भाग- 3
उस दिन जो प्यार को लेकर बातें हुईं लगा था। आगे की मुलाकातों में बात आगे बढ़ सकती हैं। पर अफ़सोस बात आगे बढ़ने की बजाय पीछे चली गयी थी। सोचकर भी कितना अजीब लगता है। दो जवान लड़के-लड़की की दोस्ती की शुरुआत में होने वाली ज़्यादातर बातें बैग में बंद किताबों में छपी थी। हमारी दोस्ती पूरे दिन में अपना व्यवहारिक रूप केवल पंद्रह से बीस मिनट के लिए ही लेती थी। वो भी तब, जब बस घड़ी में बनी सुइयों के अस्तित्व को नकार दें। और दोस्ती अपनी दोस्ती का हवाला देकर साथ चलने के लिए ना कहें। वो मुझसे किस तरह की बात करना चाहती थी। मैं नहीं जानता था। पर मैं उससे मिलने की तैयारी करता था। मैं शीशे के सामने रोजाना घंटों गुज़रता था। कि कैसे बात करनी हैं, बात करते वक़्त हाथ कैसे चलाने हैं, खड़ा कैसे होना हैं। पर जब उससे मुलाकात होती तो सिलेबस के बेमतलब के सवालों पर टिक जाती थी। जो मेरे लिए एक बोझ की तरह थे। क्योंकि मैं अपना सिलेबस उसके मन को बनाना चाहता था। जिसे पढ़कर उसके प्यार के इम्तिहान में पास हो सकूँ। अपनी राइटिंग कॉपी उसके दिल को बनाना चाहता था। जिस पर अपने प्यार के सपनों को लिख सकूँ।
बचपन से सुनता आया हूँ। विज्ञान के बारे में कि ये कड़ियाँ जोड़ता हैं। फिर जब वो सलीखें से लग जाती हैं। तब अपने सिद्धांत गढ़ता हैं। मुझे लगने लगा था। मेरी ज़िंदगी भी विज्ञान के नियमों से चल रही थी। जब हमारी मुलाक़ात ए बातों में न्यूटन, केपलर, डॉप्लर, आइंसटीन, श्रोण्डीगर और ओम सब मिलकर अपने आपकों फर्स्ट ईयर के सिलेबस तक समेट चुके थे। तब जाकर हमारी बातचीत की दूसरी प्रणाली शुरू हुई थी। और इस प्रणाली की तीसरी मुलाक़ात में रुचि ने कहा था। कि उसे हमारी दोस्ती अचानक हुई नहीं लगती।, हम भले ही अलग-अलग कॉलेज में पढ़ते हो जिनके बीच की दूरी सौ किलोमीटर हैं। हमारे घर एक दूसरे से चालीस किलोमीटर दूर हैं। हम दोनों एक ही राज्य के अलग-अलग ज़िले में रहते हैं। हम जिस टीचर से फिजिक्स की कोचिंग लेते हैं। उसका दूर-दूर तक कोई ख़ास नाम नहीं हैं। तुम्हारा मेरे घर की तरफ वाली सड़क पर आने का कोई तुक नहीं बनता, फिर भी हम दोस्त बनें। अजीब हैं। ना”
उस दिन मुझे पहली बार लगा था। जैसे उसकी भी दोस्ती के विश्वास में आस्था पैदा हो गयी थी। और वो हमारी दोस्ती को दुनिया की अर्थ सम्बन्धी वस्तुओं के बराबर में रखना चाहती हो, बस मैंने उसकी इसी आस्था से एक प्रार्थना की; कि तुम मुझे अपना फ़ोन नम्बर दे दो। पर उसने छोटी सी मुस्कान के साथ खुद को पापा की परी घोषित कर दिया।
मैंने कहा,’दोस्ती के कोई मायने नहीं
उसने कहा,’पापा की इज़ाज़त के बिना नही’
मैंने कहा,’कुट्टा’
उसने कहा,’एज यू विश’
उस एज यू विश के बाद, आने वाले एक सप्ताह तक हमारी कोचिंग चली। लेकिन उस एक सप्ताह में मैंने प्यार के नियमों को मानने से इंकार कर दिया था। मैंने उसके चेहरे की मुस्कुराहट के आगे अपने अहम को महत्व दिया था। मैं खुद को “मैं सही हूँ।“ में समेट चुका था। मुझे लगा था। वो आकर मुझे मनायेगी, पर मैं गलत था। क्योंकि वो प्यार में नहीं थी। वो दोस्ती में थी। और शाहरुख खान की फिल्मों की तरह उसका भी यहीं मानना था। दोस्ती में नाराजगी नहीं होती। इसलिए मेरी इस एक गलती की वजह से वो एक सप्ताह और आने वाले चार महीने, उससे बिना बात करें और बिना मिले बीतने वाले थे। क्योंकि फर्स्ट ईयर के एग्जाम शुरू हो चुके थे।