Kaise Kitne Saanp Mile Kaise Kitni Seedhiyan in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | कैसे कितने सांप मिले कैसे कितनी सीढ़ियां

Featured Books
Categories
Share

कैसे कितने सांप मिले कैसे कितनी सीढ़ियां



मेरे पाठकों , मैं इस समय अपनी उम्र की सत्तरवीं सीढ़ी पर पहुँच चुका हूँ | अब सब कुछ समेटने का समय आ चला है तो उन सभी का शुक्रिया अदा करना भी अपना धर्म बनता है जिन कुछ लोगों ने मुझे सांप बनकर काटना चाहा ...(और इससे मुझे बच निकलने की सीख मिली ) .तो कुछ ने सीढियों की तरह कभी सहारा बनकर माँ की थपकियों जैसी थपकियाँ देकर दुलराया , सांत्वना दिया कि संकट क्षणिक आपदा होती है उससे डरो नहीं उसका सामना करो , पिता की तरह हमेशा अच्छी राह दिखाई , भाई की तरह टूटने के दौर में अपना कंधा दिया और मित्र की तरह सुख दुःख में साथ रहे |...और हाँ सीढ़ी की तरह हमेशा मुझे ऊपर , और ऊपर जाने के लिए प्रेरित करते रहे | क्या मैं उन सभी को याद कर पा रहा हूँ ? शायद हाँ ..शायद नहीं ! उम्र पर स्मृतियों का धुंधलापन जो चढ़ने लगा है !...और हाँ , ये सांप और सीढी वाली बात प्रतीकात्मक है , यह तो आप समझ ही रहे है !
अपनी कच्ची उम्र में रेडियो से जुड़ने की हसरत लिए जब मैं 1974 में आकाशवाणी गोरखपुर के निदेशक ( स्व. ) इंद्र कृष्ण गुर्टू के कमरे में गया और उनका आतिथ्य भाव देखा तो गदगद हो गया |याद करता हूँ उन दिनों को तो श्रद्धा से माथा झुक जाता है | उन्होंने चाय पिलाई ,मुझे सुना ..खूब सूना और फिर रेडियो के लिए लिखने के लिए कहा | उनके ही समय में मैंने वर्ष 1975 में रेडियो के लिए ड्रामा का आडीशन पास किया ( मेरी फाइलों में दि. 25 - 02- 1975 को जारी उसका रिजल्ट अब भी मौजूद है ).....हाँ हाँ वही और वैसा ही ड्रामा आडीशन जिसमें कभी बीसवीं सदी के महानायक बने अमिताभ बच्चन पास नहीं हो सके थे | वहीं नियुक्त सहायक सम्पादक और कम्पेयर श्री हरिराम द्विवेदी ने उसी दौर में रेडियो प्रोडक्शन के कुछ गुण सिखाने की भी असफल कोशिश की थी उनका भी आभारी हूँ |नया - नया केंद्र था और स्टाफ की भर्तियों का दौर था |हर बिचौलिये की पौ बारह थी |रोज़ किसी को मुर्गा खिलाया जा रहा था तो किसी के आगे पीछे दुपट्टा लहराया जा रहा था | नियुक्ति पाने वाला हर आकांक्षाधारी नौजवान युवक युवती एक दूसरे को संदेह से देख रहे थे और भरसक रास्ते से हटा देने की भी कोशिश कर रहे थे ..मुझसे भी स्टूडियो मशीनों पर सीखने के दौरान चुगलखोरी और टोका - टाकी की जाने लगी तो मैंने फिलहाल स्टूडियो जाना छोड़ने में ही भलाई समझी |लेकिन मन में यह दृढ विश्वास लिए कि मुझे अब रेडियो से कोई अलग नहीं कर सकता है |

उस दौर के कुछ लोग और कुछ वाकये याद आ रहे हैं | श्री गिरीश भटनागर और श्री आर.एन.सिंह उन दिनों पेक्स हुआ करते थे और बारी बारी से युववाणी के इंचार्ज बनते रहे | हर तीन महीने में मुझे रेडियो का लिखित निमन्त्रण (अनुबंध पत्र ) भारत के राष्ट्रपति की ओर से जारी होता रहा और मैं कभी कहानी तो कभी वार्ता, कभी बातचीत तो कभी मेरी पसंद के फिल्मी गाने लेकर स्टूडियो की मायावी दुनिया में जाता रहा | भारत में 25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर इमरजेंसी लगा दी | अब रेडियो को भी उसी के हिमायती के रूप में रोल अदा करना था क्योंकि वह उन दिनों सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ही जागीर हुआ करता था | पेक्स श्री राम नगीना सिंह बड़े संकट में थे | मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं बीस सूत्रीय कार्यक्रम को लेकर युवाओं की प्रतिक्रिया पर आधारित स्थल ध्वनिअंकन करता कार्यक्रम बना दूंगा | उन्होंने कैसेट, टेप , माइक और टेप रिकार्डर अपने ‘ बिहाफ ‘ पर उपलब्ध कराया और मैंने अपनी परिकल्पनाओं को मूर्त रूप दे दिया | जहां तक याद है कुल चार एपिसोड मैंने एक हफ्ते में सौंप दिए जिनका प्रसारण युववाणी में उन्होंने कर दिया | उन दिनों उन सभी पर बहुत दबाब था | हाँ एक बात मजेदार यह भी थी और वह यह कि कांग्रेस राज के 20 सूत्रीय के नाम पर जो चाहो परोस दो और ब्राडकास्ट स्टेटमेंट भेज दो ..यह भी चल रहा था |

उसी दौरान मेरे पिताजी आचार्य प्रतापादित्य के सम्पर्क में आकाशवाणी लखनऊ के फ़ार्म एंड होम यूनिट के सम्पादक श्री मुक्ता शुक्ल आये और उनका परिचय पारिवारिक निकटता में परिवर्तित हो गया | उन्हीं काल खंड में आकाशवाणी गोरखपुर के लिए सह सम्पादक (आलेख) के पद का विज्ञापन निकला और मैंने भी अप्लाई कर दिया |एक ही पद था और आकाशवाणी लखनऊ में मात्र साक्षात्कार पर चयन होना था और गोरखपुर के निदेशक ने अपना मन बना लिया था कि उसके लिए किनका चयन होना है |फिर भी रस्म अदायगी तो होनी ही थी |मैं भी बुलाया गया और तमाम काबिलियत के सुबूत पेश करने और अपने पक्ष में माहौल बन जाने के बावजूद वाही हुआ जो निदेशक चाहते थे |उस पद पर श्री रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव की नियुक्ति हुई जिन्हें आगे चलाकर जुगानी भाई के नाम से यश और कीर्ति मिली |

फिर नवम्बर - दिसम्बर 1975 में प्रदेश के विभिन्न केन्द्रों पर प्रसारण निष्पादक पद पर भर्ती के लिए लगभग एक सौ रिक्तियां निकलीं | श्री मुक्ता शुक्ल ने मुझे एक बार फिर मैदान में उतरने का साहस दिया | उन्होंने कहा कि आकाशवाणी लखनऊ में ही सारे इंटरव्यू होने हैं और लगभग वही लोग बोर्ड में रहेंगे जो इसके पहले थे |अपने गुरुदेव को ध्यान करते हुए ताल ठोंक कर मैं एक बार फिर मैदान में कूद पड़ा |लगभग एक सप्ताह तक चले इंटरव्यू के अनेक दिग्गज प्रतिस्पर्धियों में एक मैं भी था |सुबह की ट्रेन से लखनऊ पहुंचा,सीधे मुक्ता शुक्ल से मिला और वे मुझे अपने लम्ब्रेटा से लेकर पास ही स्थित अपने घर ले गए | नहां - धोकर वहीं खाना खाया और आ गया 18,विधान सभा मार्ग | दिन में दो बजे वाली दूसरी शिफ्ट में अपना इंटरव्यू था |प्रख्यात कथाकार शिवानी,गोरखपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्राध्यापक डा.हेमचंद जोशी, अंग्रेजी न्यूज रीडर लतिका रत्नम ,उर्दू कहानीकार रतन सिंह आकाशवाणी लखनऊ के निदेशक छोटे माथुर साहब का बोर्ड था | उन दिनों मैं भी लेखन के मामले में खूब खूब फ़ार्म में था | मेरे लेख, कहानियां, कवितायेँ, टिप्पणियाँ छपा करती थीं | फिल्मों पर भी खूब लिख रहा था |मेरे इंटरव्यू में समांतर सिनेमा पर सवाल पूछे गए जो उन दिनों चर्चा में थीं |चूंकि बी.ए.में हिंदी साहित्य के साथ अंग्रेजी साहित्य भी मेरा एक विषय था इसलिए लतिका जी ने मुझे अपने वाकजाल में फंसाना चाहा | लेकिन वाह रे शिवानी जी , मानो उन्होंने भी हठ कर लिया हो कि इस बार बेटे को खाली हाथ नहीं जाने दूंगी | लतिका रत्नम मैडम के अंग्रेजी में पूछे गए न्यू वेव फिल्मों के एक सवाल पर मुझे अंग्रेजी में ही उत्तर देने में हो रही असुविधा को ताड़ते हुए उन्होंने मुझे हिन्दी में अपने विचार व्यक्त करने की जो छूट दी तो मैं निकल पडा |डैमेज कंट्रोल हुआ ...और मैं संतुष्ट भाव से गोरखपुर लौट आया | देश में इमरजेंसी चलती रही और उसका पुरजोर विरोध भी |मार्च आते आते पता चला कि इमरजेंसी हटने वाली है और सरकार आनन फानन में विभागों ने अपनों की नियुक्तियां आदि कर देना चाह रही है |सूचना और प्रसारण मंत्रालय में भी ऐसा ही कुछ चलने लगा |21 मार्च 1977 को 21 महीनों के अलोकतांत्रिक काल समाप्त हुआ और आश्चर्य .......सूचना प्रसारण मंत्रालय के रुके हुए आदेश भी अब जारी होने शुरू हो गए |

मुझे याद है मैं इन सबसे निस्पृह होकर अपना एल.एल.बी.पूरा करते हुए पिताजी के साथ काले कोट में कचहरी जाना शुरू कर दिया था |बिना व्यतिक्रम हर रविवार को अपने गोरखपुर के गाँव विश्वनाथपुर सरयां तिवारी (खजनी से आगे ) भी क्योंकि मेरे पितामह काशीवास करने चले गए थे और लगभग दो साल से पिताजी पर कचहरी,विश्वविद्यालय की अंशकालिक प्राध्यापिकी और गाँव पर आधुनिक खेती कराने का भूत सवार हो चुका था | मेरे मित्र श्री प्रदीप गुप्ता ने भी उसी पद के लिए इंटरव्यू दिया था | उसी बीच प्रदीप, मेरे पारिवारिक मित्र एक दिन घर आये और बता गए कि ठाकुर प्रसाद सिंह (उन दिनों सूचना निदेशक थे ) की बदौलत उनका चयन हो गया है और बस अब उनका पोस्टिंग लेटर आने वाला है ..तो मेरी धुकधुकी बढ़ गई |बाद में पता चला कि वे भी अफवाहों पर सवार होकर आये थे | यह सच था कि मोहसिना किदवई सहित अनेक कांग्रेसियों ने अपनी दाल गला ली थी | जुलाई 1976 में जब मेरा एल.एल.बी.का रिजल्ट आ गया तो मैं मायूस सा हो गया था कि अब तो ना चाहते हुए कचहरी जाना होगा |एक अंतिम प्रयास एल.एल.एम्.में प्रवेश पाने का मैंने किया लेकिन तत्कालीन विभागाध्यक्ष ( और पिताजी के मित्र भी ) प्रोफेसर उदयराज राय ने अपनी हठवादिता दिखाते हुए उसे असफल कर दिया | असल में एडमिशन मेरिट पर होना था और यदि मुझे टीचर्स कैंडिडेट का वेटेज मिल जाता तो एडमिशन हो जाता जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया | मेरे पिताजी ला विभाग के पार्ट टाइम लेक्चरर थे और पार्ट टाइम लेक्चरर को ये सुविधा उस समय नहीं मिल रही थी |
इस बात को स्वीकार करने में मुझे कोई अफ़सोस नहीं कि बी.ए.और उसके बाद के विषय चयन में पिताजी ने , जैसा उन दिनों के पैरेंट्स अक्सर किया करते थे , अपनी दखलंदाजी की | मुझसे तीन तीन साहित्य लेने को कहा गया – अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत | बाप रे ! मैं आदेश की रस्सी तोड़ता रहा लेकिन अफ़सोस थोड़ा ही तोड़ पाया .... किसी तरह अपने मन की हिंदी, बेमन की अंग्रेजी और कुछ नहीं तो राजनीति विज्ञान के चयन का स्वातन्त्र्य पा सका | बी. ए. की वैतरिणी पार करते ही एक बार फिर वही यक्ष प्रश्न ! अब क्या ? रिजल्ट मिलते ही आनन फानन बिना किसी से पूछे नाचीज ने एम.ए. हिंदी साहित्य का फ़ार्म भर दिया |..और यह देखिए..पहली लिस्ट का पहला नाम – प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी | लेकिन ...मेरे सारे उन्माद पर पानी फिर गया | पिताजी का आदेश हुआ कि जाओ एल. एल. बी. का फार्म भरो , मैंने वैसा ही किया और इस तरह से मैं ला ग्रेजुएट बन गया | निश्चित रूप से उनके मन में यह परिकल्पना रही होगी कि मैं अच्छे नम्बर लाकर एल.एल.एम. कर लूंगा या प्रतियोगी परीक्षण से गुजरते जुडीशियरी में चला जाऊँगा | लेकिन जब एल.एल.एम. में मेरा एडमिशन नहीं हुआ तो वे भी थोड़ा निराश हुए थे |
उन दिनों बी.ए.करके इम्प्लायमेंट एक्सचेंज और विश्वविद्यालय डेलीगेसी में पंजीकरण भी हो जाता था और अगर आपकी किस्मत रही तो छोटी मोटी नौकरी का बुलावा भी आ जाता था |मैंने वहां भी रजिस्ट्रेशन करा रखा था |एक आफर आया भी ..मैं उसे ज्वाइन भी करने जा रहा था लेकिन नियंता मेरे कुछ और ही सोच रहे थे |उ.प्र. सूचना विभाग ने अनुवादक कम सहायक सूचना अधिकारी के पद की रिक्तियां निकाली थीं |मैंने उसके लिए अप्लाई कर दिया था और इंटरव्यू भी दे आया था | उन दिनों मेरे मौसा जी श्री श्रीविलास मणि त्रिपाठी , आई.पी.एस., ( जो बाद में चलकर पुलिस प्रमुख भी हुए ) लखनऊ में पुलिस कप्तान थे और उनके प्रयास से 23 वर्ष की उम्र में मेरी पहली नौकरी प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में अनुवादक कम सहायक सूचना अधिकारी के पद पर लग गई और पोस्टिंग बरेली में हुई थी | आभारी हूँ मैं अपने मौसा जी का जो मेरे हसींन और नाज़ुक सपनों के संवाहक बने | हरे रंग के टाइटिल वाला नियुक्ति पत्र जिसमें ऊपर उ.प्र.सरकार का प्रतीक चिन्ह मछली बना हुआ था मुझे आज तक याद है | बहुत मामूली पे स्केल थी ( शायद रु. 240- 650 ) लेकिन थी सरकारी नौकरी | मुझे आश्वासन मिला था कि बहुत जल्द मुझे प्रमोट करके सूचना अधिकारी बना दिया जाएगा | मैं इसे ज्वाइन करने के लिए लगभग तैयार था, रिजर्वेशन भी करा लिया था कि मेरे बड़े भाई श्री सतीश चन्द्र त्रिपाठी ने बड़ी समझदारी से समझाया कि नौकरी की अभी क्या जल्दी है !...... मैंने यात्रा स्थगित कर दी |..समय बढ़ता रहा एक और रोचक मोड़ लेने के लिए |जानना चाहेंगे ?..तो ‘ स्टे विद मी !’
गोरखपुर और उसके इर्द- गिर्द शहरों में उन दिनों वाराणसी से छपकर आने वाले “आज” अखवार का जलवा था |लेकिन गोरखपुर में एक अखबार “हिन्दी दैनिक “था जो अकेले उसे टक्कर दे रहा था | मेरी रूचि पत्रकारिता की भी जगी और मैंने अपने इंटर की पढ़ाई के साथ - साथ उसी
“ हिदी दैनिक “ (सम्पादक डा.हरि प्रसाद शाही जिला पंचायत अध्यक्ष और बाद में एम.एल.सी.) और एक साप्ताहिक पत्र “सही समाचार” ( सम्पादक डा.रामदरस त्रिपाठी ) में जाना शुरू कर दिया था | दोनों में उप सम्पादक के रूप में मेरा प्रवेश हुआ |कहने को मुझे यात्रा भत्ता के रूप में कुछ पारिश्रमिक मिलना था लेकिन मैं जानता था (और यही हुआ भी ) की मुझे ये सेवाएं नि:शुल्क देनी थी |मैंने अवसर का लाभ उठाया और अपनी लेखनी को धार दिया ..देता ही रहा | हिन्दी दैनिक में विजय प्रताप शाही , राजेश शर्मा ,दिनेश चन्द्र पाण्डेय जी जैसे बड़े पत्रकारों का साथ मिला| राजेश जी तो आगे चलकर सूचना विभाग की पत्रिकाओं के सम्पादक भी हुए |दि.29.04.1977 को जारी अपने प्रमाण पत्र में डा.राम दरस त्रिपाठी ने लिखा ;
“ I certify that Sri Prafulla Kumar Tripathi has worked for Four Years as Assistant Editor Sahee Samachar Newspaper… I wish him success and have faith in his bright future. “
इसी तरह श्री राजेश शर्मा से मेरा सम्बन्ध आगे भी बना रहा |उन्होंने उ.प्र.शासन के पाक्षिक प्रकाशन उत्तर प्रदेश पाक्षिक में मेरे कालम “एक विचार यात्रा “ को महीनो प्रकाशित किया |लखनऊ से दि.24 अगस्त 1977 को लिखा उनका एक पत्र आज भी मेरी फाइलों में मुस्कुराता हुआ उनकी याद दिलाता रहता है-
‘....मैंने देखा है कि अथक मेहनत और निष्ठा ने इनकी गद्य शैली का निरंतर परिष्कार होता रहा है और अब इनकी भाषा नये साहित्य की दृष्टि से सम्पन्न हो गई है |एक सम्पादक के नाते मुझे श्री त्रिपाठी के लेखों को प्रकाशित करने में हमेशा प्रसन्नता हुई है |...”

अपने विद्यालय दयानन्द इंटर कालेज की वार्षिक पत्रिका के लिए हिंदी खंड के छात्र सम्पादन का दायित्व मैंने निभाया |मेरे साथ शिक्षक सम्पादक श्री रविन्द्र नाथ मिश्र थे जो आगे चलाकर एम.एल.सी.हुए और अंग्रेजी खंड के राधा मोहन दास अग्रवाल थे जो आगे चलकर गोरखपुर के कई बार विधायक बने |इतना ही नहीं लगे हाथ यह भी यद् दिला दूँ कि जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए गया तो स्नातक प्रतिनिधि बनकर मैंने अपने समान रूचि के लोगों के सहारे विश्वविद्यालय की छात्रसंघ पत्रिका की वर्ष 1971-72 में शुरुआत की जो आगे भी निकलती रही | हाँ,उन दिनों के हमारे साथ के तमाम छात्र नेता विधायक और मंत्री पद सुशोभित करते चले आ रहे हैं | नाम गिनाऊं ?...श्री शिव प्रताप शुक्ल ( वर्तमान में महामहिम राज्यपाल हिमांचल ) , जगदीश लाल, गणपत सिंह, शीतल पाण्डेय (वर्तमान में भाजपा विधायक ), राजधारी सिंह आदि |
मैंने अपने मित्र श्री प्रदीप कुमार गुप्ता और कुछ अन्य को लेकर एक सामाजिक सांस्कृतिक युवा संगठन भी बनाया था जिसका नाम था प्रगतिशील युवा संगठन | वर्ष 1970 में उसकी एक वार्षिक पत्रिका भी निकली थी – “आह्वान ! “ पृथक रूप से भी मैंने जोश में आकर एक त्रैमासिक पत्रिका का पंजीकरण कराया था –“ परिप्रेक्ष॒य “ जिसका पहला और आखिरी अंक मई 1975 में ही निकल सका और वह भी आपातकाल की भेंट चढ़ गई |
बी.ए.और एल.एल.बी.की पढ़ाई के दौरान छात्र नेतागिरी के शौक को भी मैंने पूरा कर लिया |वर्ष 1972-73 में विश्वविद्यालय डेलीगेसी के सेन्ट्रल ज़ोन का मैं लिटरेरी सेक्रेटरी भी रहा |उन दिनों प्रोफ़ेसर एस.डी.सिंह उसके चेयरमैन थे |लिखना –पढ़ना जारी रहा |हिन्दी टाइपिंग सीख लिया था और तमाम कोशिश करके हिन्दी शार्टहैंड में पारंगत नहीं हो सका |असल में मेरे पिताजी के लेख आदि (कार्बन कापियां लगाकर ) हाथ से लिखने पड़ते थे और उन्हीं की सद इच्छा थी कि मैं टाइपिंग और शार्टहैंड सीख लूँ |वे यह भी कहते थे कि कम से कम क्लर्की की नौकरी तो पक्की कर लो !विश्विद्यालय लाइब्रेरी से ढेर सारी किताबें मैंने पढ़ीं |खास तौर से विमल मित्र ,हरिवंश राय बच्चन ,फणीश्वर नाथ रेणु आदि को मैंने खूब पढ़ा |बच्चन जी की आत्मकथा ने बेहद प्रभावित किया और मैं उनसे चुम्बक की तरह जुड़ गया |मुझे याद है कि किसी ना किसी बहाने मैं उनसे पत्राचार करता रहा और वे उसका उत्तर भी देते रहे |उनको भेजा पहला पत्र मैंने उनकी आत्मकथा में उनके बचपन के कुछ टूटे – छूटे प्रसंगों के बारे में लिखा था |असल में उनके एक बाल सखा थे पंडित देवकी नन्दन पाण्डेय जिन्होंने मुझसे कुछ बातें शेयर की थीं |उन्हीं के आधार पर जब मैंने पत्र भेजा तो बच्चन जी आश्चर्य में पद गए और उसके जबाब में उन्होंने मुझे खूब लम्बा पत्र लिखा | दि.24 मई 1971 का उनके हाथ का लिखा वह पत्र अब भी मुझसे बातें करता है ;
13,विलिंग्टन क्रिसेंट ,नई दिल्ली-11
24.5.71
“सम्मान्य बन्धु !
पत्र के लिए धन्यवाद |साहित्य जगत में आपकी रूचि है यह जानकर प्रसन्नता हुई |....आपके प्रश्नों ने मुझे चकित कर दिया | यह तो कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो स्कूल में मेरा सहपाठी रहा हो और जिसकी स्मृति बहुत अच्छी हो | इन बातों के बारे में आपको सूचना किसने दी ?
(1)जब मैं हाई स्कूल और इंटर में था मैं एक गीत बड़े दर्द भरे स्वर में गाया करता था जिसकी प्रथम पंक्ति थी -अब के गए कब अइहो रे मोहना ..|किसी सेसुनी होगी |मुझे अब एक ही पंक्ति याद है शेष गीत भूल गया हूँ और किसी सहपाठी ने यह गीत सुना होगा और याद रखा होगा |
(2)जब मैं कायस्थ पाठशाला में पढ़ता था .शायद छठीं में ..उस समय स्कूल में एक जादूगर आया था जिसने मुझे मिस्मराइज़ कर दिया था |पर उसका कोई प्रभाव मुझ पर विशेष नहीं पडा |यह घटना भी मेरे किसी सहपाठी से ही आपको मिल सकती है |
(3)यह भी ठीक है कि जब मैं आठवीं में पढ़ता था मेरे हाथ में तकलीफ हो गई थी |आपरेशन कराना पड़ा था और महीनों नेरा दांया हाथ बेकार था |घाव अब भी मेरे दांये हाथ में है |यह घटना भी मेरे किसी सहपाठी द्वारा आपको मिली होगी |पर आश्चर्य है कि मेरे विषय में इन छोटी छोटी बातों को किसी ने स्मरण रखा है |
मेरे जीवन में विशेष जानने के लिए मेरी आत्मकथा देखि जा सकती है |
(1)क्या भूलूं क्या याद करूँ !
--------राजपाल एंड संस दिल्ली-6 प्रकाशन
(2)नीड़ का निर्माण फिर !
उन्होंने आगे यह भी लिखा था –
“अमिताभ बच्चन मेरे ही पुत्र हैं |”सात हिन्दुस्तानी के बाद वे आनन्द परवाना प्यार की कहानी में आए हैं |कला के क्षेत्र में आदमी बड़ी बड़ी आशाएं लेकर प्रविष्ट होता है !..पर उस क्षेत्र की भी सीमाएं हैं – प्राय:आदमी अपने आदर्शों के साथ नहीं चल सकता और उसे यथार्थ से समझौता करना पड़ता है |...अमित जी का भविष्य कैसा होगा ,मैं नहीं कह सकता | ..मैं पिता की हैसियत यही चाहता हूँ कि उनकी प्रतिभा का विकास अच्छी दिशा में हो |
....शुभकामनाएं ..!
सादर ,
बच्चन | “
दि.18-02-1972 को एक पोस्टकार्ड पर उन्होंने मेरे आग्रह पर विश्वविद्यालय छात्रसंघ पत्रिका के लिए अपनी शुभकामना इन शब्दों में भेजी-
“..पत्रिका का स्वागत |विद्यार्थी ऊंचे सपने देखें और उन्हें साअर करने के लिए संघर्ष करें इसी में जीवन की सफलता समाज का कल्याण और देश की उन्नति है ! -बच्चन “
दि.29-11-1972 के एक पत्र (जिसके लिए उन्होंने अमिताभ बच्चन के लेटर पेड का इस्तेमाल किया था ) में उन्होंने लिखा था ;
“...मेरी रचनाओं से मेरा कोई चित्र नहीं उभरा तो फोटो से क्या उभरेगा !..भेजने के लिए फोटो है भी नहीं ..सद्भावना के लिए आभारी|अब मैं दिल्ली छोड़ बम्बई आ बसा हूँ ..|.”
बच्चन जी की मृत्यु के बाद मैंने बच्चन जी के इन सभी पत्रों को संकलन और सुरक्षा की दृष्टि से सहेजना चाहा |पहले उनके महानायक पुत्र अमिताभ बच्चन को पत्र भेजा , उनका कोई उत्तर नहीं मिला |फिर उन सभी पत्रों को मैंने अपने रेडियो मित्र श्री राजुलाकर जी को भोपाल भेज दिया जहां उन्होंने उसे दुष्यंत संग्रहालय की वीथिका में सजा दिया है |कभी आप भोपाल जाएं तो अवश्य देखें |इतना ही नहीं एक और रोमांचक बात बताना चाहूँगा |श्री अजित कुमार , जो बच्चन जी के बहुत निकट रहे , ने सारिका के माध्यम से आग्रह किया कि वे बच्चन पत्रावली छापने जा रहे हैं | मैंने उनको अपने पास के सभी पत्रों की फोटोकापियां भेज दी थीं | दि.28-08-1983 को उन्होंने मुझे लिखा –
“मान्य श्री त्रिपाठी जी ,
..इनमें पहला पत्र मुझे विशेष महत्वपूर्ण लगा और उसे मैं “बच्चन पत्रावली”में जरूर लेना चाहूँगा |.....आपका, अजित कुमार “
हालांकि अब तो श्री अजित कुमार भी नहीं रहे लेकिन यह बताना चाहूँगा कि उन्होंने अपना वादा पूरा किया या नहीं , किताब छपी या नहीं मैं अभी तक इस बात से अवगत नहीं हो पाया |

जवानी के दिन थे | बी.ए.में विश्वविद्यालय लाइब्रेरी में ही मैंने एक लड़की देखी जो मुझे भा गई | उन दिनों में पन्त ब्लाक में लड़कियों की अलग से क्लासेज चलती थी और उसी ब्लाक के सामने से उनकी बस भी आती जाती थी | दो चार दिन रेकी करके पता लगाता रहा तो पता चला उसका नाम तारा पाण्डेय है और गीता वाटिका के पास रहती है ...बस से आती- जाती है ( हालांकि अब मुझे आश्चर्य है कि मैंने इतना सारा कुछ जाना कैसे था ? ) ..डरते डरते अपने हिसाब से नये साल के बहाने एक प्रतीकात्मक प्रेमपत्र भी साधारण डाक से अपने नाम पता सहित डाल दिया ..और किस्मत यह की वह पत्र उसे मिल भी गया !....धन्यवाद प्रेम के देवता को जो सीढ़ी बन गए मेरे पहले प्यार तक पहुँचने की | लेकिन ..लेकिन मेरी दीवानगी ज्यादा दिन तक नहीं खुशियाँ सम्भाल सकीं |
एक दुपहरिया विश्वविद्यालय के मेरे किसी मित्र ने मुझे खुफिया सूचना दी कि एक दादा किस्म के लड़के (शायद उनका हरिमोहन सिंह नाम था )..मुझे खोज रहे हैं |मेरा माथा ठनका , अभी कुछ मैं सोच पाता ,रणनीति बना पाता कि अगले दिन फिर उनका बुलावा आ गया कि मैं कैंटीन में दोपहर में डेढ़ से दो के बीच हाजिर होऊं |मरता क्या ना करता !अपने एक मित्र के साथ मैं कैंटीन पहुंचा तो चार पांच लड़कों के साथ हरिमोहन मिले |कैंटीन लगभग खाली ही थी |मैंने अपने दोस्त के साथ उनके बगल वाली कुर्सी ग्रहण कर ली थी |
“तुम.. तुम्हीं हो प्रफुल कुमार त्रिपाठी ?” उन्होंने मुझे सम्बोधित किया था |
‘हाँ , मैं ही प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी हूँ |” मैंने डरते सहमते उत्तर दिया |
उन दिनों छात्रों के बीच लड़कियों को लेकर मारपीट या छुरे - चक्कू बाजी आम बात थी | मैं ज्यादा सतर्कता इसी बात का बरत रहा था इसलिए अब और चौकन्ना हो उठा था |
“तुमने ..तुमने किसी लड़की को कार्ड भेजा था क्या ? “ हरिमोहन की आवाज़ में धमकी थी |
पल भर को मैं फिर ठिठका लेकिन जाने क्या मन में भाव उठा मैंने सहजता से स्वीकार किया – “ हाँ, मैंने ही किसी लड़की को कार्ड भेजा है |.....लेकिन ...आपसे मतलब ?”
अब हरिमोहन उन लड़कों के बीच से उठे और मेरे कंधे पर हाथ रखते मुझे बाहर की ओर ले जा रहे थे |
कातर दृष्टि से मेरा मित्र मुझसे अगली कार्यवाही का आदेश मांगता लगा |मैंने हाथ हिलाया कि फिलहाल मुझ पर आक्रमण का अंदेशा नहीं है |
‘अरे भाई ! सतीश तुम्हारे ही भाई हैं ना ?”
“हाँ !” मैंने स्वीकारा |
“ मैं तुम्हारे भाई साहब का दोस्त हूँ और वह लड़की तारा पाण्डेय मेरी बहन मंजू की फास्ट फ्रेंड !तो उसी ने मुझसे जब तुम्हारे कार्ड को दिखा कर सहायता मांगी तो मैंने उसे प्रामिस कर दिया कि कोई बात नहीं है ..मैं हैंडल कर लूंगा |”हरिमोहन एक ही सांस में सारी बात बोल गए |
“ अगर आप मेरे भाई साहब के दोस्त हैं तो ..तो फिर मेरे लिए क्या आदेश है ?” मैं बोल पडा |
“तुम अब उससे कोई ताल्लुक नहीं रखोगे ..समझे !”हरिमोहन की बात में तल्खी थी |
“ठीक है !..मैं ऐसा ही करूंगा |’मैंने उनको आश्वस्त किया |वे जाने लगे |
मेरा दोस्त मुझ पर नज़र बनाये हुए था और मुझे चेहरे से हल्का होता देख अपने आप पास आ गया ..बोला – “सब ठीक तो है ?”
मैंने कहा – “जान बची और लाखों पाए ! “
उस दिन मेरे पहले प्यार का “ दी एंड “ हो गया |बताता चलूं कि यह वही हरिमोहन थे जिनके पिता प्रोफे. एस. डी.सिंह थे और जिनसे मेरी मुलाक़ात डेलीगेसी की मीटिंग्स में हुआ करती थी |
लगे हाथ यह भी जान लें कि मुझे प्यार का खुमार एक बार फिर चढ़ा , इस बार सीरियसली चढा ........कुछ आगे भी बढ़ा लेकिन उसकी चर्चा आगे करूंगा |..तो थैंक्यू हरि मोहन और मेरे वे दोस्त जी (जिनका नाम याद नहीं आ रहा है ) !
समय अपने पंखों पर सवार होकर बीतता रहा | एक दिन दुपहरिया में मैं जब गाँव से लौट रहा था तो गोरखपुर में अपनी गली के मोड़ पर ही मेरे पोस्टमैन मिल गए |उन्होंने मेरा रिक्शा रुकवाया और मेरे हाथ में एक खाकी रंग का मोटा लिफाफा सौंपते हुए कहा कि मैं आप ही के पास जा रहा था.... , यह रजिस्ट्री रिसीव कर लीजिये |मेरा माथा ठनका और पाया की आकाशवाणी इलाहाबाद से वह लिफाफा आया था | घर जाकर जल्दी से खोला ..यह मेरा चिर प्रतीक्षित एप्वाइन्टमेंट लेटर था |30 अप्रैल 1977 को मैंने आकाशवाणी इलाहबाद में बतौर प्रसारण निष्पादक कार्यभार ज्वाइन कर लिया |
आकाशवाणी गोरखपुर में बिताये दिन मेरी नौकरी के सर्वश्रेष्ठ दिन थे | मैं इस केंद्र पर कई काल खंडों में रहा हूँ |सबसे पहले 18 अक्तूबर 1977 से 9 मार्च 1984 तक और फिर 13 जुलाई 1984 से 21अक्टूबर 1991 तक प्रसारण अधिशासी के रूप में और फिर 17 जुलाई 1993 से 8 नवम्बर 2003 तक कार्यक्रम अधिकारी के रूप में | संगीत हो या युवा जगत , मैंने अपने भरसक नवोदित प्रतिभाओं को खूब अवसर दिए | यहाँ भी सांप सीढ़ी का मजेदार खेल बदस्तूर चलता रहा |मुझे याद है कि एक नहीं अनेक सांपों ने मुझको डसने की भरसक कोशिशें की थीं लेकिन मैं हर बार उनके बचता और निकालता रहा |एक बार तो नौकरी पर भी बन आई थी |
याद आते हैं ढेर सारे मेरे शुभेच्छु |जब मैं युवा जगत देख रहा था तो भारतीय 12 अप्रैल 1997 को भारतीय राष्ट्रीय एकता युवा मंच की ओर से मुझे ‘ युवा रत्न सम्मान’ भी दिया गया था |गोरखपुर के जिला परिषद हाल में विधान परिषद् सदस्य श्री नरसिंह तिवारी की उपस्थिति में मो.अशरफ आलम खान ने मुझे युवाओं की ओर से युवारत्न सम्मान प्रदान किया | 14 अप्रैल 1997को इसकी पडरौना शाखा ने भी एक आयोजन करके मुझे यह सम्मान दिया | समारोह में उदित नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय छात्रसंघ के महामंत्री सदाशिव मणि त्रिपाठी,अनिल कुमार पाठक,सोहम मणि,राजकुमार सिंह ,ऋषभ कुमार सिंह,शमशेर मल्ल,अजय सराफ,उमेश चन्द्र मिश्र .राजू दुबे आदि उपस्थित थे |कारगिल युद्ध के दौरान मेरे निर्देशन में आकाशवाणी गोरखपुर से हो रहे नियमित प्रसारण ‘हिम्मत वतन की हमसे है “ को पुरस्कृत किये जाने की मांग युवा श्रोताओं ने उठाई थी जिसके बारे में पहली अगस्त 1999 को समाचार पत्रों ने सविस्तार समाचार दिया था |
आकाशवाणी गोरखपुर में रहते हुए मुझे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्टडी सेंटर (2709) का कौंसलर बनाया गया था |यह मेरे लिए बेहद गर्व और सम्मान की बात थी क्योंकि जहां आप पढ़े हों वहीं अगर आप पढ़ाने के लिए भी आमंत्रित किये जांय तो यह कितने सम्मान की बात होगी ! और यह भी कि उसी परिसर में मेरे पिताजी और मेरे बड़े भाई भी पढ़ा रहे हों !इस अवसर को दिलाया था उस समय के को- आर्डिनेटर प्रोफेसर बब्बन मिश्र ने जिनसे मेरा परिचय और घनिष्ठता भोजपुरी कार्यक्रम देखने के सिलसिले में हुआ था | वे “ बीतल हफ्ता ‘नामक द्वि साप्ताहिक भोजपुरी समाचार बुलेटिन के लिए बुलाये जाते थे |उनका एक कालम भी उन दिनों दैनिक जागरण ( गोरखपुर ) में लोकप्रिय था |मैं अपनी निजी ज़रूरतों की वज़ह से जब ट्रांसफर लेकर आकाशवाणी लखनऊ आ गया तो दिनांक 23 जनवरी 2004 का लिखा उनका एक पत्र डाक से मुझे मिला जिसमें उन्होंने लिखा ;
“आदरणीय त्रिपाठी जी ,
नमस्कार |
.....आप अपना वज़न समझिये ..कितना अधिक है , आप यहाँ से गये – मेरा जो आपने लीक धराई थी समाचार पढ़ना बंद.. हो गया !”
आकाशवाणी गोरखपुर में कार्यकाल के दौरान मेरी अतिरिक्त रूचि और प्रतियोगितात्मक सक्रियता ने मेरे लिए एक और उपलब्धि मेरे खाते में दर्ज की थी जिसका उल्लेख मैं आवश्यक समझ रहा हूँ | अक्टूबर-नवम्बर 2001 की अवधि में टाटा टी ने अखिल भारतीय स्टार पर एक स्लोगन कांटेस्ट आयोजित किया था | इसमें मेरे सहित लगभग 20 हज़ार लोगों ने भाग लिया था | जनवरी 2002 में मुझे कोलकता से मेरे गोरखपुर के लैंड लाइन नंबर (0551-2334871) पर फोन आया कि मेरे भेजे गए स्लोगन को प्रथम पुरस्कार मिला है |पुरस्कार के रूप में मुझे टा इंडिका गाड़ी मिलने वाली थी | थोड़े ही दिन में टाटा टी के स्थानीय प्रतिनिधि ने मुझसे सम्पर्क साधा और तय हुआ कि प्रेस क्लब में एक समारोह में मुझे टाट कार की चाभी सौंपी जाय | मुख्य अतिथि हुए डा.राधा मोहन अग्रवाल गोरखपुर के नगर विधायक |कोलकता से टाटा की ओर से किन्हीं सचिन व्यास का जो पत्र मेरे निमित्त आया था उसके अंश थे ;
“Dear Mr.Tripathi,
It gives us immence pleasure to inform you that you are one of the winners of the Tata Tea Contest that was held in October-November 2001.
Our judges spent a lot of time painstakingly going through each one of the 20,000 entries we received for the contest .
And your entry-“If you don’t think everyday is a good day,just try Tata Tea” was adjudged one of the three best entries.And as promised , we are sending you the Tata Indica.
Here’s wishing you happy tea times and happy driving !
Your’s truly,
Sachin Vyas
For Tata Tea Limited. “

आकाशवाणी लखनऊ पर सूबे की सियासत का गहरा रंग चढ़ा हुआ है | यह मैं दावे के साथ इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि मैं वहां दो कालखंडों में रहा हूँ |पहली बार 13 दिसम्बर 1991 से 15जुलाई 1993 तक (लगभग 7 महीने ) और फिर दूसरी बार 9 सितम्बर 2003 से 31-08-2013 अर्थात अपने रिटायरमेंट तक |इस केंद्र पर गहरी राजनीति खेली जाती है |शतरंज की बिसात पर दांव लगा करते हैं और शह और मात का खतरनाक खेल हमेशा चलता रहता है |अपनी दोनों बार के कार्यकाल में मैंने यह महसूस किया है |यहाँ की पोस्टिंग पानी आसान नहीं हुआ करती है |मैंने अपने पहले कार्यकाल में तत्कालीन केंद्र निदेशक की मर्जी के विरुद्ध चूँकि ज्वाइन कर लिया था इसलिए मुझे उसका खामियाजा भुगतना पड़ा | महीनों मेरी ज्वाइनिंग रोकने का प्रयास किया गया ,मेरे स्थान पर दो तीन बालाओं का स्थानान्तरण आदेश / उनकी रिलीविंग रोक रखी गई क्योकि वे निदेशक की ख़ास थीं |मुझे न तो कमरा मिला न ही बैठने की जगह दी गई |लेकिन मैं भी डिगा नहीं , भागा नहीं |मैंने उन दिनों बैठकर वेतन लिया |अपना लिखना पढ़ना जारी रखा |उन्हीं दिनों में मेरी एक लम्बी कहानी दिल्ली से छपने वाले नवभारत टाइम्स के रविवारी संस्करण में आई- “परकाया की तलाश !” इतना ही नहीं उसी प्रतिष्ठित समाचार पत्र में में मैंने अपने निक नेम तिकड़म तिवारी के नाम से कालम भी लिखने शुरू किये |


अपनी नौकरी को मैंने कभी नौकरी नहीं समझा बल्कि मैंने उसे अपने शौक अपने हुनर का माध्यम माना | इसीलिए सेवा के छत्तीस वर्ष कब और कैसे बीत गए मुझे पता ही नहीं चला | इसीलिए मैंने रिटायरमेंट के बाद एक मासिक पत्रिका “प्रकृति मेल “ के लिए अपना संस्मरण लिखा – “ आकाशवाणी की थाप पर थिरकते छत्तीस वर्ष ! “(प्रकृति मेल,दिसम्बर 2013 अंक) | ढेर सारे लोग मिले . ढेर सारी प्रिय-अप्रिय घटनाएं हुईं | ट्रांसफर , पोस्टिंग,ज्वाइनिंग और रिलीविंग ही नहीं बैठे ठाले वेतन रिसीविंग जैसा सरकारी नौकरियों में लगभग हर जगह खेले जाने वाले लोकप्रिय खेल भी मैंने खेले |इस या इन जैसे खेलों के बारे में आप तो जानते ही होंगे ?
याद आ रहे हैं सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर श्री भोला नाथ जिन्होने वर्ष 2008 में ( सितम्बर 2007 में मेरे इन्फेक्टेड हिप आपरेशन होने और उसी क्रम में मेरे छोटे बेटे लेफ्टिनेंट यश आदित्य की शहादत के बाद ) मुझे हर तरह से सहारा दिया जब मेरा स्थानान्तरण आकाशवाणी लखनऊ से अल्मोड़ा के लिए हो गया था |भला मैं उनके उस ऋण से कैसे उऋण हो सकता हूँ ?.....वे एक लौह स्तम्भ की तरह मेरे साथ खड़े रहे और उन्होंने महानिदेशालय की DDG(P)को मेरे स्थानान्तरण कैंसिल करने के बाबत दि.24-01-2008 को लिखा था ;
“Respected Madam Kujur ,
I wish to bring to your kind notice that Shri P.K.Tripathi ,Programme Evecutive of this station has been transferred to AIR Almora vide Dte.order n. 234/2007-S-1Bdated 27.12.2007……Shri Tripathi is known to me for the last 12 years and being well aware of his problems.I wish to place the following favcts for your kind consideration……”
इसके बाद उन्होंने विस्तार से मेरे सैन्य पुत्र की आन ड्यूटी हुई एक दुर्घटना में दुखद निधन,पत्नी की सरकारी सेवा में होने और दूसरे बेटे के भी आर्मी में सेवा करते हुए सुदूर पोस्टिंग होने का जिक्र किया | उन्होंने मेरी 69% विकलांगता का भी सन्दर्भ दिया और लिखा कि भला मैं कैसे अल्मोड़ा की ऊँचाइयों को नाप सकूंगा |
इसी तरह श्री गुलाब चन्द , जो मेरे निदेशक और अपर महानिदेशक भी रहे हैं उनका स्नेह और दुलार हमेशा मुझ पर बना रहा | सेवाकाल और उसके बाद भी वे मुझे बड़े भाई समान मानते रहे हैं |वे मुझसे एक महीने बड़े हैं लेकिन यह उनका बड़प्पन है कि वे मुझे ही अपना बड़ा भाई मानते हैं |उनकी दो पुस्तकों का मैंने सम्पादन किया है | अपने रिटायरमेंट के दो दिन पहले ( दि.29-07-2013 को ) उन्होंने मेरे लिए लिखा-
“..मैंने यह अनुभव किया है कि उत्कृष्ट कार्यक्रम निर्माण एवं कलाकरों से समन्वय के चमत्कारी गुण इनमें विद्यमान हैं ...मुझे और भी खुशी होगी यदि आकाशवाणी दूरदर्शन उनके अनुभव को देखते हुए भविष्य में भी आवश्यकतानुसार उनकी सेवाएं ले | “
वर्ष 2013 में रिटायर होने के बाद लगभग दो साल तक मुझे यह आशा बनी रही कि मैं अपनी गुणवत्ता के चलते अपनी अंशकालिक सेवाएं आकाशवाणी या दूरदर्शन को दे सकूंगा | मैंने अपने स्तर से कुछ प्रयास भी किये |एक बार तो डिप्रेशन की जद में भी आ गया था | लेकिन भगवान ने मुझे सम्भाला | साथ ही बहुत बाद में मुझे यह पता चला कि आकाशवाणी लखनऊ के कुछ सांप और कुछ अजगर मुझे इस अवसर से वंचित करने में दिन रात एक किये हुए थे ..दिन रात एक ही नहीं बाकायदा मेरे आर्थिक हित,सामाजिक प्रतिष्ठा को भी क्षति पहुंचाने की कोशिशों में लगे रहे | लेकिन मेरे साथ मेरे भगवान की कृपा थी ,उन्होंने मेरा विश्वास बनाये रखा और मैं उन दुष्टों की व्यूह रचना को भेद सका | उसकी कहानी फिर कभी |
अब मैंने अपना ध्यान लिखने पढने की ओर लगा दिया था | 08जुलाई 2018 को श्री चैतन्य महाप्रभु की विचारधारा पर आधारित पत्राचार पाठ्यक्रम (गौर वार्ता ) पूरा किया | आकाशवाणी दूरदर्शन परिवार ब्लॉग के लिए मैंने नियमित ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया |पत्र पत्रिकाओं में पाठकीय सहभागिता वाले हर अवसर को भुनाने लगा | इसीलिए कभी “अमर उजाला’’ (लखनऊ) के फादर्स डे पर हुई ‘मेरे पापा मेरे हीरो’’ लेखन के लिए 200 प्रतिभागियों में से तीन सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टियों में से एक मेरी भी थी |
सबसे खुशी यह कि ऐसे आयोजनों में ज्यादातर बच्चों या युवाओं में मैं भी एक सफेद बाल वाला खपने लगा था |इसी तरह हिन्दुस्तान (लखनऊ)की एक खुली प्रतियोगिता में शामिल होकर मैं न सिर्फ पुरस्कृत भी हुआ बल्कि लखनऊ की सबसे बेहतरीन मिठाई की दूकान छप्पनभोग से पांच सौ रूपये की मिठाई आदि खाने का उपहार भी पा लिया | ” मदर्स डे” पर दैनिक जागरण (लखनऊ) ने मेरे लेखन को सराहा और पुरस्कृत किया |
इसलिए हमने अपनी ज़िन्दगी में साँपो से भी मुकाबला किया और सीढ़ियों पर चढ़कर अपने ध्येय को भी हासिल कर लिया है। ज़िन्दगी से न तो अब कोई शिकवा गिला है और न शिकायत। मैंने अपना जीवन जिया, भरपूर जिया।