Prem Gali ati Sankari - 102 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 102

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प्रेम गली अति साँकरी - 102

102 ----

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मुझे बाहर ही खड़ा करके प्रमेश बर्मन अपनी गाड़ी लेने अंदर चला गया | मुझे फिर उत्पल याद आ गया | कैसा नाटक करता है वह जब कभी उसके साथ मेरा बाहर जाना होता है | मुझे उसकी इन्ही बातों से ही तो प्यार हो गया था| जाने कितनी बार चुपके से कानों में फुसफुसा देता;

“आपकी माँग भरने का मन करता है----” फिर मुँह घूम लेता| 

“क्या—क्या कह रहे हो उत्पल ? ज़ोर से बोलो न, कुछ सुनाई नहीं दिया---”मैं सब सुन लेती थी वह कितनी भी धीमे से बोले तब भी लेकिन दिखाती ऐसे थी मानो मैंने कुछ सुन ही नहीं| 

“कुछ नहीं, मैं तो गाना गुनगुना रहा था----”फिर चुप्पी लगा जाता था| 

जबसे उसने अपने यू.के के अफ़ेयर्स के बारे में बताया था और हम दोनों में मौन पसर गया था। उसके बाद वह ऐसा कुछ नहीं बोला था लेकिन मैं तो उसका मन पढ़ लेती थी न!

‘कैसा रूखा है प्रमेश का व्यवहार?’ मन में एक बार फिर से आया | उत्पल का शैतानी से मुझ पर फूलों की टहनी हिला देना, लगता मैं सुरभित हो उठी हूँ| मैं उसे हर बार दिखावटी नाराज़गी दिखाती लेकिन मन ही मन उसकी उस शैतानी से भीग उठती| मन करता, भूल जाऊँ सब कुछ और उससे जाकर चिपट जाऊँ| जो बात खुशी दे, उसमें बह जाना बड़ा आसान होता है क्योंकि मन तो उसी में लिप्त रहता है लेकिन मेरे लिए आसान नहीं था| कठिन पर कठिन होता जा रहा था| 

“आइए---”प्रमेश मेरे पास तक गाड़ी ले आया था और अपनी ड्राइविंग सीट के पास की सीट पर मुझे बैठने के लिए कह रहा था| मैंने बाहर से अपने आप दरवाज़ा खोला और आगे की सीट पर सिमटकर बैठ गई| अच्छा नहीं लगा मुझे, इतनी कर्टसी तो होनी चाहिए कि वह कम से काम गाड़ी से बाहर आकर मेरे लिए गेट खोलकर मुझे अंदर बैठने की मनुहार करता| 

अभी तक मेरे सारे मित्र और मैं जिनके साथ मिली थी, सब इतनी रिगार्ड तो रखते ही थे| वो भी जिनके साथ मैं कभी इस इरादे से बाहर गई थी कि शायद आगे कुछ बात बन जाए| लेकिन यह बंदा तो मेरे सामने भी अपनी आचार्य की प्रतिष्ठा झाड़ने के मूड में था जैसे| बिलकुल अच्छा नहीं लगा मुझे, आदतें बिगड़ी हुईं थीं न ! पलकों में भीनापन आ गया तब मैं चौंकी और आज प्रमेश से खुलकर बात करने का मन बना लिया| मन ही मन अपना निर्णय सोच लिया| मन यह भी सोच रहा था ये क्या बेवकूफी है? किसके साथ बंधने की सोच रही हूँ और किसी दूसरे को याद करना---क्या यह ठीक था? मेरी स्वयं की दृष्टि में भी ठीक नहीं था| मर्यादा तो हर रिश्ते में होनी ही चाहिए, मन सोचता फिर भी असमर्थ रहती उत्पल को मन से निकालने में | समाज में इसे चरित्र से जोड़ दिया जाता है| इससे तो बेहतर था कि मैं उसके साथ ही जीवन निर्वाह करने का निश्चय कर लेती, मैं जानती थी कि वह फूला न समाता, समाज भी दो-चार दिन भुनभुन करके चुप हो जाता | अम्मा-पापा को थोड़ा दुख होता लेकिन मैं जानती थी कि उन्हें आभास है कि उत्पल का मेरी ओर आकर्षण है, और पापा लोगों को, समाज को उत्तर देना अच्छी तरह जानते थे | प्रश्न मेरे मन का सबसे अधिक तकलीफ़ देता था, क्या मैं उसकी जरूरतों को पूरा कर पाती?

“कहाँ चलना चाहेंगी ?” अचानक संस्थान से निकलकर सड़क पर गाड़ी टर्न करते हुए प्रमेश ने पूछा| 

“जहाँ आपको ठीक लगे---”मैं आनमनी थी| 

न बात, न म्यूज़िक, न कोई रोमांस, सब कुछ सपाट ---प्रमेश के चेहरे जैसा| मुझे पता नहीं, हम कहाँ आ पहुँचे थे। प्रमेश ने गाड़ी रोक दी और मैंने देखा गाड़ी किसी अच्छे से रेस्टोरेंट के आगे खड़ी थी | हम पूरे रास्ते कुछ ऐसे आए थे जैसे किसी के शोक में जा रहे हों| 

“आइए---” प्रमेश अपनी बैल्ट खोलकर उतर गया था| 

मैंने चुपचाप अपनी बैल्ट खोली, पास रखा हुआ अपना बैग उठाया और गाड़ी से उतर गई | चारों ओर नज़र घुमाने पर रेस्टोरेंट का वातावरण अच्छा लगा, यानि ठीक ठाक ---

प्रमेश आगे-आगे चल दिया मुझे पीछे आने का इशारा करते हुए| मैं डेट पर आई थी?मन पर चोट लगने लगी| यह कितना बड़ा प्रहार है कि आपका साथी आगे-आगे बढ़त जाए और आपको इशारा भर कर दे| एक प्रकार की बेइज्ज़ती ही थी न?

वह समय नहीं था कि मैं बहस करती अथवा अच्छे-बुरे का पाठ पढ़ाती| अब हम दोनों रेस्टोरेंट के भीतर बैठे अपने जीवन को’डिस्कस’ करने की शुरुआत करने की कोशिश कर रहे थे| कहीं से शुरुआत तो करनी थी किन्तु समझ में नहीं आ रहा था कैसे? मेनू-कार्ड सामने था, प्रमेश ने कार्ड मेरी ओर सरका दिया;

“अमी जी ! देखिए आप क्या लेंगी ?”

“कॉफ़ी---हॉट कॉफ़ी---”समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं इसके साथ कॉफ़ी पीने आई हूँ या---इतने समय से हम साथ में थे लेकिन ऐसी चुप्पी लगे बैठे थे जैसे बिलकुल एक-दूसरे से अपरिचित हों---वैसे थे भी कहाँ परिचित---

“कुछ स्नैक्स---आइ एम हंगरी, डोन्ट यू ?”

मैंने‘न’में गर्दन हिला दी| 

“हमको जानना चाहिए कि एक-दूसरे का क्या पसंद है?”प्रमेश ने बोला और अपने लिए सैंडविच का ऑर्डर दे दिया| 

मैं उसका मुँह देखती हुई बैठी रही, क्या आदमी है!मुझे अपने बारे में कुछ बताने, अपनी रुचि के बारे में , अपना लाइफ़-स्टाइल बताने की जगह वह क्या बकवास कर रहा था| 

“आई बिलीव इन फ़ैमिली लाइफ़” फिर से यही?कितनी बार?

‘हाँ, तुम बहुत सज्जन पुरुष हो!’मन में फुसफुसाई मै!कितनी बार यही प्रमाणित करना चाहता है यह ?आखिर इसका मकसद क्या है| 

“आप कई बार इस बात को देहरा चुके हैं, आप कुछ और कहना चाहते हैं क्या?”अब मुझसे रहा नहीं गया| 

“नो—नो आइ जस्ट----”वह खिसिया सा गया| अच्छा था उसके सामने सैंडविच आ गए थे| सैंडविच की प्लेट के साथ एक खाली क्वार्टर प्लेट थी| लड़का दो मिनट के लिए खड़ा रहा फिर वहाँ से चला गया| 

“प्लीज़ सर्व मी, ”प्रमेश ने खुद कॉफ़ी की सिप लेते हुए सैंडविच की ओर इशारा करते हुए कहा| 

उसकी टोन में एक ऑर्डर था| क्या मैं उसकी बीबी थी या फिर गुलाम? बेइज्ज़ती और क्रोध के मारे मेरा खून खौलने लगा| मेरे सामने कॉफ़ी रखी ठंडी हो रही थी और मैं उसे घूरते हुए बैठी रही| 

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