Sam Bahadur - Movie Review in Hindi Film Reviews by Rita Gupta books and stories PDF | सैम बहादुर - मूवी रिव्यू

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सैम बहादुर - मूवी रिव्यू

सैम बहादुर

(I am fine)

दो फिल्में एक साथ रिलीज होती हैं। एक बायोपिक तो दूसरा अति मसालेदार बे सरपैर की। मुझे मसालेदार फिल्में कम ही पसंद आती है तो मैंने सोमवार के लिए सैम बहादुर के टिकट ऑन लाइन देखना शुरू किया। मैंने पाया कि इसके शो बहुत ही फालतू वक्त पर सारे मल्टीप्लेक्स में हैं, जैसे सुबह के साढ़े नौ बजे तो रात के साढ़े नौ बजे। बमुश्किल घर से दूर वाले एक मल्टीप्लेक्स में दोपहर का शो दिखा तो मैंने टिकट बुक कर लिया। किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप बनाने का खेल उसके शो टाइम पर भी निर्भर करता है। तो शुक्रवार को नई रिलीज मूवी देखने मैं अपनी मित्र के साथ सोमवार दोपहर पहुँची, तो आशा के विपरीत बहुत भीड़ दिखी। मेरी मूवी तीसरे तले पर थी और वो जानवरों वाली मूवी दूसरे पर। दूसरा तल्ला आते ही लिफ्ट लगभग खाली होने लगा, तो मैंने 20-25 वर्षीय उन बालकों से पूछ ही लिया कि,

“अरे असली हीरो की जगह तुमलोग वो जानवरों जैसे अभिनय को देखने जा रहे हो?”

तो एक ने मुझे हँसते हुए जवाब दिया,

“असली थ्रिल उसी में है आंटी”

सचमुच तीसरे तल्ले पर मेरी जैसी ही आँटियां दिख रही थी।

हालिया रिलीज़ कई फ़िल्मों के हिट हो जाने के ट्रेंड को देखते हुए ये मानने को मजबूर हो रही हूँ कि दर्शकों का टेस्ट वाक़ई बदल चुका है, जो मेरे जैसे दर्शकों के लिए नहीं बनी होती है। मेरा मानना है साफ सुथरी देश भक्ति फिल्में, असली हीरो के ऊपर बेहतरीन फिल्में खूब बनानी चाहिए। पर मैं और मेरी जैसी पसंद अब आउट ऑफ फैशन है। ट्रेंड है- डार्क, क्रूड, अति अति अति हिंसा भरी कहानियों की। काल्पनिक विकृत मानसिकता वाले बिगड़े सनकी चरित्रों की। ऐसी फिल्मों को देख जाने दर्शक किस प्रकार का मनोरंजन पाते है? ये तुलना जरूरी है इस समीक्षा को लिखते वक्त कि एनीमल जैसी फिल्में बढ़े हुए दाम के साथ सुपर हिट हो जाती हैं और सच्चे हीरो की संवेदनशील फिल्म फ्लॉप की श्रेणी में गिर जाते हैं। कबीर सिंह के साथ ही हिन्दी फिल्मों में एक नए चरित्र- क्रूर नायकों का उदय हुआ है।

हाँ, तो बात हो रही थी, सैम हॉरमुसजी फेमजी जमशेदजी मानेकशॉ जिन्हें ‘सैम बहादुर’ के नाम से भी जाना जाता है, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष थे और फील्ड मार्शल का पद धारण करने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी थे। उनकी सक्रिय सैन्य करियर द्वितीय विश्वयुद्ध से आरंभ होकर चार दशकों और पाँच युद्धों तक विस्तृत रहा। इस महान विभूति के विषय आज के बच्चों को अवश्य जानना चाहिए उनके बारे में। शुक्र है कि ऐसी पिक्चरें भी अभी बन रही है।

ये मूवी इन्हीं की जीवनी है। ये कहानी है एक जाँबाज फौजी अफसर की और उस वक्त की राजनैतिक परिवेश की।

कहानी की शुरुआत होती है मानेकशॉ के जन्म से, जहां उसके माता-पिता उसका एक अलग नाम रखना चाहते थे। उसके बाद 1932 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून के पहले दल में शामिल होने से लेकर देश के पहले फील्ड मार्शल के पद तक पहुंचते हुए कहानी कई उतार-चढ़ावों से गुजरती है। मानेकशॉ की जवानी की शरारतों से लेकर युद्ध के मैदान में शूरता का प्रदर्शन करने तक कहानी कई कालखंडों में विभाजित की गई है। सैम और याह्या खान(जीशान अयूब खान) बंटवारे से पहले भारतीय फौज का हिस्सा थे, दोनों के बीच गहरा याराना भी था। विभाजन के बाद याह्या पाकिस्तान की सेना का हिस्सा बने। हालांकि, मोहम्मद अली जिन्ना ने मानेकशॉ के सामने पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बनने की पेशकश भी करते हैं, मगर मानेकशॉ हिंदुस्तान को चुनते हैं।

कहानी का एक प्रसंग मैं यहाँ शेयर करना चाहती हूँ,

एक मोटरसाइकिल के बदले ले लिया आधा पाकिस्तान…

सैम मानेकशॉ का पाकिस्तानी राष्ट्रपति से भी जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर हैं। दरअसल, मानेकशॉ और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान एक साथ फौज में थे और दोस्त हुआ करते थे।
 उस समय मानेकशॉ के पास एक यूएस मेड मोटरसाइकिल हुआ करती थी। देश का बंटवारा हुआ तो याह्या खान पाकिस्तान फौज में चले गए। वहीं, मानेकशॉ भारत में रहे।

लेकिन याह्या खान ने जाते-जाते मानेकशॉ से ये अमेरिकी मोटरसाइकिल 1000 रुपए में खरीद ली। लेकिन पैसे नहीं चुकाए। समय बीतता गया। मानेकशॉ भारत के आर्मी चीफ बने तो पाकिस्तान में याह्या खान ने सरकार का तख्तापलट कर राष्ट्रपति बन गए।

1971 की जंग में पाकिस्तान के सरेंडर करने के बाद मानेकशॉ ने कहा था कि याह्या ने आधे देश के बदले में उनकी मोटरसाइकिल का दाम चुका दिया।

अभिनय

यदि अभिनय की बात करे तो इस मूवी में सिर्फ और सिर्फ विक्की कौशल का कुशल अभिनय है। यदि आपने असल मानेकशॉ के चित्र और विडिओ देखे हैं तो फिल्म के दौरान कुछ वक्त के बाद विक्की आपको दिखना बंद हो जाएंगे सिर्फ और सिर्फ मानेकशॉ ही दिखते रहेंगे। अभिनय की ऊंचाइयों को छू लिया है। उरी, सरदार उधम और अब ये मूवी कर लगता है ये आज के मनोज कुमार हो गए हैं। लाजवाब है हर भाव-भंगिमा, सिर्फ इस चरित्र के लिए ये मूवी देखी जानी चाहिए।

नाच-गाने के शौकीनों को निराशा मिलेगी। एक गाना 'बढ़ते चलो, बंदा, दम है’ जो देश के विभिन्न ‘वॉर क्राइ’ को ले कर रची गई है बहुत ही जोशीला है, हो भी क्यूँ नहीं गीतकार गुलजार साहब जो हैं।

कमियाँ-

हमारी आदत है जो बुरा है उनमें हम और बुराई नहीं खोजते हैं पर अच्छे में अवश्य बुराई ढूंढ निकलते हैं। ये फिल्म एक बड़े काल-खंड को समेटे हुए है, घटनाएं और सेट टुकड़े टुकड़े में हैं, लेकिन संरचना एपिसोडिक है। यह बायोपिक्स के लिए एक स्थाई समस्या है; जब अंतर्निहित कथा तथ्य है तो घटनाओं को कल्पना की गति कैसे दी जाए? इससे मेघना गुलजार भी गुजरी हैं।

मुख्य-चरित्र इतना हावी है, इतना चमकदार है कि अन्य सभी सितारों की चमक फीकी है। दंगल मूवी की दोनों बहने इसमें हैं। सबसे ज्यादा दुख पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के चरित्र को देख कर हुआ जिसे फातिमा सना ने निभाया है। शायद उन सी ओजस्विता हम चरित्र में भी खोज रहे थे।

मूवी काफी शानदार शानदार अंत लेती है। उनके अंतिम शब्द- I am fine (मैं ठीक हूँ) मेरे साथ घर तक चले आयें।

पात्र

विक्की कौशल, फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, नीरज काबी, गोविंद नामदेव,मोहम्मद जीशान अयूब

डायरेक्टर : मेघना गुलजार

अवधि:2 Hrs 30 Min

संगीत- शंकर-एहसान-लॉय

गीतकार- गुलजार

रीता गुप्ता