Prem Gali ati Sankari - 99 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 99

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प्रेम गली अति साँकरी - 99

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‘किसी लड़की के साथ इतने नाज़ुक विषय पर बात करने की ऐसी शुरुआत कितनी बोरिंग थी? ’मैंने सोचा | हाँ, लेकिन शायद उसका अपना तरीका था या वह जानता ही नहीं था कि किसी लड़की को ‘डेट’पर ले जाने का क्या मतलब होता है ? प्रमेश की दीदी अम्मा की जान खाती रही थीं कि प्रमेश और अमी को डेट पर जाना चाहिए | यह एक रिश्ते की शुरुआत थी और उसकी दीदी शायद उसे यह पाठ पढ़ाना भूल गई थीं कि वह मुझसे कैसे बात करे? वैसे इतने बड़े आदमी को यह सिखाना पड़े, कमाल ही था न !

“अमी जी ! आई बिलीव इन फ़ैमिली लाइफ़ ---”

पाँच मिनट के अंदर उसने दूसरी बार इस बात को दोहरा दिया| मुझे क्या बोलना चाहिए था आखिर इस बारे में? फ़ैमिली लाइफ़? ठीक है लेकिन ऐसे ही हो जाएगी क्या ? अभी तो हम एक दूसरे के नाम से भी ठीक प्रकार से परिचित नहीं थे, एक दूसरे से क्या होते? पहली बार ही बात करने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे, तो क्या कहता? करने की बात तो बड़ी दूर की थी| आखिर मैं चाहती क्या थी? श्रेष्ठ मेरे साथ कुछ अधिक ही खुलकर आ रहा था और यह बंदा किसी आवरण में, एकदम सपाट---क्या मेरी ज़िंदगी में हर चीज़ एक्सट्रीम में होनी ज़रूरी थी? इंसान हर बात को खुद से रिलेट करने लगता है ‘मेरी लाइफ़? ’वह हर बात में यही सोचता है कि दुनिया भर में केवल उसके साथ ही अन्याय हो रहा है| खुद के भीतर झाँकना तो वह ज़रूरी ही नहीं समझता| 

वैसे उसका सूखे से सपाट चेहरे को लगातार ताकना मुझे असहनीय लगने लगा था| वह कह रहा था कि फैमिली लाइफ़ में बिलीव करता है तो फैमिली लाइफ़ के लिए ही तो हम मिल रहे थे लेकिन स्पष्ट होना ज़रूरी था न ! उसका मतलब कहीं पत्नी को घर और बिस्तर तक सीमित रखने का तो नहीं हो सकता था, होना तो नहीं चाहिए था | वह कई वर्ष से हमारे परिवार को देख रहा था | 

श्रेष्ठ ने डेटिंग के लिए जिस प्रकार से मुझसे बात करनी चाही थी, उसने कुछ और ही तस्वीर बनाई थी लेकिन प्रमेश ने जिस प्रकार सामने बैठकर ‘फ़ैमिली लाइफ़’की बात की थी, वह अलग ही तस्वीर बना रही थी| यार ! कुछ तो बोलो मुँह से, सीधे परिवार बनाने चल दिए, अगर इतना ही परिवार का शौक था तो क्यों जल्दी परिवार नहीं बनाया परिवार? बूढ़े होने की प्रतीक्षा कर रहा था क्या? मन में उसे देखते हुए मैं खुँदक खा रही थी | मेरे पास अब न तो उम्र का इतना हिस्सा बचा था कि मैं प्रतीक्षा में और कुछ समय निकाल देती और वह तो काफ़ी बड़ा था मुझसे | परिवार बनाने में तो बच्चों की भी जरूरत होती है न पुल की तरह! समय बीत रहा था और ऐसी स्थिति आ सकती थी कि मैं बच्चा जन्मने के काबिल ही नहीं रहती | वैसे मुझे बच्चों में अब कोई रुचि नहीं रह गई थी क्योंकि उम्र के बढ़ने के साथ बच्चों की ज़िम्मेदारी उठानी आसान तो होती नहीं है | 

“यू कैन एडजस्ट इन माई फ़ैमिली ? ”उसने अचानक एक और पागलों का सा प्रश्न पूछा| 

“ज़िंदगी को एडजस्ट ही करना पड़ता है हर जगह, नथिग न्यू? ”मैंने अनमना सा उत्तर दिया | 

“ओह ! यस----” उसने मेरी बात को स्वीकारा | 

“अमी जी ! आई डोन्ट बिलीव इन रिलेशन बिफ़ोर मेरैज---” प्रमेश ने अचानक कहा| 

‘ये कहना क्या चाहता है? ’मैंने सोचा | क्या मैं इसके साथ यहाँ----? 

“अमी जी ! अगर हम मैरेज करने की बात सोच सकते हैं तो आज ही इस बात का फैसला ले सकते हैं| ”मतलब? मैं पशोपेश में थी | 

“हम एक-दूसरे का स्वभाव तक भी नहीं जानते, इतनी जल्दी फैसला कैसे ले सकते हैं? ”मैंने कहा| 

“आपको क्या लगता है, हमें फिर मिलना चाहिए? ” क्या पागलपने की बात कर रहा है? 

“बिना बातें किए कैसे एक-दूसरे का स्वभाव जानेंगे? आप तो प्रमेश बहुत कम बात करते हैं? ” मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था आखिर क्या बोलूँ उसे? 

“ऐसा नहीं है, डिपेंड करता है| मैं आपकी फ़ैमिली को अच्छी तरह जानता हूँ और आपके स्वभाव को भी | ”

“यू थिंक, यू नो माइ नेचर---? ” कैसी बात कर रहा है? हाँ, वह मुझे हर रोज़ देखता था तो मेरे तौर-तरीके से वकिफ़ हो भी सकता है लेकिन उतना जानना काफ़ी होता है क्या जीवन भर की पार्टनरशिप के लिए? 

हाँ, वैसे यह भी ठीक था, सोचकर देखा जाए तो---एक ही जगह और एक ही छत के नीचे रहकर भी दो इंसान जरूरी नहीं कि ताउम्र भी एक दूसरे से परिचित हो सकें| 

“आइ थिंक सो---”प्रमेश ने कहा| 

“अमी जी ! यू आर ए जीनियस वुमैन एंड आइ लाइक युअर स्टाइल एंड पर्सनैलिटी---” मुझे महसूस होने लगा ये ‘जी’ का पुछल्ला उसे मेरे साथ लगाने की ज़रूरत थी? क्या मैं उसकी गुरु थी जो यह पुच्छल्ला वह मेरे लिए हर पंक्ति में लटका रहा था? 

“क्या इतना जानना काफ़ी है एक साथ ज़िंदगी बिताने के लिए ? ”मैंने सपाट स्वर में पूछा| 

“और सब धीरे धीरे समझ आ जाता है----” वह पहली बार मुझे कुछ कॉन्फिडेंट सा दिखा| 

“एक बात इंपोर्टेन्ट है न, दीदी सामिष भोजन नहीं करता तो हमारे घर में सामिष नहीं बनता | आई नो यू ऑल आर वेजीटेरियन---”उसने बहुत धीमे से मुझे यह बात बताई| शायद उसकी बहन ने यह अम्मा से पहले ही बताया हुआ था तभी वे इस रिश्ते के लिए सोच रही थीं और प्रमेश की बहन तो उनकी जान खा रही थीं| 

मेरे लिए यह एक महत्वपूर्ण बात थी| मैं अम्मा-पापा के माध्यम से जानती थी कि मौसी की शादी भी बंगाली परिवार में हुई थी लेकिन उनके लिए अलग खाना बना करता था | पहले उनका संयुक्त परिवार था फिर सब धीरे-धीरे अलग रहने लगे और फिर मौसी के कारण मौसा जी ने अपनी पत्नी के अनुसार जीवन-शैली अपना ली और उनका परिवार सुखी और आनंदित था| 

मजेदार बात है न कि इंसान की ज़िंदगी पेट से शुरू होकर पेट के ही चारों ओर घूमती रहती है| पेट न हो तो इंसान ऐसा तो न होता फिर शरीर की और जरूरतें? क्या-क्या खुराफ़ातें मेरे मस्तिष्क में चक्कर काटती रहती थीं लेकिन गलत तो नहीं था मेरा सोचना भी ! मैं अपने आपको जस्टीफ़ाई करती रहती थी| 

एक बार उत्पल मुझे कुछ सुना रहा था फिर न जाने किस बात पर बोल उठा;

“मालूम है, अँग्रेज़ी अल्फ़ाबेट्स कितनी अच्छी बातें सिखाते हैं हमें---ABC मतलब avoid boring company.”

“यहाँ किसकी बोरिंग कंपनी है जिसे अवाइड किया जाए? ”मैंने उसे चिढ़ाते हुए पूछा था| 

“तुम्हारी---? ” मैंने कहा तो वह खिसियाने की जगह ठठाकर हँस पड़ा था| 

“आपको टिप दे रहा हूँ----और आप मुझे ही---दूध की मक्खी सी निकालने के मूड में हैं---”अपनी आदत के अनुसार उसने हँसकर कहा था | 

उसने कहीं आज के लिए टिप तो नहीं दी थी? मैं सोचने लगी और प्रमेश के चेहरे पर एक खोजी दृष्टि फिराने लगी| 

“हम कई ऐसे प्वाइंट्स पर सोच सकते हैं जिससे बेहतर ज़िंदगी जी सकें---आपकी हॉबी भी तो नृत्य और संगीत है| ”प्रमेश ने अब कुछ बोला तो सही और मैं उत्पल की परछाईं से निकलकर प्रमेश के सामने आ उपस्थित हुई| 

“मेरी तो बहुत हॉबीज़ हैं, मैं लोगों से मिलना पसंद करती हूँ, अच्छा साहित्य पढ़ना, फोटोग्राफ़ी और हाँ, सबसे बड़ी बात मुझे हँसना बहुत पसंद है | कोई भी परेशानी हो, उससे जूझना पसंद है | ”कहकर मैंने प्रमेश के चेहरे पर एक गहरी दृष्टि गडा दी| 

“आइ एम नॉट वेरी एक्स्ट्रावर्ट बट दैट इज़ माइ नेचर, यू हैव योर नेचर ---एवरीबड़ी हैज़ ओन नेचर---यू जस्ट सैड---एडजस्टमेंट सबको करना होता है !” प्रमेश ने कई बातें कॉकटेल कर डालीं | 

उस पहली डेट में मेरी समझ में तो कुछ आया नहीं, और कुछ देर बैठकर हम उठ खड़े हुए और अपने–अपने मन में न जाने क्या सोचते हुए घर वापिस आ गए | स्वाभाविक था, अम्मा मुझसे पूछतीं| उन्होंने पूछा भी और मैंने बताया भी दिया कि कुछ समझ नहीं पा रही थी| मैं अम्मा के माथे की गहरी होती हुई लकीरों को हर रोज़ ही गिन रही थी| वे हर पल सुगबुगातीं ;छोटी सी ज़िंदगी के महत्वपूर्ण हिस्से निकले जा रहे हैं, जितने हैं, उन्हें तो जी लें | 

क्या मैं नहीं जानती, समझती थी यह सब कुछ लेकिन एक समय पर्दा ही तो पड़ा रहता है बुद्धि पर! परछाइयों को गिनता हुआ मन कब स्वयं भी परछाईं बन जाता है, पता भी नहीं चलता| हम उसकी ओर हाथ बढ़ाते रह जाते हैं और वह है कि ऐसे ढलता हुआ दिखाई देता रहता है जैसे पूरब की ओर अपनी लालिमा और ऊर्जा लेकर सूर्य देदीप्यमान होता है और क्रमश: पच्छिम की ओर धीमी गति के दृश्य सा नीचे समुद्र में उतर जाता है | पता नहीं, ये चित्रात्मकता मेरे भीतर कबसे उतर आई थी और मुझे पता भी नहीं चल था!!