हनुमान जब पाँच वर्ष के हो गए तो केसरी ने सोचा कि अब उनके पुत्र को औपचारिक शिक्षा लेनी चाहिए। अगस्त्य मुनि ने हनुमान को शिक्षा के लिए सूर्यदेव के पास भेजने का सुझाव दिया।
“सूर्यदेव प्रकाश और ज्ञान के स्रोत हैं और उन्होंने पहले ही हनुमान को आशीर्वाद दिया था। वे अवश्य हनुमान को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेंगे।”
अंजना अपने पुत्र को इतनी दूर भेजे जाने से ख़ुश नहीं थी। हालाँकि केसरी ने ज़ोर दिया कि उनके पुत्र के लिए यही उपयुक्त होगा और इस तरह हनुमान को वेदों तथा अन्य संबंधित विषयों की दीक्षा के लिए सूर्यदेव के पास भेज दिया गया। केसरी ने गुरु के रूप में सूर्य को इसलिए चुना था क्योंकि एकमात्र सूर्य ही मनुष्यों के समस्त कर्मों के साक्षी हैं।
हनुमान को अपनी विलक्षण शक्तियों के बारे में याद नहीं था और इसलिए उन्होंने भोलेपन के साथ अपनी माँ से पूछा कि वे सूर्य तक कैसे पहुँच सकते हैं। तब उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे पवनपुत्र हैं और ऐसा कहते ही, हनुमान आकाश में उड़ गए।
हनुमान बहुत आदरपूर्वक सूर्यदेव के सारथी के पास पहुँचे। सारथी का नाम अरुण था और उसने हनुमान को अपने स्वामी के पास जाने की अनुमति दे दी।
“आप ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु को देख सकते हैं और इसलिए वहाँ जो कुछ भी जानने योग्य है, वह सब आपको ज्ञात है। कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कीजिए।”
सूर्य को थोड़ा संकोच हुआ क्योंकि उन्हें भली-भाँति याद था कि पिछली बार जब हनुमान उनके निकट आए थे, तब क्या हुआ था और इसलिए हनुमान को स्वीकार करते हुए उन्हें घबराहट हो रही थी।
“मेरे पास समय नहीं है,” सूर्यदेव ने कहा, “मैं इस रथ में बैठकर, सामने की ओर मुँह करके, रात-दिन आकाश में घूमता हूँ, इसलिए मैं अपनी गति धीमी नहीं करता। मैं तुम्हें शिक्षा किस तरह दूँगा?”
हनुमान ने हँसते हुए कहा कि इसमें कोई समस्या नहीं है। “आप आकाश में घूमते हुए भी मुझे उपदेश दे सकते हैं। मैं आपकी ओर मुँह करके उलटा चलूँगा और आपकी गति के साथ अपनी गति मिलाकर रखूँगा ताकि मुझे सीधे आपके मुख से उपदेश प्राप्त हो सकें।”
सूर्यदेव ने अनिच्छा से हनुमान की बात मान ली क्योंकि वे हनुमान के दिव्य गुणों तथा उनकी असाधारण क्षमताओं से अच्छी तरह परिचित थे। उन्हें यह भी पता था कि हनुमान को जन्म से ही संपूर्ण ज्ञान प्राप्त है तथा उन्हें हनुमान की स्मृति को केवल थोड़ा प्रेरित करना है।
सूर्यदेव की स्वीकृति मिलने से प्रसन्न होकर हनुमान ने अपने शरीर को सूर्य की कक्षा में स्थापित कर लिया। उन्होंने अपने शरीर का आकार बढ़ाया और अपना एक पैर, पूर्वी माला में तथा दूसरा पैर, पश्चिमी माला में रखा और सूर्य की ओर मुँह कर लिया। हनुमान की दृढ़ता से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उन्हें अपना समस्त ज्ञान देना आरंभ कर दिया। सूर्यदेव के सम्मुख बने रहने के लिए हनुमान लगातार उलटी दिशा में चलते रहे। अपने विद्यार्थी के उत्साह और उसकी लगन से प्रभावित होकर, सूर्य ने उन्हें सारा ज्ञान प्रदान कर दिया। इस तरह, हनुमान किसी ग्रह की भाँति सूर्यदेव की ज़बरदस्त आभा को सहन करते हुए उनके रथ के आगे घूमते रहे। उन्होंने यह क्रम तब तक जारी रखा जब तक उन्हें चारों वेद, छहों दर्शन, चौंसठ कलाओं और एक सौ आठ तांत्रिक रहस्यों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो गया। हनुमान ने न्यूनतम समय में, प्रत्येक मंत्र और ऋचा को दोषरहित ढंग से याद कर लिया। कहते हैं, हनुमान ज्ञान की समस्त शाखाओं तथा सभी तरह की तपस्याओं के अभ्यास में देवताओं के गुरु बृहस्पति के प्रतिद्वंद्वी हैं। वे जो कुछ सीखने आए थे, उसमें प्रवीण होने के बाद, शिक्षा का मूल्य चुकाने और गुरु-दक्षिणा देने का समय आ गया था। सूर्यदेव ने हिचकते हुए कहा कि विद्यार्थी का इतना निष्ठावान होना ही उनके लिए पर्याप्त है परंतु जब हनुमान ने कृतज्ञता ज्ञापन हेतु सूर्यदेव को कुछ माँगने के लिए कहा तो सूर्यदेव ने हनुमान से अपने पुत्र एवं वानर-राज बाली के सौतेले भाई, सुग्रीव की देखभाल करने का आग्रह किया। इस तरह, सूर्यदेव ने अपने पुत्र सुग्रीव को हनुमान के रूप में अत्यंत मूल्यवान उपहार दिया, अन्यथा हनुमान के बिना सुग्रीव कोई कार्य नहीं कर पाता।
इसी कथा का एक अन्य रूप भी है। जब हनुमान सूर्यदेव के रथ के पास पहुँचे तो उन्होंने देखा कि वहाँ पहले से ही काफ़ी विद्यार्थी मौजूद थे। ये बालखिल्य नामक बौने ऋषिगण थे जिनकी संख्या एक हज़ार थी। जब हनुमान ने सूर्यदेव से विनम्रतापूर्वक उन्हें भी अपना शिष्य बनाने के लिए विनती की, तो इन शीघ्र कुपित होने वाले ऋषियों ने अपने गुरु से कह दिया कि वे एक बंदर के साथ शिक्षा ग्रहण नहीं करेंगे! सूर्यदेव को समझ नहीं आया कि वे क्या करें क्योंकि उन्हें इन चिड़चिड़े ऋषियों के शाप का भय था। ऐसी स्थिति में हनुमान ने सूर्य के रथ के सामने उलटा चलने की तरक़ीब सोची ताकि उन्हें भी ऐसी संकीर्ण सोच वाले ऋषियों की संगति में शिक्षा ग्रहण न करनी पड़े! इतने लंबे समय तक सूर्य के सामने रहने के कारण हनुमान का रंग भी काला हो गया।
एक अन्य कथा कहती है कि हनुमान इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने मात्र पंद्रह दिनों में वेदों का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। हालाँकि सूर्यदेव अपने इस असाधारण विद्यार्थी को, जो स्वयं भगवान शिव का अंश था, छोड़ना नहीं चाहते थे। इस कारण वे जान-बूझकर हनुमान को बार-बार पाठ भुला दिया करते थे ताकि उन उपदेशों को अनेक महीनों तक जारी रखा जा सके। परंतु हनुमान ने सूर्य को अपनी विनयशीलता और निष्ठा से इतना प्रसन्न कर दिया सूर्यदेव ने हनुमान को यह वरदान दिया कि आज के बाद जो लोग हनुमान का नाम लेंगे, वे कभी अपनी शिक्षा नहीं भूलेंगे!
एक अन्य कथा इस प्रकार है कि जब हनुमान के माता-पिता ने हनुमान को कहा कि उन्हें सूर्य को अपना गुरु बनाना चाहिए तो वे चुपचाप ध्यान लगाकर बैठ गए और निरंतर गायत्री मंत्र का जाप करने लगे, जो सूर्य में परिलक्षित होने वाले परम ज्ञान के आह्वान का महान मंत्र है। हनुमान, पूरे दिन ध्यान में बैठे रहे और सूर्य के पश्चिम में अस्त हो जाने तक आकाश में उसकी परिक्रमा को देखते रहे। दिवस के अवसान होने तक, हनुमान को संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो चुका था। दरअसल, प्राचीन काल में ऋषियों के पास स्वेच्छा से ब्रह्मांड का कोई भी ज्ञान प्राप्त करने का सामर्थ्य था। वेदों का ज्ञान आकाश में ध्वनि-तरंगों के रूप में विद्यमान रहता है। ये तरंगें अत्यंत सूक्ष्म होती हैं और सदा आकाश में मौजूद रहती हैं। इनकी तुलना टेलीविज़न और रेडियो की तरंगों के साथ की जा सकती है जिनसे हम लोग परिचित हैं। ऋषियों को इन संकेतों को पकड़ने के लिए, हमारी तरह किसी बाहरी यंत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। हनुमान भी इसी तकनीक का प्रयोग करते थे।
हनुमान के माता-पिता अब भी किसी लौकिक गुरु को खोजने के लिए उत्सुक थे किंतु उन्हें यह नहीं पता था कि इसके लिए वे किसके पास जाएँ। एक दिन जब हनुमान जंगल में खेल रहे थे, तो उन्होंने एक खूंखार बाघ को अपनी ओर आते देखा। बाघ एक ज़ोरदार दहाड़ के साथ हनुमान पर झपटा लेकिन हनुमान घबराए नहीं। वे हवा में दस फ़ीट ऊपर उछलकर बाघ की पीठ पर सवार हो गए और उसे निर्ममता से जकड़ लिया। बाघ का मुँह आश्चर्य से खुला था। हनुमान ने उसके खुले जबड़ों को पकड़ा और चीर दिया। इतनी देर में बाघ बुरी तरह थक चुका था लेकिन हनुमान उसकी पीठ पर आराम से सवारी कर रहे थे। वह बाघ अधिक दूर नहीं जा सका और उसने बीच में ही दम तोड़ दिया।
तभी बाघ-चर्म पहने और गले में बाघ के नाख़ूनों की माला धारण किए एक शिकारी हनुमान के समक्ष प्रकट हुआ। उसके चौड़े कंधों पर धनुष व तरकश लटका हुआ था। उस शिकारी को देखकर हनुमान के हृदय में प्रेम उमड़ आया। वे बिना पलक झपकाए उसे प्रशंसा-भरी दृष्टि से देखते रहे।
शिकारी हँसा और बोला, “क्या तुम्हें मुझसे भय नहीं लग रहा? हो सकता है, मैं बंदर पकड़ने वाला शिकारी हूँ और तुम्हें पकड़कर अपने साथ ले जाऊँ!”
हनुमान ने शिकारी को निर्भीकता से देखा और उत्तर दिया, “मुझे किसी से भय नहीं लगता लेकिन मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं। मैंने आपके जैसा मनुष्य पहले नहीं देखा।”
शिकारी ने उत्तर दिया, “मैं एक शिकारी हूँ तथा यहाँ से बहुत दूर बर्फ़ीले पहाड़ों में रहता हूँ। यदि तुम्हें मुझसे भय नहीं लग रहा तो मैं तुम्हें अनेक रोचक चीज़ें सिखा सकता हूँ।”
“मेरे माता-पिता को मेरे लिए गुरु की तलाश है,” हनुमान ने कहा। “आप मेरे साथ आइए। मैं आपको उनके पास लेकर चलता हूँ।”
अपने प्रिय पुत्र को ऐसे अशिष्ट व्यक्ति के साथ, हाथ में हाथ डालकर आता देख अंजना और केसरी को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें उससे भी अधिक हैरानी तब हुई जब हनुमान ने उनसे कहा कि वे कलाओं को सीखने के लिए अपने इस नए मित्र के साथ जाना चाहते हैं।
“क्या तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है? इसको देखने से ही लगता है कि यह अशिष्ट और अशिक्षित है। इस तरह का व्यक्ति तुम्हें क्या सिखाएगा?” केसरी ने पूछा।
“पिताजी, आप जिन्हें जानते नहीं उनके विषय में इस तरह की बात क्यों कर रहे हैं? मैं इन्हें ही अपना गुरु बनाना चाहता हूँ।”
“क्या शिष्य को अपना गुरु चुनने का अधिकार नहीं है?” शिकारी ने पूछा।
“उसे यह अधिकार है,” केसरी ने कहा, “किंतु वह अभी बालक है और मैं तुम्हें इसका गुरु नहीं बनाना चाहता!”
“मुझे अशिष्ट और भावशून्य कहने से पहले क्या आपको मेरे कौशल की जाँच नहीं करनी चाहिए?” शिकारी ने ज़ोर देते हुए कहा।
अंजना और केसरी, शिकारी की बात सुनकर हैरान हो गए। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर केसरी ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि यह कोई साधारण शिकारी है। मेरे विचार से हमें इसे कौशल सिद्ध करने का एक अवसर देना चाहिए।”
ऐसा कहकर केसरी ने शिकारी को शस्त्रों के साथ द्वंद्व की चुनौती दी। शिकारी तुरंत तैयार हो गया लेकिन उसने कहा कि विजेता का निर्णय करने के लिए किसी मध्यस्थ की आवश्यकता होगी। केसरी ने अंजना के नाम का सुझाव दिया। शिकारी हँसा और बोला कि अंजना का मध्यस्थ होना सही नहीं होगा क्योंकि केसरी की पत्नी होने के नाते वह उसके हार जाने के बाद भी उसे ही विजेता मानेगी। केसरी ने इससे सहमति जताई और अपने मन में सहायता के लिए वायुदेव का आह्वान किया। हवा के झोंके के रूप में वायुदेव तत्काल प्रकट हो गए और उन्होंने मध्यस्थता करना स्वीकार कर लिया।
केसरी ने कमर कसी और मुट्ठी भींचकर शिकारी पर झपटा तथा उसकी छाती पर प्रहार करके उसे दूर उछाल दिया। अंजना अपने पति का साहस देखकर ख़ुश हुई और उसकी प्रशंसा करने लगी। परंतु उसकी वह ख़ुशी जल्द ही ग़ायब हो गई। शिकारी आराम से उठा और केसरी के निकट आकर, उसे बड़ी सरलता से उठाकर हवा में उछाल दिया। केसरी धड़ाम से धरती पर गिरा और लगभग अचेत हो गया। अंजना उसकी सहायता के लिए दौड़ी और उसके शरीर की मालिश करने लगी। धीरे-धीरे केसरी को होश आ गया। उसे बहुत पीड़ा हो रही थी। वह किसी तरह उठा और फिर लड़ने के लिए तैयार हो गया। किंतु अंजना ने उसे शिकारी से दोबारा लड़ने से मना किया। केसरी से अपनी पराजय स्वीकार नहीं हुई। उसने शिकारी की ओर देखा जो उसे देखकर मुस्करा रहा था।
“आओ, अब हम शस्त्रों के साथ अपना कौशल परखते हैं,” केसरी ने कहा।
शिकारी तुरंत धनुष-बाण लेकर तैयार हो गया। केसरी ने भी अपने धनुष-बाण उठा लिए और एक के बाद एक बाण शिकारी पर चलाए। किंतु शिकारी ने बड़ी सरलता से स्वयं को बचा लिया और फिर अपने एक ही बाण से केसरी का धनुष काटकर उसे निहत्था कर दिया।
अंजना समझ गई कि वह कोई सामान्य शिकारी नहीं था। उसने अपनी आँखें मूँदी और अपने इष्टदेव का स्मरण किया। जब उसने आँखें खोलीं तो वह जान गई कि वह शिकारी कोई और नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव थे। उसने तुरंत कुछ फूल तोड़े और उनके चरणों में अर्पित कर दिए। शिकारी ने अपना हाथ बालक के सिर पर रखा और उसे आशीर्वाद दिया। उन्होंने मुड़कर केसरी की ओर देखा और हँसते हुए कहा, “क्या अब भी आपको मुझे अपने पुत्र का गुरु बनाने में कोई आपत्ति है?”
केसरी भगवान शिव के चरणों में गिर पड़ा और उनसे क्षमा माँगने लगा। “यह हमारा सौभाग्य है कि आप स्वयं आए हैं और हमारे पुत्र का गुरु बनना स्वीकार किया है। इसी कारण हमें आपके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कृपया मेरे अपराध को क्षमा करें और हमारे पुत्र को अपना शिष्य बना लें।”
शिव ने सहमति व्यक्त की और अपनी अँगूठी से बालक हनुमान की जिह्वा को स्पर्श किया। देखते-देखते, वह बालक भगवान की स्तुति में जयगीत गाने लगा। इसके बाद शिव ने उसके दाहिने कान में प्रणव मंत्र बोला जिससे हनुमान संपूर्ण ज्ञानी हो गए। फिर शिव ने हनुमान को कहा कि समय आने पर और जब हनुमान स्वयं चाहेंगे तो कला की देवी सरस्वती उन्हें संगीत में पारंगत कर देंगी। यह सुनकर हनुमान के माता-पिता बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया।
इस तरह भगवान शिव ने मारुति को मंत्रों, यंत्रों तथा विभिन्न आध्यात्मिक रहस्यों का समस्त गूढ़ ज्ञान दे दिया। माना जाता है कि विष्णु ने उन्हें भक्ति योग, सांख्य योग और हठ योग की शिक्षा दी तथा विष्णु के छठे अवतार परशुराम ने हनुमान को कुश्ती के रहस्य सिखाए।
इसके बाद हनुमान के पिता वायुदेव ने उनकी शिक्षा का उत्तरदायित्त्व ले लिया। सबसे पहले उन्होंने हनुमान को प्राणायाम याने श्वास पर नियंत्रण के गूढ़ रहस्य बताए। उसके बाद पक्षियों की भाँति लंबी दूरी तक छलाँग लगाना सिखाया। एक दिन उन्होंने हनुमान को बहुत सुंदर वीणा दी और उसकी सहायता से भगवान की स्तुति गाने के लिए कहा। हनुमान प्रसन्न हो गए और उन्होंने संध्याकाल भगवान की स्तुति गाते हुए बिताया। एक बार जब वे वन के किसी तालाब में स्नान कर रहे थे, तो उन्होंने बुलबुल का मधुर स्वर सुना और सोचने लगे कि काश वे भी इतना ही मीठा गा पाते। उसी समय उन्हें भगवान शिव की बात याद आई, जिन्होंने यह कहा था कि जब भी उनकी ललित कलाओं में निपुण होने की इच्छा हो तो वे देवी सरस्वती की अर्चना करें। यह विचार दिमाग़ में आते ही, हनुमान तालाब में कूद पड़े और कमर तक पानी में खड़े होकर देवी सरस्वती की प्रार्थना करने लगे।
हनुमान की उत्कट पुकार सुनकर, देवी प्रकट हुईं और हनुमान को धीरे-से झकझोरा ताकि वे आँखें खोलें। फिर देवी ने उनसे वरदान माँगने को कहा।
हनुमान ने देवी को प्रणाम किया और उनसे समस्त ललित कलाओं का ज्ञान तथा संगीत में निपुणता का वरदान माँगा। मुस्कराते हुए देवी ने उन्हें ये वरदान दे दिए और कहा कि वे अपनी वीणा उठाकर गाना आरंभ करें। देवी को प्रणाम करने के बाद, हनुमान वीणा लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और गाना आरंभ कर दिया। उनकी मधुर आवाज़ तथा वीणा के प्रांजल स्वर सुनकर वन के जंगली जीव भी उन्हें सुनने के लिए उनके निकट आ गए। आकाश में विचरण कर रहे गंधर्व भी उनका संगीत सुनने के लिए वहाँ रुक गए।
उसी समय देवर्षि नारद जो एक विख्यात गायक और भगवान विष्णु के महान भक्त थे, वहाँ से गुज़रे। वे भी इस दृश्य को देखकर प्रभावित हो गए। उन्हें लगता था कि सिर्फ़ वे ही अच्छी वीणा बजाते और भगवान की स्तुति गाते हैं, इसलिए उन्हें हनुमान को अपने विशिष्ट क्षेत्र में घुसपैठ करता देख अच्छा नहीं लगा। वे यह जानने के लिए धरती पर उतर आए कि हनुमान की मधुर आवाज़ में ऐसी क्या विशेषता थी जिसने समूचे वन को परम आनंदित कर दिया है। नारद, युवा भक्त हनुमान के पास पहुँचे और धीरे-से उनके कंधे पर थपकी दी। हनुमान ने आँखें खोलीं तो देवर्षि को अपने सामने हाथ में वीणा लिए खड़े हुए देखा। नारद ने उन्हें अपने विषय में बताया। हनुमान ने उन्हें विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद नारद ने हनुमान को कोई अन्य गीत गाने के लिए कहा। हनुमान ने उनकी बात मानते हुए गाना शुरू कर दिया। हनुमान के संगीत के मीठे सुर सुनकर नारद पूरी तरह संगीत में डूब गए।
हनुमान ने जब गाना बंद किया तो नारद ने विनीत स्वर में कहा, “हे हनुमान! मैं आपके कौशल की परीक्षा लेने आया था और अब मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि आप संगीत में निपुण हैं। देवी सरस्वती ने सचमुच आपको सच्चा आशीर्वाद दिया है। मैं उसमें अपना आशीर्वाद जोड़ना चाहता हूँ।”
यह सुनकर हनुमान देवर्षि के चरणों में गिर पड़े और बोले, “मुनिश्रेष्ठ! भक्ति संगीत में आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। आपका यश तीनों लोकों में फैला है। मैं आपकी तुलना में कुछ भी नहीं हूँ।”
हनुमान की विनम्रता और उनकी मधुर आवाज़ से नारद अत्यंत प्रसन्न हुए। हनुमान को आशीर्वाद देकर जब नारद उठकर वहाँ से जाने लगे तो उन्हें यह देखकर बहुत निराशा हुई कि उन्होंने जिस शिलाखंड पर अपनी वीणा रखी थी, वह हनुमान के मधुर संगीत से पिघल गई थी और उनकी वीणा उस शिला के साथ चिपक गई थी!
नारद ने हनुमान से दोबारा गाने की प्रार्थना की ताकि वह शिलाखंड फिर से पिघल जाए और उनकी चिपकी हुई वीणा छूट जाए। हनुमान ने ऐसा ही किया और देवर्षि की वीणा उन्हें फिर से मिल गई। कहते हैं, द्वापर युग में जब भगवान कृष्ण वृंदावन में बाँसुरी बजाते थे तो वहाँ की सभी ठोस चीज़ें, जैसे पत्थर आदि उनके संगीत के मोहक सुरों से पिघल जाते थे। यहाँ भी ऐसा ही हुआ था। हनुमान की श्रेष्ठता को देखकर नारद ने उन्हें फिर से आशीर्वाद दिया और फिर चले गए।
इसी तरह प्रसन्नतापूर्वक अनेक वर्ष बीत गए। हालाँकि वह क्षण तेज़ी से समीप आ रहा था जब यह रमणीय समय समाप्त होने वाला था। एक दिन जब अंजना ध्यान में लीन थी, उसे अपने भीतर एक आवाज़ सुनाई दी, “पुंचिकस्थला! पुंचिकस्थला! तुम्हारे शाप के समाप्त होने का समय आ गया है। अब तुम अपने दिव्य लोक में वापस जा सकती हो!”
यह सुनकर अंजना के मन में स्मृतियों का समुद्र उमड़ पड़ा और उसे मस्तिष्क में अपना पूर्वजन्म स्पष्ट दीखने लगा। “मैं अंजना नाम की मादा-वानर नहीं हूँ। मैं देवलोक की अप्सरा हूँ और मेरा नाम पुंचिकस्थला है। मैं देवताओं के गुरु बृहस्पति की दत्तक पुत्री हूँ। मैं शाप से मुक्त हो चुकी हूँ और अब मैं अपने पिता के आश्रम में वापस जा सकती हूँ।”
परंतु इस विचार से उसे ख़ुशी नहीं हुई। उसकी आँखों से अश्रु बहने लगे।
उसके पति केसरी ने उसके निकट आकर उसके रोने का कारण पूछा। बाल हनुमान अपनी माता के निकट आकर गले से लग गए और वचन दिया कि वे फिर कभी शरारत नहीं करेंगे। इस पर अंजना ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और हनुमान को गले से लगा लिया।
“प्रिय पुत्र! मेरा तुम्हें छोड़कर अपने घर वापस जाने का समय आ गया है। परंतु तुम्हें छोड़कर लौटने का विचार मेरे लिए असहनीय है।”
आंजनेय और केसरी दोनों को अंजना की बात समझ नहीं आई।
“ये तुम क्या कह रही हो? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा। तुम्हें कहाँ जाना है? यही तो तुम्हारा घर है।”
“प्रभु!” अंजना ने कहा, “मैं वास्तव में अंजना नहीं हूँ, बल्कि पुंचिकस्थला नाम की अप्सरा हूँ। बृहस्पति का आश्रम ही मेरा घर है। मैं एक शाप के कारण वानर बन गई थी। अब मुझे उस शाप से मुक्ति के साथ और अपने घर लौटने की अनुमति भी मिल गई है, किंतु आपसे और अपने पुत्र से विरह का विचार मुझे द्रवित कर रहा है।”
“ओह अंजना! मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगा,” केसरी ने कहा।
“प्रियवर! नियति के प्रवाह को कोई नहीं बदल सकता। आप मुझे नहीं रोक सकेंगे। इसलिए कृपया मुझे जाने दें।”
बाल हनुमान ने विवेकपूर्ण वचन कहे, “हे माँ! आप निश्चिंत होकर जाइए। आप बिलकुल सही कहती हैं कि भाग्य के चक्र को कोई नहीं रोक सकता।”
तभी वायुदेव प्रकट हुए और अंजना को सांत्वना देते हुए बोले, “अपने पुत्र के लिए दुख मत करो। उसकी देखभाल के लिए हम सब लोग यहाँ मौजूद हैं। यदि तुम जाना चाहती हो तो निश्चिंत होकर जाओ।”
वीर केसरी इस वियोग को सहन नहीं कर सका। “मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता प्रिय! तुम जहाँ भी जाओगी, मैं तुम्हारे पीछे आ जाऊँगा।”
अपने पति के वचन सुनकर अंजना ने कुछ क्षण के लिए अपनी आँखें मूँद लीं और अपने गुरु का ध्यान करने लगी। उसने मन में गुरु से अपने पति के साथ हिमालय में स्थित कंचन पर्वत पर जाकर तपस्या करने की अनुमति माँगी। उसने बाल हनुमान को अपनी बाँहों में लिया, उसका माथा चूमा और उसे वायुदेव को सौंप दिया। फिर उसने केसरी से कहा, “प्रभु! मैं भी आपके विचार से सहमत हूँ। यदि आप मेरे साथ चलना चाहते हैं तो मुझे अपनी बाँहों में ले लीजिए।”
केसरी ने वैसा ही किया जैसा अंजना ने कहा। उसके बाद वे दोनों आकाश में उड़ गए और ऊपर जाकर प्रकाश-पिंडों में बदल गए। हनुमान यह देखकर अचंभित हो गए। मारुति के देखते-देखते उनके माता-पिता उत्तर दिशा में विलीन हो गए। बृहस्पति ने अंजना को अनुमति दी और फिर वे दोनों कंचन पर्वत पर निवास करने लगे।