Prem Gali ati Sankari - 101 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 101

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प्रेम गली अति साँकरी - 101

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जब भी मैंने उत्पल से उसको अपने लिए कोई ‘कंपनी’बना लेने की बात की, वह हमेशा ऐसी बात कहता कि मेरा व्यथित मन और भी पीड़ित हो जाता | देखने में खासा सुंदर, प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व, इतना हँसमुख, अपने काम के प्रति समर्पित लड़का और उसे कोई ऐसी कंपनी नहीं मिल रही थी जिससे वह अपने मन-तन को साझा कर सके |

“अभी टॉर्च लेकर निकलता हूँ---या---खरीदा जा सकता है क्या प्यार कहीं, बता दो कहाँ जाऊँ ?”जब ऐसी बातें कहता, दिल ज़ोर से धड़कने लगता और मन दुखी हो जाता और उसके प्रति पहले से और अधिक झुकाव होता जाता|

“प्यार नहीं है मेरी किस्मत में---जो प्यार होता है , वह दूर भाग जाता है और जो है वह कतराता है---”कुछ कुछ बुदबुद सा कर देता वह और मैं सहमी सी खड़ी रह जाती|मुझे बस, एक ही डर लगता उसे कुरेदने से कि कहीं मैं सच में ही इसका प्यार स्वीकार न कर लूँ?भीतर से गिल्ट का ये हाल था कि मैं उसकी और अपनी उम्र के बारे में सोचती भी तो झुरझुरी आने लगती और जल्दी से जल्दी उसको मुक्त करने और खुद को बांधने के लिए तत्पर हो जाती|

“मे आई कम इन अमी जी ?”मेरा ध्यान भटक गया | प्रमेश ने मेरे दरवाज़े को हल्का सा नॉक किया था जैसे कोई नाज़ुक सा बच्चा दरवाज़े पर बेचारा बनकर खड़ा हो | ये मेरी होने वाली कंपनी थी, बैटर हाफ़? या यह मेरा स्वप्न अथवा सोच भर !

इससे पहले वह कभी भी मेरे पास इस तरह, इस तरह क्या किसी भी तरह नहीं आया था | मेरे बराबर से ऐसे निकलता रहा था जैसे छू भी लेगा तो न जाने कौनसा अपराध हो जाएगा? क्या कुछ ऐसा ही अपराध-बोध तो नहीं था उसके मन में जैसा मेरे मन में उत्पल को लेकर उठता था?होना तो नहीं चाहिए था, आगे बढ़कर उसकी दीदी कितनी बार अम्मा के पास रिश्ते की बात करने आतीं या फ़ोन पर बात करती रहतीं | अम्मा को यही लगता कि अपने विषय में योग्य है और आवश्यकता पड़ने पर संस्थान संभालने की योग्यता भी संभवत:सबसे अधिक उसमें ही है | ज़रूरी तो नहीं होता न कि चुप रहने वाला व्यक्ति कला व अन्य क्षेत्रों में भी गुम हो | उसकी दीदी तो न जाने क्या-क्या उसकी प्रशंसाओं के इतने पुल अम्मा के सामने बाँधती रहतीं, उसके फ़तवे पढ़ती रहतीं | अम्मा भी कभी चर्चा में हँसते हुए हमसे कह ही देतीं थीं कि अपना बच्चा किसको प्यारा नहीं लगता?

“तुम तो कभी मेरी बिटिया की प्रशंसा के पुल नहीं बाँधतीं ---?” जिस दिन पापा चर्चा का हिस्सा बनते, उस दिन मज़ाक में कहते और ठठाकर हँस पड़ते | वैसे हम सबही और संस्थान के अन्य गुरु भी इस बात को तहेदिल से स्वीकार करते कि प्रमेश योग्यता में कहीं भी कम नहीं है और सितारवादन के प्रति उसमें जो एक शिद्दत है, लगन है, वह बिरलों में ही दिखाई देती है | मुझे तो उसमें एक संवेदनशील पार्टनर की तलाश थी जिसे मैं महसूस करके ही आगे बढ़ना चाहती थी |

“आइए---प्लीज़----” अपने ख्यालों में कहाँ बह रही थी और अचानक ही कहाँ से कहाँ पहुँच गई मैं! खिलखिलाते चेहरे की जगह यह चेहरा मेरे सामने नमूदार हो गया था जो सुंदर था लेकिन शून्य में खूँटी पर टंगे प्रश्न की भाँति मेरे मन में खुदर-बुदर करता रहता था कर्टसी तो करनी ही पड़ती है|हम जैसे संवेदनशील, मध्यम वर्ग के लोग ऐसे ही बेवकूफ़ होते हैं!सब लोगों को लगता न जाने हम कितने ऊँचे, बड़े लोग हैं लेकिन परिवार के सभी सदस्यों की सोच कभी दिखावटी नहीं थी और हमें कभी यह महसूस नहीं होता था कि हमें कुछ दिखावा करने की ज़रूरत है !यह संस्कार दादी के थे जो आज तीसरी पीढ़ी में वही जस के तस बने हुए थे |

“आइ वॉज़ वेटिंग फ़ॉर यू---वी हैड ए प्लान टू  हैंग-आउट ?” उसने अपने आपको मेरे सामने बहुत कंसर्न व सिन्सियर सा दिखाया|

’हैंग आउट??’कई कदम आगे, चलो जो भी है | जब कोई रास्ता न दिखाई दे तो बीहड़ बन में से होकर गुज़रना ही होता है बेशक वहाँ चारों ओर भय बिखरा हो| भय तो था ही इस हैंग आउट में, मेरे अस्तित्व के बिखरने का भय! जब मैं जानती, समझती थी तब क्यों जानते-बूझते मैं यह सब कर रही थी ? इस संवेदना को शायद ही कोई समझ सकता था, मैं समझाना भी नहीं चाहती थी | मैं अपने आपसे उत्पल को बचाना चाहती थी | जब तक मैं उसके सामने रहती, वह दूसरी ओर देखने या कुछ सोचने में खुद को मज़बूर पाता रहेगा, मुझे कब से यह अहसास हो गया था | मुझे खुद उस मोमबत्ती की तरह पिघलना मंजूर था जो मेरे सामने धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोकर एक निशान भर रह जाती है!

“जी, मुझे याद है|चलती हूँ----” हम दोनों कमरे से बाहर निकले |

“अम्मा से मिल लेते हैं---”मुझे लगा कि अम्मा से मिलकर, उन्हें कहकर जाना चाहिए |

“आई वॉज़ देअर ओनली, शी नोज़, वी हैव ए प्लान टू गो आउट—”प्रमेश में कल की जगह आज अधिक कॉन्फिडेंस दिखाई दे रहा था|

मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं  दिया और उसके साथ बाहर चल दी, वहीं---जहाँ संस्थान की गाडियाँ खड़ी रहती थीं | जानती थी कि उत्पल की गहरी नज़र मेरा पीछा कर रही होगी|

उसके स्टूडियो की खिड़की या तो खुली रहती थी या फिर उसके चिक वाले पर्दे ऊपर उठे रहते थे|वहीं से सबका कार-पार्किंग में जाने का रास्ता था | इसीलिए मैं जब भी कभी श्रेष्ठ के साथ बाहर जाती थी, उसे बताओ या न बताओ, वह पहरेदार की तरह हमेशा चौकन्ना रहता था, उसकी आँखों की चुभन मुझे अपनी पीठ पर महसूस होती रहती थी |

श्रेष्ठ के साथ मैं जब भी जाती थी, उसे बताकर ही जाती थी और वह अंदर से परेशान हो जाता, बाहर ज़रूर दिखावा करता रहता था और आते ही किसी न किसी तरह मुझसे उगलवा ही लेता कि उसके साथ मेरी मीटिंग कैसी रही?श्रेष्ठ के साथ मेरे जाने में उसे डर लगता लेकिन प्रमेश के साथ मेरे जाने में शायद वह अधिक ही कॉन्फिडेंस था | पूछता तो ज़रूर था कि मेरी डेट उसके साथ कैसी रही? लेकिन मुझे उसके चेहरे मोहरे या प्रश्न में एक लापरवाही नज़र आती थी जो श्रेष्ठ के साथ जाने के समय नहीं दिखाई दी थी |

अक्सर मुझे इस बात का अहसास भी होता था कि वे दोनों आँखों ही आँखों में एक दूसरे के साथ न जाने किस जनम की दुश्मनी दिखाते थे|मुझे मन ही मन खूब हँसी आती रहती लेकिन सच ही जब श्रेष्ठ ने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया था, मैं अंदर ही अंदर सहम गई थी | उसके बाद ही तो मैंने ‘आचार्य’प्रमेश बर्मन के बारे में थोड़ा सा सोचना शुरू किया था | मैंने सोच लिया था कि यदि बात आगे बढ़ती भी है तो मैं उससे स्पष्ट कह दूँगी कि मैं अपने नाम के आगे-पीछे कुछ बदलाव नहीं करूंगी | जैसे लोग अब मुझे पुकारते हैं, वैसे ही पुकारेंगे |

मेरे मन में एक बात और थी कि मैं किसी के साथ भी रिश्ता आगे बढ़ाने की सोचूँ लेकिन केवल उत्पल तुम ही क्यों रहते हो हर पल मेरे सामने? मैं घबरा जाती हूँ, तुमसे नहीं, अपने से---

हर साँस में, हर पल में तेरी बात रहती है, 

तमाम रात सोचती हूँ तुझको ही तो----