Up65 Nikhil sachan in Hindi Book Reviews by Agatha Christie books and stories PDF | यूपी 65 निखिल सचान उपन्यास समीक्षा

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यूपी 65 निखिल सचान उपन्यास समीक्षा

कहानी: 3.5/5
पात्र: 3.5/5
लेखन शैली: 4/5
उत्कर्ष: 4/5
मनोरंजन: 4/5

“वाह जी वाह! एक गुलजार साहब हुए हैं। और एक हुए हैं अमित कुमार पांडे। इतिहास में आज तक का सबसे दर्द भरा ब्रेक अप लेटर गुलजार साहब ने लिखा— ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है’। और उसके बाद पांडे जी ने लिखा – ‘मेरा सात सौ पिचहत्तर रुपिया, तुम्हारे पास पड़ा है, वो भिजवा दो, मेरा वो सामान लौटा दो’, मैंने कहा।”

निखिल सचान नई हिंदी के उभरते हुए कथाकार हैं और अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही वह एक लोकप्रिय और सफल उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो चुके हैं। वह आई.आई.टी. और आई.आई.एम. के पूर्व छात्र रहे हैं।

उपन्यास के प्रथम दो खंडों में उपन्यासकार ने छात्रों के परस्पर परिचय, कॉलेज परिसर में सीनियर छात्रों द्वारा जूनियर छात्रों की रैगिंग के अतिरिक्त, छात्रावास के कमरा नंबर 16 के छात्रों की मौज मस्ती तथा उनके आचार-विचार आदि का वर्णन किया है।

अगले खंडों में बीएचयू के कुलपति के परिचय के साथ-साथ परिसर में कबाड़ी बाबा के नाम से प्रख्यात एक ऐसे व्यक्ति का चित्रण किया गया है जो छात्रों की उचित-अनुचित सभी ज़रूरतों को पूरा करता है। उसके पास परिसर के प्रोफेसरों, कर्मचारियों और छात्रों का पूरा कच्चा चिट्ठा रहता है।

इसके बाद उपन्यास के प्रमुख पात्र निशांत और शुभ्रा की मित्रता, उनकी परस्पर नोकझोंक, परीक्षा की तैयारी, परीक्षा के लिए अस्सी पर्सेंट उपस्थिति की अनिवार्यता, इसके विरुद्ध छात्रों का पेन-डाउन मूवमेंट की तैयारी करना, नारेबाजी व विरोध प्रदर्शन, छात्र राजनीति और उसमें निशांत अर्थात नायक का विशेष रूप से सक्रिय होना दर्शाया गया है।

अनेक घटनाओं के पश्चात निशांत का विश्वविद्यालय से निष्कासन और छात्र विरोध तथा मेधावी छात्र होने के कारण प्राध्यापकों का समर्थन मिलना और निशांत का हॉस्टल लौट आना आदि जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। संक्षेप में यही उपन्यास का कथानक है। कथानक में कसावट उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है क्योंकि यह कहीं भी बोझिल और शिथिल नहीं है।

विवि परिसर से जुड़े हुए देश के विभिन्न प्रांतों से आए छात्रों की बोली, वेशभूषा, मन:स्थिति आदि एकता में अनेकता प्रस्तुत करते हैं। पात्रों के चयन में उपन्यासकार ने बहुत सावधानी बरती है। प्रत्येक पात्र का उपन्यास में अपना एक विशेष स्थान है और यह कहानी को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने में सहायक है। पात्रों के माध्यम से ही उपन्यासकार ने छात्रों और प्रोफेसरों की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की है और हमारी शिक्षा प्रणाली तथा परीक्षा प्रणाली की पोल खोल कर रख दी है।

‘यूपी 65’ में हिंदी भाषा के विविध रूप दिखाई देते हैं। इसमें विभिन्न प्रांतों की बोली के सुंदर उदाहरण देखने को मिलते हैं। जहां तक कानपुर इलाहाबाद और बनारस की बोली का प्रश्न है तो इनमें गालियों की भरमार है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे गालियों के बिना बात करना इन लोगों के लिए असंभव है। लोक जीवन में प्रयुक्त होने वाले शब्द जैसे गड्ड-मड्ड, बागड़-बिल्ले, लभिड़, पंगा, झपड़िया, भोकाल, भैरंट, बकर-पुराण, रट्टा मारना, जिजियाने लगना, बिदक गए आदि शब्दों का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है। यदि उत्तर भारतीय हिंदी के शब्द विशेष जैसे खा-खू, लड़-भिड़, चाय-वाय जैसे शब्द भी भाषिक सौंदर्य में वृद्धि करते हैं।

उपन्यास ‘यूपी 65’ बनारस के आई.आई. टी. परिसर से प्रारंभ होता हुआ अनेक घटनाक्रमों से गुज़रते हुए अंततः अभीष्ट उद्देश्य तक पहुंचने में समर्थ है।

मेरे विचार से उपन्यासकार ने जिस गाली बहुल भाषा का प्रयोग किया है उसे थोड़ा सभ्य बनाया जा सकता था।
उपन्यास के जिस सूक्त कथन ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह है – “नए सपने देखने के लिए सुस्ता लेना बहुत ज़रूरी है, बिना सोए सुस्ताए हम सुनहरे सपने नहीं देख सकते”।