लूथर बरबैंक एक सन्त गुलाबों के बीच“उन्नत किस्म के पौधे तैयार करने का रहस्य वैज्ञानिक ज्ञान के अलावा एक और भी है; वह है प्रेम ।” लूथर बरबैंक ने ज्ञान के ये शब्द तब कहे जब मैं कैलिफोर्निया में सैंटा रोज़ा स्थित उनके बगीचे में उनके साथ टहल रहा था । मनुष्य के खाने योग्य नागफनी की एक क्यारी के पास हम रुक गये ।
उन्होंने आगे कहाः “जब मैं कंटकहीन नागफनी की नस्ल तैयार करने का प्रयोग कर रहा था, तब मैं प्रायः इन पौधों के साथ बातें किया करता था, ताकि प्रेमपूर्ण स्पन्दन पैदा हो सकें । मैं उनसे कहता: ‘तुम्हें किसी प्रकार का भय रखने की आवश्यकता नहीं है। आत्म-रक्षा के लिये तुम्हें इन काँटों की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।’ और धीरे-धीरे रेगिस्तान का यह उपयुक्त पौधा इस कंटकविहीन नस्ल के रूप में उभर आया ।”
मैं इस चमत्कार पर मुग्ध रह गया । “प्रिय लूथर, माऊण्ट वाशिंगटन के अपने बगीचे में लगाने के लिये इस नागफनी के कुछ पत्ते कृपया मुझे प्रदान करें।”
निकट ही खड़ा एक माली कुछ पत्ते काटने के लिये आगे बढ़ा ही था कि लूथर ने उसे रोक दिया। ,
“स्वामीजी के लिये मैं स्वयं ही पत्ते काट देता हूँ।” उन्होंने मुझे तीन पत्ते दिये, जिन्हें बाद में मैंने अपने बगीचे में लगाया। उन्हें पौधे बनकर बढ़ते और फिर विशाल झाड़ी के रूप में परिवर्तित होते देखकर मैं खूब आनन्दित होता था।
इस महान् उद्यान-विज्ञानी ने मुझे बताया कि उनकी प्रथम उल्लेखनीय सफलता थी बड़े आकार का वह आलू जिसे उनके ही नाम पर अब बरबैंक आलू कहा जाता है। अपनी असीम प्रतिभा और अथक परिश्रम से उन्होंने प्रकृति के पौधों को वर्ण- संकर के द्वारा अधिक उन्नत कर सैंकड़ों नयी प्रजातियाँ संसार को दी हैं नयी बरबैंक किस्म के टमाटर, मक्का, स्क्वैश , चेरी, प्लम्स , नेक्टारिन, बेरी, पॉपी, लिली, गुलाब।
मैंने अपना कैमरा साध लिया जब लूथर मुझे अखरोट के उस प्रसिद्ध पेड़ के पास ले गये जिसे तैयार करके उन्होंने सिद्ध कर दिया कि नैसर्गिक क्रमविकास की गति को बहुत अधिक भी बढ़ाया जा सकता है।
उन्होंने कहाः “केवल सोलह वर्षों में यह पेड़ भरपूर फल देने लग गया। किसी प्रकार की सहायता के बिना, नैसर्गिक क्रम के अनुसार फल देने में इसे इससे दुगुना समय लगता।
इतने में बरबैंक की छोटी-सी दत्तक पुत्री अपने कुत्ते के साथ उछलती-कूदती बगीचे में आयी।
उसकी ओर हाथ दिखाते हुए प्रेम से लूथर ने कहा: “यह मेरा मानव-पौधा है। सारी मानवजाति को अब मैं एक विशाल वृक्ष के रूप में ही देखता हूँ, जिसे अपने उच्चतम विकास के लिये केवल प्रेम, खुली हवा और खुली जगह का प्राकृतिक वरदान तथा बुद्धि का उपयोग कर चुन चुन कर संकरित किये जाने की आवश्यकता है। मैंने स्वयं अपने जीवनकाल में ही पौधों के विकास की ऐसी आश्चर्यजनक प्रगति देखी है कि मुझे यह दृढ़ आशा हो गयी है कि यदि बच्चों को सादगी और विवेक के साथ जीना सिखाया जाय, तो यह संसार शीघ्र ही स्वस्थ और सुखी बन जायेगा। हमें प्रकृति और प्रकृति के स्रष्टा ईश्वर की ओर लौटना ही होगा।”
“लूथर, राँची के मेरे विद्यालय में खुले आकाश के नीचे चलते कक्षा-वर्गों को और आनन्द एवं सादगी से भरे वातावरण को देखकर आप अत्यंत आनन्दित होंगे।”
मेरे शब्दों ने उनके हृदय की सबसे नाजुक तार को छेड़ दिया। बच्चों की शिक्षा उनका सबसे प्रिय विषय था। उन्होंने मुझ पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उनकी गहरी, शान्त आँखों में उत्सुकता चमक रही थी ।
अंत में उन्होंने कहाः “आपके विद्यालय जैसे विद्यालयों से ही भावी युग के लिये कोई आशा की जा सकती है। प्रकृति से दूर और स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास का बचपन में ही गला घोट देने वाली हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धतियों के विरुद्ध मेरे हृदय में बगावत है। शिक्षा विषयक आपके व्यावहारिक आदर्शों के साथ मैं पूर्ण अन्तःकरण से सहमत हूँ।”
जब मैं उस विनम्र संत से विदा लेने लगा, तो उन्होंने एक छोटी-सी पुस्तक पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और वह पुस्तक मुझे भेंट कर दी।
- “The Training of the Human Plantt ( मानव तरु का प्रशिक्षण) पर यह मेरी प्रस्तक है। नये प्रकार के प्रशिक्षण के निर्भय प्रयोगों की आवश्यकता है। कभी-कभी दुस्साहसी प्रयोगों से ही फलों और फूलों के सर्वोत्तम गुण प्रकट करने में मुझे सफलता मिली है। इसी प्रकार बच्चों की शिक्षा के भी अधिक प्रयोग होने चाहिये और वे प्रयोग अधिकाधिक साहसी होने चाहिये,” उन्होंने कहा ।
मैंने उनकी छोटी-सी पुस्तक को उसी रात अत्यंत उत्सुकता के साथ पढ़ा। उनकी दृष्टि मावनजाति के उज्वल भविष्य की कल्पना कर रही थी। उन्होंने लिखा था: “इस पृथ्वी पर सजीव वस्तुओं में सबसे ज़िद्दी और बदलने में सबसे कठिन वह वस्तु पौधा है जिसकी प्रवृत्तियाँ स्थिर हो गयी हों याद रखिये कि इस पौधे ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की
युग-युगान्तर से रक्षा की है; यह पौधा वह चीज़ है जिसकी उत्पत्ति की खोज करते-करते यदि हम समय में अनादिकाल तक पीछे चले जायें तो पता चलेगा कि इसकी उत्पत्ति शायद चट्टानों से हुई थी; और कल्पनातीत रूप से इतने दीर्घ काल में शायद इस में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। क्या आप ऐसा समझते हैं कि इतने युग-युगान्तरों में विशिष्ट गुणधर्मों की या प्रवृत्तियों की बार-बार पुनरावृत्ति होने के बाद भी पौधे में अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं आ जाती–यदि आप उसे इच्छाशक्ति कहना चाहें ? और यह इच्छाशक्ति भी इतनी दृढ़ कि जिसकी तुलना नहीं हो सकती ! बल्कि ताड़ के पेड़ की कुछ जातियों जैसे कई प्रकार के वृक्ष ऐसे हैं, जिनमें कोई मानवी शक्ति आज तक कोई परिवर्तन नहीं ला सकी । पेड़पौधों की इच्छाशक्ति के सामने मनुष्य की इच्छाशक्ति कुछ भी नहीं है । फिर भी देखो इस पौधे की आजीवन ज़िद केवल उसके साथ एक नये जीवन को जोड़ देने से कैसे टूट जाती है ! केवल उस पर कलम बांध देने से, उसमें संकर करने से उसके जीवन में कैसा पूर्ण और शक्तिशाली परिवर्तन आता है। और जब उसकी ज़िद टूटकर उसमें यह परिवर्तन आ जाता है, तब वहाँ से आगे उसकी हर पीढ़ी में धैर्य के साथ देखरेख और अच्छे पौधों को चुनते जाकर उसमें आये परिवर्तन को स्थिर और दृढ़ कर दो । और इस प्रकार यह नयी प्रजाति अपना मार्गक्रमण शुरू करती है और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती, अपने पुराने स्वरूप पर नहीं जाती। उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति आखिर टूट जाती है और वह परिवर्तित हो जाता है।
“जब यही बात मानव - शिशु की संवेदनशील और लचीली प्रकृति पर लागू करनी हो, तब तो समस्या कहीं अधिक आसान हो जाती है।”
मेरा मन इस महान् अमेरिकी की तरफ खिंच गया और मैं बार-बार उनके पास जाने लगा। एक दिन प्रातःकाल जब मैं वहाँ पहुँचा, तो उसी समय पोस्टमैन भी वहाँ आ पहुँचा और उसने करीब हज़ार पत्र वहाँ डाल दिये । विश्व के सभी भागों से अनेकानेक उद्यान विशेषज्ञ उन्हें पत्र लिखते थे।
“स्वामीजी ! आपके यहाँ होने से मुझे बाहर बगीचे में जाने का वह बहाना मिल गया जिसकी मुझे तलाश थी,” लूथर ने विनोद से कहा। उन्होंने एक बड़ा दराज़ खोला जिसमें यात्रा-सम्बन्धी सैंकडों पत्रक थे।
“देखिये,” उन्होंने कहा, “यह है मेरा यात्रा करने का तरीका। अपने पेड़-पौधे और पत्रव्यवहार से यहाँ बँधा मैं विदेश यात्रा की अपनी इच्छा को इन चित्रों को बीच-बीच में देखकर ही पूरी कर लिया करता हूँ।”
मेरी कार उनके फाटक के सामने ही खड़ी थी । लूथर और मैं कार में बैठकर उस छोटे-से नगर की सैर पर निकले, जहाँ के बाग-बगीचे लूथर की अपनी विकसित की हुई गुलाब की प्रजातियों — सैंटा रोज़ा, पीचब्लो, बरबैंक गुलाब — से खिले हुए थे ।
इस महान् वैज्ञानिक ने पहले ही, एक बार जब मैं उनके यहाँ गया हुआ था, मुझसे क्रिया दीक्षा ले ली थी । “स्वामीजी, मैं पूर्ण भक्ति और निष्ठा के साथ क्रिया का नियमित अभ्यास करता हूँ,” उन्होंने कहा । योग के विभिन्न पहलुओं पर मुझसे अनेक अच्छे-अच्छे प्रश्न पूछने के बाद लूथर ने धीरे-धीरे कहाः
“ पूर्व के पास सचमुच ज्ञान के विशाल भंडार हैं जिसे पश्चिम ने अभी-अभी जानना शुरू किया है। ”
प्रकृति ने यत्नपूर्वक सम्हालकर रखे हुए अपने अनेक रहस्य बरबैंक के सामने प्रकट कर दिये । प्रकृति के साथ घनिष्ठ एकरूपता ने बरबैंक में असीम आध्यात्मिक श्रद्धा उत्पन्न कर दी ।
एक दिन कुछ संकोच के साथ ही उन्होंने मुझसे कहाः “कभी-कभी मुझे अनुभव होता है कि मैं अनंत शक्ति के बिल्कुल निकट हूँ।” अपने अनुभवों की स्मृतियों से उनका कोमल, सुन्दर मुखमंडल दीप्त हो उठा। “तब मैं अपने आस-पास के बीमार लोगों को और पौधों को भी, स्वस्थ कर सकने में समर्थ होता हूँ।”
फिर उन्होंने मुझे अपनी माँ के बारे में बताया जो धार्मिक प्रवृत्ति की निष्ठावान ईसाई महिला थीं। लूथर ने कहाः “माँ की मृत्यु के बाद अनेक बार वे मेरी अन्तर्दृष्टि के सामने प्रकट हुई हैं और मेरे साथ उन्होंने बातचीत भी की है।”
हम लोग अनिच्छापूर्वक ही उनके घर की ओर वापस मुड़े, जहाँ हज़ारों पत्र उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।
रास्ते में मैंने कहाः “लूथर, अगले महीने से मैं पूर्व और पश्चिम के ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने के लिये एक पत्रिका शुरू कर रहा हूँ। पत्रिका के लिये कोई अच्छा नाम चुनने में मेरी मदद कीजिए ।”
हमने कुछ नामों की थोड़ी देर चर्चा की और अन्त में “ ईस्ट-वेस्ट” (पूर्व-पश्चिम) नाम पर दोनों सहमत हो गये। जब हमने उनके अध्ययन-कक्ष में प्रवेश किया तो उन्होंने "विज्ञान और सभ्यता" पर लिखा अपना एक लेख मुझे दिया।
मैंने कृतज्ञतापूर्वक कहाः “यह ईस्ट-वेस्ट के प्रथम अंक में छपकर आयेगा।”
जैसे-जैसे हमारी मित्रता गहरी होती गयी, मैं बरबैंक को अपना “अमेरिकन सन्त” कहने लगा। ईसा के शब्दों को उद्धृत कर मैं कहताः “इस मनुष्य को देखो; इस में कोई छल-कपट नहीं है।” उनका हृदय अथाह गहरा था; विनम्रता, धैर्य और त्याग का उस हृदय को दीर्घ अभ्यास गुलाबो के बीच में स्थित उनका घर अयंत सादा था।
विलासिता की निरर्थकता एवं अपरिग्रह के आनन्द का उन्हें ज्ञान था । एक वैज्ञानिक के रूप में हुई अपनी ख्याति को वे जिस विनयशीलता के साथ वहन करते थे, उसे देखकर मुझे बारम्बार उन वृक्षों की याद आती थी जो पके फलों के भार से झुक जाते हैं। केवल फलहीन वृक्ष ही वृथा अभिमान के साथ सिर ताने खड़े रहते हैं।
१९२६ में जब मेरे इस प्रिय मित्र का निधन हुआ, तब मैं न्यू यॉर्क में था । अश्रुपात करते हुए मैं सोच कर रहा था: “उन्हें केवल एक बार देखने के लिये मैं यहाँ से सैंटा रोज़ा तक खुशी-खुशी पैदल चला जाऊँगा !” अपने आप को अपने कमरे में बन्द कर २४ घंटे मैं एकान्त में रहा; न अपने सचिवों से मिला और न मुझसे मिलने के लिये आने वालों से।
दूसरे दिन मैंने लूथर के एक बड़े फोटो के सामने उनके लिये वैदिक रीति से तर्पण किया। शरीर-तत्त्वों के उनके अनंत स्रोत में विलय के प्रतीक स्वरूप फूल, जल एवं अग्नि का तर्पण किया गया, तब मेरे अमेरिकी शिष्य हिंदू सूतक वस्त्र धारण किये वैदिक मंत्रों का घोष कर रहे थे। यूँ तो बरबैंक का पार्थिव शरीर सैंटा रोज़ा में उनके ही द्वारा अनेक वर्ष पूर्व लगाये गये एक लेबनानी देवदार वृक्ष के नीचे चिर विश्रांति ले रहा है, पर जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, उनकी आत्मा रास्ते किनारे उगने वाले प्रत्येक फूल में प्रतिष्ठित हो गयी है। कुछ समय के लिये प्रकृति की विराट् आत्मा में समा गये लूथर क्या सूर्योदय के साथ आते नहीं हैं और क्या हवाओं में उनका स्वर नहीं गूँज रहा है ?
उनका नाम अब साधारण बोलचाल का एक शब्द बन गया है। “वेबस्टर्स न्यू इंटरनेशनल डिक्शनरी” में "बरबैंक" शब्द को सकर्मक क्रियापद कहते हुए उसका अर्थ दिया गया है: “वर्ण संकर करना या कलम बाँधना (पौधे पर) । अर्थात् अच्छे तत्त्वों को लेकर और बुरे तत्त्वों को त्यागकर या अच्छे तत्त्वों के संयोग से सुधार करना (किसी भी प्रक्रिया में या संस्था में) ।”
यह परिभाषा पढ़कर मैं बोल पड़ा: “प्रिय बरबैंक ! आप का नाम ही अब अच्छाई का पर्यायवाची बन गया है !"