Vishwasghaat in Hindi Motivational Stories by Mayank Saxena Honey books and stories PDF | विश्वासघात

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विश्वासघात

विश्वासघात

"जय श्री कृष्णा।" इस अभिवादन ने सभी का ध्यान द्वार पर आए आगंतुक की ओर आकर्षित कर दिया। ये आगन्तुक और कोई नहीं बल्कि रिश्ते करवाने वाले बिचौलिए जगन्नाथ बाबू थे। "अरे, जगन्नाथ बाबू आप! जय श्री राधे-कृष्णा" ऐसा कहते हुए दुष्यन्त बाबू ने अपने आसन से खड़े होकर दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार वाली स्तिथि में जगन्नाथ बाबू के अभिवादन का उत्तर दिया।

जगन्नाथ: "कहें तो अंदर आ जाएँ?"

दुष्यन्त: "छोटे भाईयों के यहाँ आने के लिए बड़े भाईयों को आज्ञा की आवश्यकता कबसे पड़ने लगी?"

जगन्नाथ: "तुम बिलकुल नहीं बदले, दुष्यन्त। इतने समय दूसरे राज्यों में नौकरी कर आए लेकिन आज भी वैसे ही व्यवहारिक हो। बड़ा अपनापन लगता है तुमसे मिलकर।"

"राधे-राधे, भाईसाहब।" कि एकाएक अभिवादन से जगन्नाथ का ध्यान अरुणिमा की तरफ गया। अरुणिमा दुष्यन्त बाबू की धर्मपत्नी थी।

जगन्नाथ: "राधे-राधे भाभीजी।"

अरुणिमा: "बड़े दिन बाद; आज अचानक! सब कुशल मंगल तो है भाईसाहब?"

जगन्नाथ: "सब कुशल मंगल है, भाभीजी। अपने पैतृक गाँव से छः वर्ष बाद 10 दिन पहले ही यहाँ इंद्रप्रस्थ आया था। सूचना मिली कि अपने दुष्यन्त बाबू स्वरा बिटिया के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं। वैसे स्वरा बिटिया कहीं नज़र नहीं आ रही?"

दुष्यन्त: "भाईसाहब, अगर स्वरा बिटिया को पता होता कि उसके जगन्नाथ काका आ रहे हैं तो वो यही मिलती।"

जगन्नाथ: "उसको मैं याद हूँ?"

दुष्यन्त: "आपको कैसे भूल सकती है स्वरा। आपकी गोद में तो पूरा इंद्रप्रस्थ शहर घूमा है उसने। वो अक्सर आपकी बातें किया करती है। अभी महाविद्यालय गई है, विज्ञान में परास्नातक कर रही है आपकी स्वरा बिटिया।"

जगन्नाथ: "समय निकलते पता ही कहा लगता है। छोटी सी बच्ची आज ब्याह लायक हो गई। वैसे कोई रिश्ता देखा तुमने स्वरा के लिए?"

अरुणिमा: "रिश्ते के लिए कई परिवारों से बातचीत हुई भाईसाहब, लेकिन आप तो सब जानते हैं आपसे क्या छुपा है। इनका (दुष्यन्त बाबू का) जीवन निजी क्षेत्र की नौकरियों में बीत गया। मासिकी कोई बहुत ज़्यादा नहीं थी। ऐसे में जहाँ बात करने जाए लड़के वालों की माँगें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इनकी बचत से ज़्यादा निकल जाए। स्वरा भी कहती है कि बेटी की शादी के लिए अगर उधार लेना पड़ रहा है तो वो शादी नहीं करेगी....."

जगन्नाथ: (बीच में रोकते हुए): "और आप क्या कहते हैं?"

अरुणिमा: "कहना क्या है भाईसाहब। जिन लोगों की शादी से पहले इतनी माँगे हैं, शादी के बाद तो कहाँ ही चुप रहने वाले हैं और फिर शेर के मुँह एक बार खून लग जाए तो उसका आगामी शाकाहारी जीवन की कल्पना करना भी मूर्खता की पराकाष्ठा होगी.."

दुष्यन्त: (बात काटते हुए): "भाईसाहब, बेटी ऐसे घर में ब्याहनी है जो उसे बेटी न सही बहू का दर्जा दे पाए। जिनकी माँगें मेरी जेब से ज़्यादा हो ऐसी जगह मैं वैसे भी बेटी ब्याहने का कैसे सोच सकता हूँ।"

जगन्नाथ: "वैसे मेरे पास एक रिश्ता है। अभी दो दिवस पहले प्रधानडाकघर जाना हुआ था। वहां चद्रशेख़र बाबू से मुलाक़ात हुई। स्वरा बेटी को देखा होगा किसी उत्सव या समारोह में तो वो तब से अपने बेटे के लिए स्वरा से शादी का मन बनाए बैठे हैं। मुझे आपसे बात करने के लिए कह रहे थे। लड़का उनका मलेशिया में नौकरी करता है। आपकी जात-बिरादरी के ही हैं.."

दुष्यन्त: (बीच में रोकते हुए): "केवल जात-बिरादरी नहीं दूर के रिश्ते में वो भाई भी लगते हैं मेरे।"

जगन्नाथ: "ये तो अत्यंत प्रसन्नता की बात है। फिर तुम्हारा क्या निर्णय है दुष्यन्त?"

दुष्यन्त: "भाईसाहब अगर स्पष्ट बोलू तो मेरा उत्तर ना है।"

जगन्नाथ और अरुणिमा दुष्यन्त बाबू के उस उत्तर से हतप्रभ थे कि कैसे कोई इतना अच्छा रिश्ता ठुकरा रहा है कि एकाएक जगन्नाथ ने अपनी उत्सुकता को प्रश्न के माध्यम से स्पष्ट किया।

जगन्नाथ: "दुष्यन्त, मैं हमेशा तुम्हारी स्पष्टवादिता और मुखर प्रवृत्ति का प्रशंसक रहा हूँ किन्तु मुझे इसका कारण नहीं बताओगे कि आखिर तुम्हारा उत्तर ना क्यों है?"

अरुणिमा भी जैसे दुष्यन्त बाबू की तरफ निगाहें किये हुए उनके अंत से आने वाले उत्तर में प्रतीक्षारत सी जान पड़ रही थी।

दुष्यन्त: "मैं चंद्रशेखर बाबू को आज से नहीं पिछले 45 वर्षों से ज़्यादा से जानता हूँ। दूर के रिश्ते में वो मेरे तयेरे (ताऊजी के बेटे) भाई लगते हैं। शुरू से लोभी प्रवृत्ति के हैं। पैसों की भूख उनकी आज भी उतनी ही है जितनी 45 वर्ष पहले थी और मृत्युपर्यंत इस क्षुधातृप्ति की आशा भी दिवास्वप्न से कम नहीं होगी। न तो वो व्यवहारिक हैं और न ही सम्बधों के मूल्य को समझने वाले व्यक्ति।"

जगन्नाथ: "लेकिन उन्होंने ही सामने से मुझे तुमसे स्वरा बिटिया के लिए उनके बेटे की बात चलाने यहाँ भेजा है। वो स्वरा बिटिया की सुन्दरता और सादगी पर मोहित हैं और फिर जब वो मुझसे कारण पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूँगा। एक बार तुम और भाभीजी बैठकर आराम से शान्ति से इस पर विचार-विमर्श कर लो फिर तुम्हारा जो अभी अंतिम निर्णय होगा मैं चंद्रशेखर बाबू को सूचित कर दूँगा। वैसे चंद्रशेखर बाबू की धर्मपत्नी पार्वती भाभी जौनपुर की तरफ की हैं बाकि तुम समझदार हो। कल आता हूँ जो भी निर्णय हो बता देना। जय श्री कृष्णा"

दुष्यन्त और अरुणिमा "जय श्री कृष्णा" कहते हुए जगन्नाथ बाबू को बाहर तक विदा करने जाते हैं।

जगन्नाथ बाबू के जाने के बाद दुष्यन्त और अरुणिमा का आपसी वार्तालाप शुरू होता है।

अरुणिमा: "सुनिए, अगर वो सामने से रिश्ते के लिए आग्रह कर रहे हैं तो हमें एक बार उनके बेटे को तो देख लेना चाहिए क्या पता बेटा पिता जैसा न हो।"

दुष्यन्त: "बेटा पिता जैसा न हो, ये कैसे संभव है अरुणिमा। कुछ तो लक्षण पिता के भी होंगे बेटे में और फिर विदेश में रहता है हम लोग क्या ही उसके चाल-चलन का पता लगा लेंगे।"

अरुणिमा: "बात तो आपकी सही है।"

दुष्यन्त: "सही है तो तुम भी समझो। इस बात को यहीं विराम देते हैं। आगे इस पर कोई वार्तालाप नहीं होगी। स्वरा को मुझे नर्क में नहीं झोंकना।"

अरुणिमा: "ठीक है।"

इतना कह कर सभी अपने अपने दैनिक कार्यों में लग जाते हैं। स्वरा 24 वर्षीय सुन्दर नयन-नक्श वाली श्वेत कांति सी काया की स्वामिनी थी। स्वरा के 18 वर्ष के होने से पूर्व दुष्यन्त बाबू के परिवारियों ने दुष्यन्त बाबू को स्वरा की शादी जल्दी करवाने के काम में लगा दिया था। दुष्यन्त बाबू की एक ओर बेटी थी स्वस्ति। स्वस्ति स्वरा से लगभग 4 वर्ष छोटी थी। दुष्यन्त बाबू और उनकी धर्मपत्नी जिस भी जगह लड़का देखने जाते तो वहाँ एक ही समस्या सामने खड़ी पाते और वो लड़केवालों की माँगें होती और वो रिश्ता ठुकराकर वापस चले आते। अरुणिमा भी इस बात को लेकर चिंतित हो जाती कि यदि स्वरा के समय इतनी माँगें हैं तो स्वस्ति के समय तो और ज़्यादा होंगी। ऐसा न हो कि स्वरा की शादी में इतना लग जाये कि स्वस्ति की शादी में आर्थिक विघ्न उत्पन्न हो जाए और दुष्यन्त बाबू अरुणिमा को ये कहकर दिलासा देते रहते थे कि सही समय पर ही सही काम होगा अतः सही समय की प्रतीक्षा करो।

अगले दिन दोपहर में जगन्नाथ बाबू दुष्यंत और अरुणिमा का निर्णय पूछने दुष्यन्त बाबू के घर आते हैं।

जगन्नाथ: "जय श्री कृष्णा।"

दुष्यन्त: "जय श्री कृष्णा, भाईसाहब। अंदर आइये।"

जगन्नाथ अंदर आकर आसन ग्रहण करते हैं।

जगन्नाथ: "फिर क्या निर्णय किया, दुष्यंत?"

दुष्यन्त: "करना क्या था भाईसाहब। हमारी तो ना ही है।"

जगन्नाथ: "ठीक है फिर चंद्रशेखर बाबू से क्या कह कर न करू? सीधा न करना अच्छा लगेगा नहीं और उनके चरित्र का स्पष्ट चित्रण उनके सम्मुख करने का मुझमें साहस नहीं है।"

दुष्यन्त: "तो कह दीजियेगा, भाईसाहब, कि दुष्यन्त की बचत इतनी न है कि वो बहुत बड़े स्तर की शादी कर पाए।"

जगन्नाथ: "ठीक है दुष्यंत, अगर यही तुम सबका अंतिम निर्णय है तो। चलो मैं थोड़ा जल्दी में हूँ। मुझे जाने की आज्ञा दो।"

दुष्यंत: "भाईसाहब आपका अपना घर है इसमें आज्ञा कैसी।"

जगन्नाथ बाबू दुष्यंत बाबू का निर्णय जानकार किसी विशेष कार्य हेतु वहां से विदा लेते हैं। हालाँकि जगन्नाथ बाबू को कल से ही पता चल चुका था कि दुष्यन्त बाबू का चंद्रशेखर बाबू के लिए अनुभव उनके निर्णय को और प्रबल कर देगा लेकिन समय देना भी उचित निर्णय था। आखिर अनुभव करवाने के लिए ज़िम्मेदार भी तो चंद्रशेखर बाबू के कर्म ही थे अतः नियति की यही इच्छा मानकर जगन्नाथ बाबू वहाँ से चले गए थे।

उसके उपरान्त सभी अपने अपने दैनिक कार्यों में पूर्व की भाँति लग गए। दिन निकलते गए कि अचानक 20 दिन के बाद जगन्नाथ बाबू को साथ लेकर चंद्रशेखर बाबू दुष्यंत बाबू के घर आ पहुंचें।

जगन्नाथ: "जय श्री कृष्णा, भाभीजी।"

अरुणिमा: "जय श्री कृष्णा, भाईसाहब।"

जगन्नाथ: "देखिए कौन आए हैं साथ।"

अरुणिमा ने दिमाग के अंतिम पटल तक की गहराई में गोते लगा लिए किन्तु किसी भी पटल या स्तर से वो उस नवागंतुक को पहचानने में असमर्थ रही। उसकी असमर्थता उसके हाव-भाव से स्पष्ट भाँपी जा सकती थी कि एकाएक उस नवागंतुक ने बोलना शुरू किया।

नवागंतुक: "अरे कैसे पहचानेंगी, इन्होने कहा हमें देखा होगा और यदि देखा भी होगा तो उसको भी अरसा बीत गया होगा। खैर, मैं अपना परिचय स्वयं दे देता हूँ। मैं चंद्रशेखर हूँ। दुष्यन्त के दूर के रिश्ते में उसके ताऊजी का लड़का और उपडाकपाल के पद पर प्रधानडाकघर में कार्यरत हूँ।"

अरुणिमा: "जी अच्छा भाईसाहब। अंदर आइये। क्षमा करियेगा आपको पहचान न सकी।"

चंद्रशेखर: "कोई बात नहीं भाभीजी। दुष्यन्त कहीं नज़र नहीं आ रहा?"

अरुणिमा: "जी, बस यही पास तक गए होंगे। आप बैठिये, वो बस आते ही होंगे।"

"स्वस्ति बेटा, अंकल के लिए पानी लेकर आओ", अरुणिमा ने ज़ोर से आवाज़ देकर स्वस्ति को पानी लाने का निर्देश दिया।

"लायी, माँ।" स्वस्ति ने उत्तर दिया।

इसी बीच दुष्यन्त अपने घर वापस लौट कर आए। आते ही उन्होंने देखा कि जगन्नाथ बाबू के साथ चंद्रशेखर बाबू भी विराजमान हैं।

दुष्यन्त: "राधे-राधे, चंद्रशेखर भाईसाहब।"

चंद्रशेखर: "राधे-राधे दुष्यंत"

दुष्यन्त: "जय श्री कृष्णा, जगन्नाथ भाईसाहब।"

जगन्नाथ: "जय श्री कृष्णा, दुष्यंत बाबू। कहाँ निकल गए थे देखिये कब से हम दोनों तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे।"

दुष्यन्त: "कोई विशेष काम, भाईसाहब।"

चंद्रशेखर: "मुझे जगन्नाथ भाईसाहब ने बताया कि तुमने शादी के प्रस्ताव को स्वीकार करने से मना कर दिया। उन्होंने बताया कि तुम सोचते हो कि तुम शादी बहुत धूमधाम से नहीं कर पाओगे। तो मैंने सोचा एक बार तुमसे मिला जाए।"

दुष्यन्त: "जी, भाईसाहब।"

चंद्रशेखर: "तुम क्यों चिंता करते हो। शादी की रस्मों जितना तो खर्च कर लोगे न? और न भी कर सके तो कोई समस्या नहीं है। जितना तुम कर सको कर लेना शेष मैं दे दूंगा। चाहो तो जगन्नाथ भाईसाहब आप, अरुणिमा और दुष्यन्त आराम से तीनों लोग जाकर परस्पर निर्णय ले लो। जैसा भी हो मुझे बता देना।"

तीनों एक अन्य कक्ष की तरफ चले जाते हैं।

अरुणिमा: "मुझे तो सही लग रहा है। आपको भी सोचना चाहिए। इससे बड़ी बात आखिर क्या होगी जब सामने वाला कह रहा है जहाँ कमी दिखेगी अपनी जेब से पैसा लगा देगा।"

दुष्यन्त: "जगन्नाथ भाईसाहब आप ही हमारी धर्मपत्नी जी को समझाइये कि छुरा तरबूज़ पर गिरे या तरबूज़ छुरा पर कटता तरबूज़ ही है। अरुणिमा तुम समझ नहीं रही हो शादी हो जाएगी फिर स्वरा को जीवन भर यही ताना, यही कटाक्ष, मारा जाएगा कि तेरा बाप तो तेरी शादी तक न कर सका। और फिर शादी के बाद क्या इन्हें पैसे न चुकाओगी अरुणिमा।"

अरुणिमा: "ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।"

जगन्नाथ: "दुष्यन्त तुम ज़्यादा न सोचो। स्वरा मेरी भी बेटी जैसी है, जहाँ कमी रहेगी मैं पूर्ती कर दूंगा। तुम एक बार लड़का तो देख लो।"

अरुणिमा: "पर भाईसाहब, लड़का देखने भर से लड़के की जाँच कैसे कर पाएंगे। क्या पता लड़का पहले से मलेशिया में शादी शुदा हो फिर? स्वरा का जीवन तो नर्कमयी हो जाएगा।"

जगन्नाथ: "चलो पहले बाहर चलो वरना वो सोचेंगे कि जाने क्या ऐसा विचार विमर्श चल गया। बाकी प्रश्नों का समाधान बाहर चलकर ही खोजते हैं।"

इसी के साथ तीनों बाहर वाले कक्ष में आ जाते हैं।

चंद्रशेखर: "फिर क्या निर्णय लिया आप लोगो ने? मेरी मानों तो एक बार लड़का भी देख लो। फिर अपना निर्णय बता देना। अगले महीने की 15 तारीख़ को मेरा बेटा अथर्व मलेशिया से वापस आ रहा है।"

जगन्नाथ: "बाकी सब ठीक है, लेकिन क्षमा करिएगा चंद्रशेखर बाबू, लड़के का वहां कोई किसी से प्रेम सम्बन्ध तो नहीं। कैसे जाँच करें ये भी एक समस्या है।"

चंद्रशेखर: "तब ही तो बड़े बुज़ुर्ग कहते थे कि विवाह परिचितों में करना चाहिए। और सबसे मुख्य बात, मैं और उसकी माँ अभी जीवित हैं। ऐसी वैसी कोई बात नहीं है। आप हमपे तो कम से कम भरोसा कर सकते हो।"

दुष्यन्त: "जी ठीक है हम आते हैं 15 को आपके घर।"

चंद्रशेखर: "अच्छा तो मुझे आज्ञा दें। जय श्री कृष्णा।"

दुष्यन्त और अरुणिमा हाथ जोड़कर एक साथ जय श्री कृष्णा भाईसाहब बोलकर अभिवादन करते हुए उन्हें विदा करते हैं।

अगले महीने की 15 तारीख आने पर चंद्रशेखर दुष्यन्त और अरुणिमा को बुलावा भेजते हैं। दुष्यन्त और अरुणिमा चंद्रशेखर बाबू के पुत्र अथर्व को देखकर अत्यंत प्रभावित हो जाते हैं। पार्वती के अनुरोध पर स्वरा और अथर्व एक दूसरे से मिलकर पसंद भी कर लेते हैं। आखिर नियति में जिनका मिलना तय हो वो मिलकर ही रहते हैं फिर दुष्यंत बाबू की क्या सामर्थ्य जो नियति से लड़ पाते अतः नियति के समक्ष नतमस्तक होकर दुष्यंत बाबू उस रिश्ते को मंज़ूरी दे ही देते हैं।

अब बात शुरू होती है लेन देन की। मुखरता से अपनी बात रखने वाले दुष्यन्त बाबू दो टूक में चंद्रशेखर बाबू को अपना भावी व्यय समझा देते हैं। लेकिन चंद्रशेखर बाबू दुष्यन्त बाबू से फिर भी बजट बढ़ाने का अनुरोध कर देते हैं। चंद्रशेखर बाबू के बजट बढ़ाने के अनुरोध पर सभ्य नोक-झोंक में दुष्यन्त बाबू अपनी आय का लिखित प्रमाण भी दिखा देते हैं जो स्पष्ट करता है कि दुष्यन्त बाबू का बजट जितना बड़ा था उतनी ज़्यादा उनकी आय न थी, अर्थात न जाने कितने वर्षों की वो बचत रही होगी और फिर आगे दूसरी बेटी स्वस्ति का विवाह भी तो होना था उसके लिए कहाँ-कहाँ हाथ फैलाते डोलेंगे ये डर उनके मन में अंदर तक बैठ गया था। लेकिन चंद्रशेखर बाबू की बात दुष्यन्त बाबू सिर्फ इस वजह से स्वीकार कर लेते हैं कि उन्हें अथर्व के प्रभावी व्यक्तित्व के चलते स्वरा का भविष्य उज्जवल होने का विश्वास था। विवाह संपन्न हुआ। अथर्व और स्वरा दोनों परिणय सूत्र में सदैव के लिए बंध गए। विवाह में बजट के बाहर अतिरिक्त धन भी लग जाता है जिसे चंद्रशेखर बाबू अपनी जेब से लेनदारों को चुका देते हैं। उनके इस आचरण से प्रभावित होकर दुष्यन्त अपने मन में उनकी बुरी छवि को अच्छी में परिवर्तित करके उन्हें समधी से ज़्यादा सहोदर बड़े भाई जैसा मान लेते हैं और धीरे-धीरे पाई-पाई बचत करके विवाह में लगा अतिरिक्त धन भी चंद्रशेखर बाबू को चुका देते हैं।

समय निकलने लगता है। स्वरा के पास पासपोर्ट न होने के चलते, उसके पासपोर्ट का आवेदन करके, अथर्व अकेला ही मलेशिया वापस लौट जाता है। जैसा अनुभवी व्यक्ति कहते हैं कि चार बर्तन एक साथ रखे जाने पर वो आपस में खटकते भी हैं अतः स्वरा के अपने ससुरालियों के लिए पूर्ण समर्पण और साफ़ नीयत होने के बावजूद भी उसे उलाहनाए मिलनी शुरू हो जाती हैं। एक-एक बात विकृत करके अथर्व तक पहुंचाई जाने लगती है। अथर्व भी अपने विवेक पर अज्ञान का पर्दा डालकर एक एक बात पर ऐसे भरोसा करने लगता है जैसे कोई सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहन करने वाले की मानता है। अतः परिणामस्वरूप स्वरा और अथर्व के रिश्ते में धीरे-धीरे विष घुलने लगता है। चंद्रशेखर बाबू स्वरा के लिए यदि कोई छोटे से छोटा काम भी कर देते तो उसका श्रेय लेने के लिए उसे बढ़ा चढ़ा कर सभी के समक्ष प्रस्तुत कर देते। एक दिन किसी बात पर स्वरा और उनके ससुरालियों के बीच मन मुटाव इतना बढ़ जाता है कि स्वरा के ससुर चंद्रशेखर बाबू दुष्यन्त और उनकी धर्मपत्नी अरुणिमा को अपने घर बुलावा भेज देते हैं। जैसे ही दुष्यन्त और अरुणिमा का प्रवेश स्वरा के ससुराल में होता है चंद्रशेखर बाबू अपनी चातुर्यता से पूरे प्रकरण को एक तरफ़ा करके उन दोनों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चद्रशेखर बाबू की उस प्रकरण की प्रस्तुति श्रोतागणों को ये मानने पर विवश कर सकती थी कि चंद्रशेखर बाबू और पार्वती अत्यंत निर्दोष हैं। दुष्यन्त बाबू और अरुणिमा अपनी सुपुत्री के मन की व्यथा भाँपते हुए भी चद्रशेखर भाईसाहब की उस प्रस्तुति के समक्ष केवल बिटिया के भविष्य का सोचकर किसी भी वाद-विवाद से बचते हुए स्वरा को ही समझा कर वापस आ जाते हैं। चंद्रशेखर और पार्वती भी अपने उस कृत्य पर अत्यंत प्रसन्न हो जाते हैं। स्वरा की स्पष्टवादिता से रुष्ट ससुरालियों ने अथर्व और स्वरा के माँ-पिता के मन में जो स्वरा के लिए ख़टास डाली थी उसके दूरगामी परिणामों से वो अवगत न थे। समय निकलता गया और धीरे धीरे चंद्रशेखर बाबू और पार्वती अपने असली रंग में आने लग गए। जगन्नाथ बाबू का पार्वती के लिए और दुष्यंत बाबू का चंद्रशेखर बाबू के लिए जो बुरा अनुभव था वो उससे भी कई हाथ आगे थे। अब तो जैसे कोई भी छोटा से छोटा मन मुटाव होता और चंद्रशेखर बाबू उसे दुष्यंत बाबू के घर तक खींच लाते। एक रोज़ ऐसे ही किसी मनमुटाव को चंद्रशेखर बाबू दुष्यंत बाबू के घर ये सोच कर खींच लाए कि स्वरा को उसके ही माँ पिता से डाँट पढ़वाई जाएगी, जो हमेशा होता भी था, लेकिन इस बार दाँव उल्टा पड़ गया। अरुणिमा ने स्वरा से पूछा आखिर बात क्या है? बिलख-बिलख पर रोती स्वरा पर उसकी माँ का दिल भी पसीज गया और जब स्वरा ने यथार्थ बताया तो अरुणिमा ने स्वरा का साथ देते हुए चंद्रशेखर बाबू को समझाया कि स्वरा एक बेटी की भूमिका में हमेशा रहती है। आज तक स्वरा ने आप लोगों के लिए कभी एक भी विपरीत शब्द प्रयोग नहीं किया, यदि आप उसे बेटी न भी मानें लेकिन बहू के तौर पर तो कभी-कभी उसकी बात भी सुन लिया करें। चंद्रशेखर बाबू को वो शिक्षा भी नागवार गुज़री और होना क्या था उन्होंने स्वरा के साथ साथ उसकी माँ अरुणिमा की भी छवि ख़राब करने का प्रण ले लिया। अनबने मन से चंद्रशेखर पार्वती, स्वरा को साथ लेकर वहाँ से प्रस्थान करते हैं।

चंद्रशेखर बाबू स्वरा का कोई भी प्रकरण इरादतन दुष्यन्त बाबू के घर ले जाते थे ताकि न केवल स्वरा और उसके मायके वालों के मध्य रिश्ते में ख़टास आये बल्कि उस प्रकरण को बताने में चंद्रशेखर बाबू की तेज आवाज़ से दुष्यंत बाबू की अड़ोस-पड़ोस में अपकीर्ति फैले। लेकिन इस बार जो अरुणिमा ने उन्हें सही शिक्षा दी थी वो शिक्षा चंद्रशेखर बाबू को उनके गाल पर बेआवाज़ झर्राटे दार थप्पड़ पढ़ने जैसी प्रतीत हो रही थी। विनाशकाले-विपरीतबुद्धिः।

अब तो जैसे चंद्रशेखर बाबू के सभी वाक्य लड़केवाला और लड़कीवाला पर केंद्रित होने लग गए थे। दुष्यंत और अरुणिमा को लड़कीवाला होने का एहसास करवा कर उन्हें छोटा महसूस करवाने का कोई अवसर चंद्रशेखर और पार्वती न छोड़ते थे। अथर्व के मन में तो जैसे अरुणिमा के लिए इतना भयंकर विष बोया जाने लगा था कि उस मूढ़ को स्वरा की माँ माँ-समतुल्य न लगकर किसी जानी दुश्मन जैसे लगने लग गई थी। धीरे-धीरे समय निकलने लगा स्वरा भी मलेशिया चली गई लेकिन वो जो दूरियाँ दोनों के बीच अथर्व के माँ-पिता ने बनाई थी उसके चलते हर दूसरे दिन अथर्व और स्वरा लड़ने लग जाते। एक रोज़ उन दोनों के एक प्यारा सा बेटा हुआ। उस नवजात के कारण धीरे धीरे अथर्व और उसकी धर्मपत्नी स्वरा के बीच मनमुटाव थोड़ा कम होने लगा जिसे चंद्रशेखर और पार्वती त्वरित भाँप गए। उनके अंदर का ज़हर, उनके बड़े होने और हमेशा के लिए उनके बेटे बहू के परस्पर रिश्ते ख़राब होने जैसा विवेक हरण कर चुका था अतः सही गलत का उन्हें अनुमान तक न था। उन्हें बस स्वरा एक शत्रु नज़र आती थी और उसको और उसके परिवार को बर्बाद करने के लिए वो अथर्व के मन मश्तिष्क में अविरत विष भरते रहते।

इधर दूसरी ओर दुष्यन्त और अरुणिमा अपनी छोटी बेटी स्वस्ति के लिए वर की तलाश में लग गए। ईश्वर की अनुकम्पा से स्वस्ति के लिए इंदौर में एक सुयोग्य वर 'समर्थ' भी मिल गया। स्वस्ति के माँ और पिता दोनों को समर्थ पसन्द आ गया। चंद्रशेखर बाबू ने दुष्यन्त को समझाया कि विवाह की बात अकेले नहीं करनी चाहिए इससे भविष्य में समस्या उत्पन्न हो सकती है अतः दुष्यन्त को किसी की मध्यस्थता में ही विवाह सम्बन्धी बातें करनी चाहिए। चंद्रशेखर ने स्वयं से ही अपना और अपनी धर्मपत्नी का नाम मध्यस्थ के लिए प्रस्तावित किया। दुष्यन्त ने उस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए चंद्रशेखर भाईसाहब और पार्वती भाभी को समर्थ के घर चलने को आमन्त्रित किया।

समर्थ के घर में प्रवेश लेने पर परस्पर अभिवादन का कार्यक्रम संपन्न होने पर समर्थ की माँ ऊषा ने अपनी उत्सुकता को शब्दों में व्यक्त किया:

ऊषा: "दुष्यन्त भाईसाहब, आपके साथ ये दोनों का परिचय?

दुष्यन्त: "भाभीजी, ये मेरी बड़ी बेटी स्वरा की सास पार्वती भाभी और ससुर चंद्रशेखर भाईसाहब हैं। ये दोनों मेरे समधी-समधन से बढ़कर मेरे सगे भाई और भाभी जी जैसे हैं।

ऊषा: "आप दोनों से मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई।"

चंद्रशेखर और पार्वती (दोनों एक साथ): हमें भी।

वार्तालाप का क्रम बढ़ना शुरू हुआ। ऊषा शादी के कार्यों में एक एक करके रस्में और रस्मों के नाम पर दुष्यन्त के जेब पर वज़न डालने लगी। दुष्यन्त कहीं भी उन बातों पर आनाकानी करते तो चंद्रशेखर भाईसाहब ऊषा का समर्थन कर देते। ऐसा करने से वो ऊषा और उनके परिवारियों के लिए भी ख़ास बनने लगे और उधर दूसरी ओर वो दुष्यन्त बाबू को अलग ले जाकर समझा देते "लड़के वाले हैं शादी ब्याह में लाख दो लाख का खर्चा तो ऊपर हो ही जाता है, तुम समर्थ और स्वस्ति के भविष्य का सोचो"

परस्पर वार्तालाप संपन्न हुई। समर्थ और स्वस्ति का विवाह संपन्न हुआ। यदि दुष्यन्त कभी भी अपने घर स्वस्ति के ससुरवालों को आमंत्रित करते तो ऐसा कभी न होता कि चंद्रशेखर भाईसाहब और पार्वती भाभीजी को आमंत्रित करना भूल जाते और आतिथ्य और प्रेम के लिए तो दुष्यन्त वैसे भी अपने पूरे मोहल्ले में प्रसिद्ध थे। समय कुछ व्यतीत हुआ कि स्वस्ति और उसके ससुरालियों के रिश्ते में ख़टास आने लगी। स्वस्ति की छोटी छोटी आवश्यकताओं पर रोक-टोक की जाने लगी। दुष्यन्त और अरुणिमा इस बात को लेकर स्तब्ध थे कि अचानक ये परिवर्तन कैसा। स्वस्ति का गर्भाधान हुआ कि स्तिथि और भयावह हो चली। बात बात पर ताना, बात बात पर उलाहनाएँ। स्वस्ति को किस कर्म की सजा मिल रही है इस बात को समझना स्वस्ति जैसे बालमन वाले लोगों के बस से बाहर की बात थी। स्वस्ति के गर्भ से एक प्यारी दैवीय सुन्दरी नवजात कन्या ने जन्म लिया। कन्या के जन्म लेने के बाद तो जैसे प्रेमचंद युगीन भारतीय समाज की स्याह तस्वीर का चित्रण धरातल पर दिखने लग गया। समर्थ स्वस्ति और उस 15-20 दिन की नवजात दोनों को स्वस्ति के मायके दुष्यन्त बाबू के घर छोड़ गया और उन दोनों की सुध-बुध तक लेना बंद कर दिया। बात इतनी विकृत हो चली कि दुष्यन्त को स्वस्ति के भविष्य के लिए कानूनी सहायता लेनी पड़ गई। समर्थ के परिवारियों ने भी जबाव में निर्दोष अरुणिमा को ये कह कर खींच लिया कि लड़की की माँ लड़की को भरती रहती है। भारतीय विधि के प्रकोप से प्रतिवादी को बचाने के लिए नए-नए वकीलों को कोई दाँव पेंच नहीं मिल रहे तो वो लोग लड़की की माँ को आधार बनाकर अपनी दुकानों को चला रहे हैं फिर भी जाने किस जन्म के पाप थे जो दुष्यन्त बाबू और अरुणिमा जैसे सभ्य व्यक्तियों के भाग्य में साँप की भाँति कुण्डली मार कर बैठ गए थे। समय निकला कि एक रोज़ समर्थ ने स्वस्ति को बताया कि ये बात इतनी विकृत इसलिए हुई क्योंकि स्वरा के ससुर समर्थ की माँ ऊषा से घण्टों बात करने लग गए थे। उस घण्टों-घण्टों की बात में वो स्वरा जैसी प्यारी और होनहार निर्दोष लड़की की बुराई करते रहते और इतना ही नहीं अपने चचेरे भाई दुष्यन्त और उनकी धर्मपत्नी अरुणिमा तक को नहीं छोड़ते थे। अरुणिमा के लिए ऊषा के मन में विष भरने का श्रेय भी चंद्रशेखर बाबू को ही जाता है। साथ ही ये भी चंद्रशेखर बाबू ही थे जिन्होंने हमें साहस दिया था कि कुछ भी कर लो किन्तु दुष्यन्त किसी भी परिस्तिथि में विधिक सहायता की स्वप्न में भी नहीं सोच सकता, जिससे हमें और साहस मिला था। लेकिन उस कानूनी सहायता के बाद से चंद्रशेखर बाबू से माँ का कोई भी कैसा संपर्क न हुआ है।

एक रोज़ ये सभी बातें स्वस्ति अपने पिता को बता देती है। दुष्यन्त को अब सब स्पष्ट होने लगा कि अरुणिमा को स्वस्ति और समर्थ के झगड़ों में क्यों खींचा गया था क्योंकि चंद्रशेखर भाईसाहब को एक रोज़ अरुणिमा ने दर्पण दिखाने का कार्य कर दिया था। दुष्यन्त को एक ओर तो ये स्मरण हो रहा था कि उसने चंद्रशेखर भाईसाहब को सही पहचाना था और स्वरा के लिए रिश्ता ठुकराकर उचित निर्णय ही लिया था तो दूसरी ओर उसे गुस्सा आ रहा था कि आखिर क्यों और कैसे उसने चंद्रशेखर की यथार्थ छवि अपने मस्तिष्क में परिवर्तित करके उन्हें एक अच्छा व्यक्ति मान लिया था। उसे याद आ रहा था कि कैसे चंद्रशेखर बाबू और पार्वती भाभी ने उसे अपने शतरंज में प्यादे की भाँति प्रयोग करके दोनों बेटियों का जीवन नर्कमयी कर दिया। ऐसा तो कोई चाण्डाल भी किसी के साथ करने से डरेगा जो चंद्रशेखर बाबू और पार्वती भाभी ने रिश्ते में एक भाई के साथ किया था। दुश्मन भी दुश्मनी एक दायरे, एक सीमा, के अंतर्गत करता है पर हाय ये निकृष्ट इंसान। इसकी अन्तरात्मा ने क्या इसको नहीं धिक्कारा। आखिर किसने इसे ऐसा अधिकार दिया कि किसी दूसरे व्यक्ति की दोनों बेटियों का जीवन नर्कमयी करके रख दिया। बचकाना प्रवृत्ति भी निर्दोष होती है पर इच्छापूर्वक दोषपूर्ण हरकतें नितांत घोर अपराध का परिचायक है। लेकिन इस विश्वासघात का परिणाम अच्छा न होगा। क्या आँखों की शर्म इतनी मर सकती है किसी इंसान की जो वो मेरा प्रेम मेरा आतिथ्य भाव सब एक झटके में भूल कर अपने वैयक्तिक द्वेष से मेरे अन्य परिवारियों के जीवन तक में विष की मिलावट करने पर उतर आया।

वही दूसरी ओर अरुणिमा को भी एहसास हुआ कि आखिर वही तो थी जिसने चंद्रशेखर बाबू के बेटे के साथ स्वरा के विवाह वाले निर्णय को ना से हाँ में परिवर्तित करने हेतु दुष्यन्त बाबू पर एक अलग ही भावनात्मक दबाव बनाया था। आज चन्द्रशेखर बाबू और उनकी धर्मपत्नी ने यह सिद्ध कर ही दिया कि वो अत्यंत नीच प्रवृत्ति के इंसान हैं।

समय व्यतीत होता रहा। स्वस्ति के बालमन और घोर अथक प्रयासों से पुनः स्वस्ति और उसके ससुरालियों के रिश्ते में कुछ सुधार हो गया लेकिन स्वरा के लिए तो जैसे जीवन भर का नर्क साक्षात् उसके पति के मन में उसके सास ससुर का भरा विष बन गया था। कुछ समय के बाद चंद्रशेखर बाबू की विवाहित बिटिया दीक्षा को उसके पति समग्र और उसके परिवारियों ने तमाम आरोपों का प्रत्यारोपण करके ससुराल से बाहर निकाल दिया। चंद्रशेखर बाबू और उनकी धर्मपत्नी की तमाम अनुनय विनय की प्रक्रिया भी जैसे समग्र के मन को पिघलाने में कामयाब न रही। चंद्रशेखर बाबू के तमाम रिश्तेदारों ने समग्र और उसके परिवारियों से खूब याचनाएं की किन्तु समग्र का दिल नहीं पसीजा। अंततः विवाह-विच्छेद की प्रक्रिया हेतु तमाम साक्ष्यों के साथ समग्र और उसके परिवारियों ने न्यायालय में वाद दायर किया जिसमें उन्हें सफलता मिली। इस निर्णय के आते ही चंद्रशेखर बाबू को दिल का दौरा पड़ा और उन्हें अस्पताल भर्ती करवाया गया। ये सूचना स्वरा के माध्यम से दुष्यन्त बाबू को प्राप्त हुई और उन्होंने तत्काल अरुणिमा को इस दुखद खबर से सूचित किया।

दुष्यन्त: "अरुणिमा, स्वरा के माध्यम से सूचना आई है कि चंद्रशेखर बाबू को दिल का दौरा पड़ गया।"

अरुणिमा: "क्या उनके पास दिल था?"

दुष्यंत: "अरुणिमा, ये सच है किन्तु कुछ भी हो हैं तो वो स्वरा के ससुराली।"

अरुणिमा: "किन्तु अचानक से दिल का दौरा कैसे पड़ सकता है।"

दुष्यंत: "स्वरा ने बताया कि दीक्षा-समग्र का विवाह विच्छेद हो गया।"

अरुणिमा: "चंद्रशेखर भाईसाहब की बेटी, अचानक से??"

दुष्यंत: "स्वरा ने बताया कि ये सब कई महीनों से चल रहा था लेकिन चंद्रशेखर भाईसाहब और भाभी ने स्वरा को इसे किसी के साथ साँझा न करने का दबाव बना रखा था।"

अरुणिमा: "लेकिन क्यों?"

दुष्यन्त: "समाज में झूठी प्रतिष्ठा के चलते।"

अरुणिमा: "न्याय चक्र कहते हैं इसे। दूसरे के परिवार में विष घोलने वालों के हाथ भी विष आता ही है और हाथ से शरीर के अन्दर जाने में फिर समय ही कितना लगता है।  स्वरा और स्वस्ति के वैवाहिक जीवन को बर्बाद करके भारत रत्न प्राप्ति जैसे आत्मीय संतुष्टि मिल रही थी उन्हें। बड़ा गर्व महसूस कर रहे थे। कर्म का सिद्धांत देखिये जो किया वो वापस कैसे नहीं मिलेगा। विवाहित बेटी का घर पर बैठना आज कैसा लग रहा होगा उन्हें, शायद उस समय की हमारी वेदना समझ सकें।"

दुष्यंत: "अरुणिमा यदि हम भी उनके जैसा सोचने लगेंगे तो उनमें हममे क्या अन्तर रह जाएगा अतः मुझे जल्दी से अस्पताल के लिए निकलना चाहिए।"

दुष्यंत तत्काल अस्पताल की ओर प्रस्थान करते हैं। चंद्रशेखर बाबू के कक्ष में प्रस्थान करते ही उनकी आँखें अश्रुओं से भर जाती है और दर्दभरी कांपती आवाज़ में कहते हैं:

दुष्यंत मुझे क्षमा कर देना। क्रोध और घृणा के आवेश में अपने पराये और सही गलत का विवेक खो गया था। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ लेकिन देखों ईश्वर का न्याय अविलम्ब दीक्षा और समग्र को अलग कर दिया। मेरे कर्म की सजा मेरी बेटी के भाग्य में क्यों लिखे गए? मुझे मेरे कर्म की सजा मिल गई है। तुम्हारा विश्वासघाती भाई पश्चाताप की अग्नि में धधक रहा है। स्वस्ति को ईश्वर सदैव प्रसन्न रखें। ऐसा बोल कर चंद्रशेखर बाबू की आखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। दुष्यंत की आँखें भी आँसू से भर गई थी कि अचानक चंद्रशेखर बाबू को एक ज़ोरदार दिल का दौरा पड़ा और उसका शरीर निश्चेत हो गया। चंद्रशेखर बाबू की अकस्मात मृत्यु ने स्वरा, पार्वती और दुष्यन्त के मन को इतना विह्वल कर दिया कि उनके क्रंदन ने कमरे के सन्नाटे को चीर कर रख दिया। न चंद्रशेखर बाबू का धन अंतिम समय उन्हें बचाने में कारगर रहा न उनकी झूठी मान मर्यादा। बेटी के सम्बन्ध विच्छेद का दर्द लिए उनकी आत्मा को मृत्युदेव अपने साथ ले चले थे।

 

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

आगरा, उत्तर प्रदेश

(दिनांक 03/दिसम्बर/2023 को लिखी गई एक कहानी)