जामगाँव में जनजाग्रतिघर वापस आते ही समर्थ रामदास ने जड़ी-बूटी से बनी दवा माँ की आँखों में डालना शुरू किया। यह करते समय वे प्रभु राम से प्रार्थना करना नहीं भूलते। उनकी कोई भी प्रार्थना प्रभु श्रीराम ने कभी अनसुनी नहीं की। कुछ ही दिनों में माँ की धुँधली दृष्टि साफ होने लगी। अपने पुत्र और परिवार को वह साफ-साफ देखने लगी।
यह खबर हवा के झोकों की तरह दूर-दूर तक जा पहुँची कि राणोबाई का पुत्र नारायण चमत्कारी साधु बनकर लौट आया है और उसने चमत्कार से अपनी माँ का दृष्टिदोष दूर किया है। सुनकर लोगों के मन में उनके लिए कौतुहल जगा। साथ ही कुछ डर भी रहा कि 'पता नहीं, कौन सी सिद्धियाँ वश की हैं।' इसलिए लोग उन्हें देखने तो आते लेकिन उनसे कुछ दूरी बनाए रहते।
समर्थ रामदास ने जनजागृति का कार्य यहाँ भी जारी रखा। उन्होंने अपने कुछ बालमित्र खोजे ताकि उनसे बात करने में वे मित्र सहज महसूस कर पाएँ। पहले उन्हें समझाना शुरू किया कि वे कोई चमत्कारी साधु नहीं हैं। कोई भी अपनी जीवनशैली में उचित बदलाव लाकर अपने जीवन में चमत्कार ला सकता है। इसके लिए–
* अनुशासित जीवन और आत्मशुद्धि की आवश्यकता है।
* चित्त यदि शुद्ध है तो कोई भी शारीरिक या मानसिक रोग आपके पास नहीं भटक सकता।
* 'सूर्योदय से पूर्व उठना, सूर्योदय के साथ व्यायाम करना और सात्विक भोजन शारीरिक स्वास्थ्य का रहस्य है ।
* आलस्य शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का शत्रु है।
* जितना भोजन करो, उसके अनुसार शारीरिक परिश्रम भी करो ताकि उसका पाचन सरलता से हो।
* प्रातः और संध्या के समय सैर करने ज़रूर निकलो।
* तन के साथ मन को भी निरोगी बनाओ। अपनी आत्मा को लोभ, अहंकार, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करो।
* सबके कल्याण की कामना करो। तुम्हारा कल्याण ईश्वर स्वयं करेगा।
यह संदेश उन्होंने वहाँ उपस्थित लोगों को दिया। सभी को एक समर्थ जीवन जीने का रास्ता मिले इसलिए उन्होंने ग्रामवासियों से अनुरोध किया कि जब तक वे उस गाँव में हैं, प्रातःकाल सभी उनके साथ व्यायाम करने और शाम को मंदिर में सत्संग के लिए आया करें।
समाचार पाकर, पास-पड़ोस के लोग भी रोज़ शाम समर्थ की वाणी सुनने मंदिर में आने लगे। सत्संग का प्रारंभ स्वाभाविक रूप से प्रभु राम की कथाओं से ही होता था।
जनसंपर्क को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपना भिक्षा माँगने का क्रम जारी रखा। इस तरह वे संन्यासी की मर्यादाओं का पालन भी करते और परिवार के साथ रहकर अपनी माँ का समाधान भी।
उनका जनजागृति का कार्य जामगाँव में निरंतरता से चलता रहा। आक्रमणकारी, विधर्मी शासकों का मनोबल तोड़ना है तो सबको संघटित होना होगा, यह उनका आग्रह था। देश की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सिर्फ क्षत्रियों के सहारे छोड़ना उस समय काफी नहीं था बल्कि सभी के एकजुट होने की आवश्यकता थी।
सुलतानी संकट का सामना करने के लिए गृहस्थी हो, साधु हो या संन्यासी, सभी को तत्पर और एकसंघ होकर रहना ज़रूरी था। अकर्मण्यता से बाहर निकलकर देश और समाज की रक्षा के लिए कुछ करने का वह समय था।
अंधकार भरी रात में समर्थ रामदास तेजस्वी चंद्रमा की तरह प्रकाशमान भासित होते। गाँव के हनुमान मंदिर में उस सुंदर मूरत को देखते हुए, मुग्ध होकर लोग उनके प्रवचन सुनते। उनकी हर बात मानने को तत्पर रहते।
कुछ ही दिनों में नदी किनारे एक अखाड़ा तैयार किया गया। ग्रामवासी युवा वहाँ नित्य नियम से व्यायाम करने आने लगे। उन्हें अपने समाज की रक्षा करने
में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम होते देख समर्थ रामदास के चेहरे पर समाधान छा गया।
इस तरह उनके द्वारा हुए चमत्कार और आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चाएँ चारों ओर फैल रही थीं। कोई उनके औषधि ज्ञान से प्रभावित था तो कोई व्यायाम कौशल से।
एक दिन अवसर पाकर माँ राणोबाई ने उनसे पूछा, 'तेरी औषधि से मेरी आँखें ठीक हो गईं। सुना है तुमने किसी ग्राम में एक मृतक के प्राण भी लौटाए थे। बातें करने लगते हो तो मानो समय थम सा जाता है। तुम्हारे एक इशारे पर युवक कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। ऐसी कौन सी भूत - विद्या सीख ली है तुमने नारायण?'
नारायण ने हँसकर जवाब दिया,
‘जो भूत अयोध्या के महलों में संचार करता था, जो भूत माँ कौशल्या के आँगन में पला-बढ़ा है, जिस भूत के चरण स्पर्श से पत्थर भी स्त्री में रूपांतरित हुआ, जिस भूत ने देवताओं को भी बंधनमुक्त किया, मैंने उस सर्वमहाभूतों के प्राणभूत को अपने वश में कर लिया है। वही है, जो सारे चमत्कार करता है। मैं तो बस उस महाभूत का दास हूँ- राम दास!'
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अनुशासित जीवन और आंतरिक शुद्धि योगी की पहचान है। अनुशासित शरीर, विवेकशील बुद्धि और समर्पित मन का योग जीवन में रूपांतरण ला सकता है।म्हणे जाणता तो जनीं मूर्ख पाहे । अतर्कासि तर्की असा कोण आहे ।
जनीं मीपणें पाहतां पाहवेना। तया लक्षितां वेगळें राहवेना ॥ 156॥
अर्थ - ‘मैं जानता हूँ’ कहनेवाला मूर्ख है। अतार्किक को तर्क में बिठाकर कोई जान नहीं सकता। जिसमें 'मैं' का भाव है, उसे परब्रह्म दिखाई नहीं देता। जो अहंभाव को त्यागता है वह परब्रह्म से एकरूप हो जाता है।
अर्क- जानना और अनुभव से जानना इन दोनों में फर्क है। जानना सिर्फ बुद्धि से होता है। जो बुद्धि से जानकर अपने आपको ज्ञानी समझ लेते हैं उन्हें समर्थ रामदास ‘मूर्ख’ कहते हैं। परब्रह्म, परमसत्य को जो अनुभव होकर, अनुभव से जानता है वह परब्रह्म स्वरूप हो जाता है। उसका 'मैं' यानी अहंभाव मिट जाता है। इस अतार्किक ज्ञान को तर्क में बिठाकर जाना नहीं जा सकता।
बहू शास्त्र धुंडाळितां वाड आहे। जया निश्चयो येक तो ही न साहे।
मती भांडतीं शास्त्रबोधें विरोधें । गती खुंटती ज्ञानबोधें प्रबोधें ।।157।।
अर्थ - निराकार को जानने के लिए शास्त्र कई तरह के हैं। उनमें भी एकमत नहीं है। अलग-अलग मत रखनेवाले लोग आपस में लड़ते हैं। जिसे ज्ञानबोध होता है, प्रबोध मिलता है उसके अंदर के सारे कलह मिट जाते हैं।
अर्क - ईश्वर के प्रति द्वैतभाव (ईश्वर की कल्पना करके ईश्वर को खुद से अलग मानना) ही सारे कलहों का मूल है। शास्त्रों में ईश्वर के बारे में कई बातें बताई हैं, जिन्हें लेकर लोग आपस में मतभेद करते रहते हैं, जिनसे झगड़े तक होते हैं। लेकिन जब स्वज्ञान की ज्योत अंदर जलती है, स्व का असली स्वरूप ज्ञात होता है तो ऐसा इंसान सारे वाद-विवाद के परे ईश्वर के असली अस्तित्व को जान जाता है। उसके अंदर के सारे कलह मिट जाते हैं।