सागर के बहते आँसुओं और उनके दुःख का एहसास वैजंती को हो रहा था। वह गलती से हुए उनके उस दर्द को समझ रही थी जो अनजाने में ही उनसे हो गई थी। अपने एक ही हाथ से हाथ जोड़ने की कोशिश करते हुए उसने कहा, “साहब जी हम जानते थे, आप अपनी बेटी को ढूँढते हुए इधर ज़रूर आएंगे।”
तब तक सागर की नज़र सुखिया के बनाए सुंदर रंग बिरंगे मिट्टी के बर्तनों पर पड़ गई। उन्होंने उन खिलौनों और बर्तनों को तब ध्यान से देखा तो उनके मुँह से अनायास ही निकल गया, “वाह अद्भुत, कितने सुंदर बर्तन, खिलौने और यह मटके हैं।”
वैजंती की तरफ़ देखते हुए सागर ने पूछा, “यह सब किसने बनाए हैं?”
वैजंती कुछ बोलती उससे पहले सुखिया ने कहा, “अंकल जी यह सब मैंने बनाए हैं लेकिन …”
सुखिया की बात सुनने से पहले ही सागर ने वैजंती से कहा, “आप बहुत बड़ी कलाकार हैं। क्या सफ़ाई से बनाया है आपने यह सब।”
“नहीं साहब यह सब तो मेरी बेटी सुखिया ने बनाए हैं। मेरा तो साहब एक हाथ ही टूटा हुआ है।”
सागर ने एक बार फिर नज़र उठाकर देखा। बिल्कुल उनकी अनाया की उम्र की छोटी-सी बच्ची में इतनी मेहनत कैसे …वह दंग थे। इतनी कला, इतनी लगन? उन्होंने देखा सुखिया के हाथ चाक पर मानो जादू कर रहे थे। उनकी नज़र वहाँ से हट ही नहीं रही थी ।
उन्होंने सुखिया की तरफ़ देखते हुए कहा, “बेटा इधर आओ, क्या नाम है तुम्हारा?”
आते हुए सुखिया ने अपने मिट्टी वाले हाथों को पानी की बाल्टी में डुबाया और वहीं पड़े एक कपड़े से हाथ पोछते हुए उसने कहा, “मेरा नाम सुखिया है अंकल।”
“तुम तो बहुत सुंदर बर्तन बनाती हो। क्या उम्र है तुम्हारी?”
“अंकल मैं 11 साल की हूँ।”
उनकी राजकुमारी भी तो इसी उम्र की है पर कितना फ़र्क़ है दोनों में। वह जानते थे कि यह फ़र्क़ दौलत और मजबूरी के कारण है।
तब उन्होंने अनाया से कहा, “बेटा तुम्हें जो भी खिलौने पसंद हैं सब ले लो।”
“सच पापा”
“हाँ बेटा”
सागर ने वैजंती की तरफ़ देखकर पूछा, “आप लोग कहाँ रहते हैं?”
“यहीं पास में एक छोटा-सा गाँव है, वहीं रहते हैं।”
“इसके पिता?”
“वह इस दुनिया में नहीं हैं …”
“तो यह सब तुम्हारी बेटी को किसने सिखाया है?”
सुखिया ने बीच में ही कहा, “अंकल यह सब मैंने अपने पिताजी से ही सीखा है।”
“कैसे बेटा?”
“उन्हें देख-देख कर …”
वैजंती ने बीच में ही कहा, “साहब वह तो सिर्फ मटके, दीये और चिलम ही बनाते थे। यह सब तो इसने न जाने कैसे ख़ुद से ही सीख लिया। मैं ख़ुद हैरान हूँ, बनाने के बाद ख़ुद ही रंग भरकर चित्रकारी भी करती है।”
अपने चश्मे को आँखों पर चढ़ाते हुए सागर ने वैजंती से कहा, “आपकी बेटी बहुत होनहार है। ऐसा लगता है माँ सरस्वती ने इस बच्ची के हाथों में भर-भर कर कला बांट दी है। मैं तुम्हारे इन खिलौनों, मटकों आदि सभी वस्तुओं को बेचने के लिए शहर में एक बड़ी दुकान बना कर दूंगा। तुम वहाँ से अपना यह सामान बेचना।”
“साहब जी आप यह सब क्या कह रहे हैं? इतना एहसान आप हम पर क्यों …?”
“यह एहसान नहीं है। यह तो एक लड़की की कला का मान सम्मान है और आपने मुझ पर जो एहसान किया है उसका कर्ज़ तो मैं अपनी पूरी दौलत देकर भी नहीं उतार सकता। लेकिन हाँ इस बच्ची को आगे बढ़ने का अवसर ज़रूर देना चाहता हूँ, जिसकी वह सच में हकदार है। तुम्हारे खिलौनों का तुम्हें शहर में बहुत ज़्यादा दाम मिलेगा। ऐसे बच्चे बहुत कम होते हैं जो इतनी छोटी उम्र में ऐसा काम कर जाते हैं कि सामने वाला देखकर अचरज में पड़ जाता है। इस बच्ची में भी वही गुण समाया है।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः