिश अथवा धूप, काॅलेज या फिर हॉस्टल, वह अकेली होती या फिर सहेलियों के साथ, सड़क पर या फिर बागों में अधिकांशतः भारत ही उसके दिलो-ओ-दिमाग में उसका हमसफर बनकर साथ-साथ बना रहता था कि जैसे सदैव ही वह उसका हाथ थामे रहता।

यदि दिन होता, तो वह फिर भी रचना का आसानी से कट जाता था, परंतु जैसे ही सांझ का घेरा दिन के उजाले का बंधन तोड़कर रात्रि में प्रवेश करता, तो उसके साथ रचना का भी दिल उदास हो जाता- उदास हो जाता, अपने साजन का प्यार पाने की एक असफल चाहत में- एक अनकही आरजू की प्यास में वह मन-ही-मन परेशान होने लगती। रूठ जाती स्वयं से और फिर स्वयं से ही शिकायतें भी करने लगती थी। अपने-आपको ही कभी-कभी दोषी कहने लगती थी। कभी सोचती कि उसकी किस्मत भी अजीब ही है कि सारे संसार में एक यही अनजान भारत मिला था उसको इस कदर प्यार करने के लिए- एक ऐसा ’भारत’ कि जिसके बारे में वह अभी अच्छी तरह से जानती भी नहीं है। ऐसे ’भारत’ को जानने के लिए तो एक पूरी तपस्या की आवश्यकता होती है।

फिर जब रात आधी से अधिक गुजर जाती, वातावरण सर्द होने लगता- सारे हॉस्टल में खामोशी का लबादा एक आगंतुक के समान टहलने लगता; रचना तब भी भी अपने बिस्तर पर पड़ी-पड़ी करवटें बदलती रहती। सारी रात उसके कानों के पर्दे से हॉस्टल के बूढ़े चैकीदार का स्वर ही टकराता रहता। ये था उसका प्यार- उसके प्यार की दीवानगी कि अपनी बातें, अपने इरादे, अपने सपने, और अपनी ही ओर से इस प्यार की शुरूआत करके वह अपने साजन के लिए जैसे वियोगिन बन बैठी थी।

फिर जब अगले दिन भी भारत कॉलेज नहीं आया, तो रचना से नहीं रहा गया। वह अकेले ही साहस करके कॉलेज के कार्यालय में उसके बारे में पूछने चली गई। एक नारी का दिल था- वह भी अपने पहले प्यार का मारा हुआ सा; उसको तो किसी भी प्रकार से समझाना ही था- किसी-न-किसी तरह और कैसे भी तसल्ली तो देनी ही थी।

फिर कार्यालय लिपिक से शीघ्र ही उसने भारत के लिए जानकारी प्राप्त कर ली, तो अचानक ही रचना का दिल भी टूट गया। भारत कई दिनों से कॉलेज नहीं आ रहा था। वह केवल दो दिन का अवकाश लेकर अपने घर गया था, परंतु आज उसको गए हुए पांचवां दिन था। प्रतिदिन उसकी कक्षा में अनुपस्थिति भी लगती जा रही थी। तब रचना ने स्वयं ही ये अनुमान लगाया कि अवश्य ही हो न हो, भारत को अपने घर पर कोई भी आवश्यक कार्य लग गया होगा; अन्यथा वह इतने अकारण अपने घर पर कभी भी नहीं ठहरता? वह अवश्य ही कॉलेज आता। यूं बिना कारण वह क्यों अपनी पढ़ाई की हानि करना चाहेगा। फिर आज भी शनिवार है, और कल रविवार होगा; इस प्रकार से सोमवार तक ही उसके आने की संभावना हो सकती है। अब तो सोमवार को ही उसको आना चाहिए। ऐसा सोचकर रचना ने अपने-आपको क्षण भर को समझा तो लिया, परंतु फिर भी उसके दिल में भारत के लौट आने की जाने क्यों आस और उम्मीद थी। वह सोचती थी कि शायद भारत आज ही न वापस आ गया हो? ऐसी ही सब-कुछ सोचती हुई वह कार्यालय से बाहर निकल आई। बाहर आकर वह कुछेक क्षणों तक यूं ही गैलरी के सहारे खड़ी रही- अकेली, किंकर्तव्यविमूढ़-सी। भारत की अनुपस्थिति के वियोग में उसके मन की समस्त नई-नवेली आशाओं के दीप अब मानो सिसक लेना चाहते थे। उसके अरमान, हसरतें, सभी कुछ जैसे हथेली में काफी देर से बंद रखे बतासों के समान अरमान, हसरतें, सभी कुछ जैसे हथेली में काफी देर से बंद रखे हुए बतासों के समान पसीज कर निराश हो चुके थे। रचना के प्रथम मोह का वह अंकुर, जिसके शीघ्र ही उगने की आशा में वह समय से पहले ही एक तितली के समान मचल उठी थी; आज भारत की जानलेवा अनुपस्थिति के कारण वहीं-का-वहीं कंुठित होर रह गया था। प्यार के मार्गों पर भागने से पहले ही उसके पैरों में कांटे चुभना आरम्भ हो गए थे। शायद मानव जीवन का यही प्यार होता है-उसके प्यार का तोहफा कि चलने से पूर्व कांटे, और अंत में भी वही कांटों से सेज, जिसे सजाने के लिए इंसान कभी कल्पना भी नहीं कर पाता होगा। फिर वैसे भी मानव अपने चंद प्यार के सुखद सपनों की पूर्व आभा में अपने गले से जीवन-भर का दर्द लगाकर स्वयं को सुखी प्रतीत कर लेता है। यही उसके प्यार का भ्रम होता है। एक हसीन धोखा सा कि प्यार में मिला हुआ दुःख भी इन्सान की खुशियों का अंश बनकर मुस्करा उठता है-अपने बड़े ही गर्व के साथ-जब कि जीवन की वास्तविक खुशियों से वह कितना दूर चला आता है, इस सच्चाई का तो वह कोई अनुमान ही नहीं कर पाता है।
***


कई एक दिन गुजर गए।

रचना की उदासी भी बढ़ गई। वह पूर्ण रूप् से उदास हो गई। मन से और अपनी दिनचर्या से भी हर समय अब उसको भारत का ख्याल ही सताने लगा था। उसका स्मृतियों में वह परेशान हो उठी। उसके लिए न तो हाॅस्टल में कोई शांति रह गई थी और न ही कॉलेज में कोई चैन और आकर्षण ही बाकी था। दिन-रात दिल में एक ही बात की सोचा-विचारी के कारण वह स्वयं से भी लापरवाह हो गई, खुद से ही रूठी रहने लगी। अधिकांश समय वह भारत के लिए ही सोचती रहती थी। अब उसके मन-मस्तिष्क के हरेक क्षेत्र में एक ही अहसास था-भारत। कानों के पर्दे एक ही स्वर को सुनने के लिए बेचैन रहने लगे-भारत। होठों से केवल एक ही नाम उठता-भारत केवल भारत। एक अनजाना व्यक्तित्व, अनजान-सा रिश्ता-लेकिन मन की सारी भावनाओं के द्वारा फिर भी उसका अपना था। वह यह भी जानती थी कि उसके एकतरफा प्यार के पगों में, शायद आगे बढ़ने के लिए कोई भी मतलब नहीं था-कोई भी सरोकार नहीं था। वह तो केवल इतना ही जानती थी कि कि उसकी आंखों में वह छवि कैद थी कि जिसका नाम केवल ’भारत’ था। होठों से एक ही नाम टपकता था-भारत। उसके दिल में भारत था, और ऐसे ’भारत’ के लिए वह मर-मिटना चाहती थी-बस और कुछ भी नहीं।

दिन और रात भारत की याद, और रातों में प्रायः देर-देर तक जागने तथा प्रत्येक समय एक ही बात की सोचा-विचारी के कारण एक दिन रचना अस्वस्थ हो गई। वह बीमार पड़ गई। तब हॉस्टल की वार्डन लिल्लिम्मा जार्ज ने उसको पूरी तरह से आराम करने की हिदायत दे दी। फिर इस प्रकार रचना हॉस्टल में जैसे कैद हो गई। उसका कॉलेज जाना तब तक के लिए बंद कर दिया गया, जब तक कि पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो जाती। इस प्रकार से वह कॉलेज तो नहीं जा सकी, पर अपनी सहेली से वह कॉलेज की हरेक बात की जानकारी भी लेती रही थी। अपने दिल में बसे भारत के प्यार का संकेत भी उसने अपनी सहेली का दे दिया था। फिर इस बात को वह अधिक दिनों तक छुपा भी नहीं सकती थी-विशेषकर अपनी दिन-रात साथ रहने वाली सहेली से। कभी-न-कभी तो उसे बताना ही था। ये बात भी उसको पता चल चुकी थी कि भारत अभी तक कॉलेज वापस नहीं आया था, उसने कोई सूचना भी नहीं भेजी थी। वह अभी तक अनुपस्थित ही चल रहा था। रचना जब भी इस प्रकार की बातें भारत के विषय में सुनती थी, तो वह और भी अधिक दुःखी और निराश हो जाया करती थी। मन-ही-मन वह टूट भी जाती। बिखरने को उसका जी चाहने लगता-ऐसे में तब वह निराशा का बेबस दामन थामकर अपनी इस प्यार की कहानी को ही दोष देने लगती, जिसकी रूपरेखा भी अभी ढंग से तैयार नहीं हो सकी थी; फिर वह ऐसे में कर भी क्या सकती थी। प्रत्येक दृष्टिकोण से वह मात्र परेशान ही नहीं, बल्कि बेहद मजबूर भी थी। मन से, हाथों से और अपनी समस्त परिस्थितियों के कारण वह जैसे कहीं एक ऐसे जाल में फंसी हुई थी कि जिसमें से स्वतंत्र होने के अभी कोई भी आसार नजर नहीं आते थे। अभी तो केवल सुनना, और सब्र करना ही उसके हाथों की लकीरों में लिखा हुआ था-आज की निराशा और मायूसी, और अगले दिन तक एक उम्मीद की आशा में जीना; बस अभी उसका इतना ही भर जीवन था-जीवन का एक ही मार्ग कि एक बेसहारा बनकर अपनी जिंदगी के सहारे की तलाश करते रहना-बस और कुछ भी नहीं-शायद यही सब-कुछ देख और सोचकर नारी को इस संसार के महानुभावों ने अबला की संज्ञा दे रखी है।

रचना के लिए यदि दिन होता तो वह तो फिर भी किसी प्रकार कट जाता था-कुछ सहेलियों के साथ बातें करने और उनकी दिनचर्या को देखते, सुनते हुए, तो कुछ समय उनका हॉस्टल के शोर-शराबों और लड़कियों की लापरवाह, निश्चिंत, अल्हड़पन जैसी गहमा-गहमी के मध्य; परंतु जैसे ही रात का लबादा दिन के प्रकाश का आंचल हटाकर झांकने लगता और सारे माहौल पर धीरे-धीरे खामोशी का प्रभाव चढ़ने लगता-रात्रि बढ़ने लगती-हॉस्टल की सारी लड़कियां भी अपना अध्ययन करते-करते सोने लगतीं तथा सारे हॉस्टल को रात के नाले मनहूस साये काटने को दौड ़पड़ते, तो रचना का दिल भी परेशान होने लगता था। वह व्याकुल-सी हो जाती। दिल उसका धड़कने लगता। एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार लगातार वह धड़कता ही रहता। तब ऐसे में सारे माहौल की खामोशी और चुप्पी का सहारा लेकर उसकी थकी हुई आंखों की ज्योति में एक छवि उतरती धीरे-धीरे, केवल छवि। फिर उसके होठों पर कोई नाम आता, जो आकर उसके अनुछए होठों को प्यार कर लेता। एक ऐसा रूप उसके करीब आ जाता, जो आकर उसके पास ही बगल में बैठ जाता। तब रचना उस नाम के एक-एक अक्षर पर जोर देकर, अपने दिल की गहराइयों से उस नाम को धीरे से पुकारती-भारत। वह एक-एक अक्षर कर-करके ये नाम लेने लगती-कुछ इस तरह से-भा...आ...र...अ...त।

’भारत’ कितना अच्छा। कितना सुन्दर। कितना महान्-कितना प्यारा-कितना अधिक उसके दिल के पास-किस कदर। रात की इन्हीं खामोशियों में तब ’भारत’ को जैसे ही अवसर प्राप्त होता, तो वह तुरंत ही रचना के नैनों की खिड़की खोलकर, उसके मस्तिष्क से मार्ग बनाता हुआ, उसके कोमल दिल की सूनी सेज पर विराजमान हो जाता-बड़े ही निर्भय और निश्चिंत होकर, वह उसके दिल के साथ छेड़खानी करने लगता। तब ऐसे में रचना भी उसको पूरे सम्मान के साथ अपने दिल की रग-रग का द्वार खोलकर उसको अंदर प्रविष्ट करा लेती तो उसका कोमल दिल और भी अधिक परेशान होने लगता। तब दिल में जैसे एक दर्द उठने लगता-केवल दर्द। अपने साजन के प्रति-उसके प्यार की आरजू में-भारत की जी-तोड़भरी अनुपस्थिति का साया देख-देखकर वह स्वयं से ही रूठ जाती अपने-आप और अपनी किस्मत को ही तरह-तरह से दोष देने लगती थी।

ऐसी थी रचना। ऐसा था उसका प्यार-उसके प्यार का पहला-पहला नजरिया-उसके सारे हालात-हालात का रुख कि जिसने कोई वायदा नहीं किया था, कोई भी आशा नहीं की थी, कोई हामी नहीं भरी थी और जिससे अभी तक कोई भी इस सम्बन्ध में बात नहीं हुई थी, उसी की हर रोज की प्रतीक्षा में, अपनी आंखें बिछाये वह जैसे पागल हुई जा रही थी। प्रतीक्षाएं कर-करके वह बीमार हो चुकी थी-शरीर से और दिल से भी। उसने बिस्तर पकड़ लिया था। भारत की यादों में घुट-घुटकर आधी हुई जा रही थी। एक ऐसा युवक कि जिसके केवल नाम के अतिरिक्त वह और किसी भी बारे में वह कुछ जानती भी नहीं थी, उसी की सुंदर-सुंदर, अनछुई मोहक कलपनाएं वह अपने प्यार सारे दिन-रात कर बैठी थी। फिर करती भी क्यों नहीं वह। हकीकत में यही तो उसके अपने प्यार के रास्ते थे-प्यार के पहले-पहले मधुर अनुभव थे-सुखद मार्गों की अनुभूतियां थीं। जीवन के एक-से-एक सुंदर-से-सुंदर मोड़ों के चित्र थे; ऐसे मोड़ और मार्गों पर एक कॉलेज के आंचल में शिक्षा पाने वाला कोई भी विद्यार्थी आने से बच भी कैसे सकता था? फिर रचना! वह तो एक बेसहारा लड़की थी। अनाथ, असहाय-सी, मां बाप, भाई-बहन, सम्बन्धी, सभी तरह के प्यार भरे रिश्तों की भूखी-ऐसी परिस्थिति में वह क्यों न किसी को भी प्यार करने को कोई भी बहाना ढूंढ लेती। ऐसा होना तो रचना के साथ बहुत स्वाभाविक ही नहीं, बल्कि आवश्यक भी था।

रात्रि का स्तर सरकते-सरकते डावांडोल होने लगा था। पहला पहर समाप्त हो चुका था। अब तक आकाशमण्डल से बहुत सारी अबोध तारिकाएं अपना मुंह छिपाकर भाग चुकी थीं। दूर कहीं वृक्षों के घने पत्तों के पीछे से चन्द्रमा की हल्की-हल्की महीन किरणों ने भी झांकना आरम्भ कर दिया था। काली रात्रि के अनदेखे परिंदे धीरे-धीरे सारे माहौल को जैसे और भी अधिक मायूस बनाते जा रहे थे। दूर, कहीं बहुत दूर तक, किसी कारखाने की गगनचुम्बी चिमनियों से धुआं उठ-उठकर वातावरण को मैला कर रहा था और इसके साथ ही ठीक ऐसा ही कोई धुआं रचना के दिल से उठकर, उसके शरीर के अंग-अंग से जैसे फूट पड़ना चाहता था। अपने अनजाने प्यार भरे बंधनों में जकड़कर, वह कच्ची उम्र की इस ढलान से ही मानो अपने जीवन को फूंकने को कोई संकल्प कर बैठी थी, या फिर प्यार की इन अनूठी राहों पर बिना कुछ भी सोचे हुए वह बेतहाशा भाग लेना चाहती थी। ये रचना का अपना ख्याल था, या फिर उसके दिल का कोई अरमान जिसके बारे में केवल वही जानती थी और उसका कोमल, अछूता, प्यार की हसरतों से सराबोर दिल।

-क्रमश: