वैजंती ने रोती हुई अनाया को बड़े ही प्यार के साथ अपने पास बुलाकर बिठाया और उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “डरो नहीं बिटिया, तुम्हारे पापा तुम्हें ढूँढते हुए यहाँ ज़रूर आ जाएंगे।”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“अनाया …” उसने रोते हुए कहा।
सुखिया के हाथ अब भी चाक पर घूम रहे थे। सुखिया भी थी तो उसी की उम्र की लेकिन उससे कहीं ज़्यादा परिपक्व थी, जिसका कारण था हालात।
खैर सुखिया ने उससे कहा, “देखो मैं कैसे बर्तन बनाती हूँ इसके ऊपर। तुम भी बनाओगी अनाया?”
सुखिया चाह रही थी कि किसी तरह से वह रोना बंद कर दे। सुखिया का उससे यह प्रश्न पूछना काम कर गया और अनाया अब सुखिया के पास आकर बैठ गई। दोनों एक दूसरे की तरफ़ देख रही थीं तभी सुखिया ने उसका हाथ पकड़ कर चाक पर रखा। अनाया दंग होकर चाक को देख रही थी और अब धीरे-धीरे मुस्कुरा भी रही थी।
उधर सागर का बात करना ख़त्म होते ही उन्होंने कहा, “चलो अनाया, तुम्हें यह सब बड़े वाले झूले …,” पीछे देखते ही सागर के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई।
अनाया तो उनके साथ थी ही नहीं। सागर ने आसपास चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई। हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही थी। सागर की आँखों से अश्क बह निकले। इतनी भीड़ में कैसे ढूंढूँ अपनी बेटी को, यह प्रश्न उन्हें खून के आँसू रुला रहा था। बात करते-करते वह काफ़ी आगे निकल आए थे। लगभग 10 मिनट हो चुके थे। उन्हें तो यह याद ही नहीं था कि अनाया उस मिट्टी के खिलौने की छोटी-सी दुकान पर रुक गई होगी। वह जहाँ से चल कर आए थे उसी तरफ़ उनके क़दम वापस मुड़ गए। यह समय उन्हें वर्षों लंबा लग रहा था। हर पल इतना भारी लग रहा था जिसका वज़न उठाने में उनके पैर काँप रहे थे। जहाँ वह थे वहाँ से सुखिया की दुकान तक पहुँचने में उन्हें जो समय लगा, वह उनके जीवन का सबसे दर्दनाक समय था। जिसे दर्द भरा बनाने में वह स्वयं को ही ज़िम्मेदार समझ रहे थे।
इन 15 मिनटों में उन्होंने न जाने क्या-क्या सोच लिया था। सुखिया की दुकान के नज़दीक पहुँचते ही सागर को उनकी बेटी चाक पर बैठी मुस्कुराती हुई दिखाई दे गई। उसे देखते ही उनके बेचैन मन को चैन मिल गया। वह सुकून उन्हें इस समय स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था। अनाया के हाथ मिट्टी में सने हुए थे। सुखिया और वैजंती दोनों उसके पास बैठे उससे बातें कर उसे बहलाने की भरपूर कोशिश में लगे हुए थे। वैजंती दोनों बच्चियों को अपने हाथों से बिस्किट खिला रही थी। यह दृश्य देखकर सागर का मन सुखिया और वैजंती का एहसान मंद हो गया।
उन्होंने वहाँ आते ही आवाज़ दी, “अनाया मेरा बच्चा!”
अनाया ने ख़ुश होकर दौड़ते हुए सागर के पास आकर मिट्टी वाले हाथों से गोदी में चढ़ कर कहा, “पापा आप कहाँ चले गए थे। मैं कितना डर गई थी। पापा यह सुखिया है, देखो कितने अच्छे खिलौने बनाती है। यह मुझे भी सिखा रही थी।”
वैजंती ने उठते हुए कहा, “साहब जी माफ़ कर दीजिए। आपकी बच्ची रो रही थी इसीलिए उसे फुसलाने के लिए इस मिट्टी में …”
“अरे ऐसा मत कहिए आप, आपने तो आज मुझ पर वह एहसान कर दिया है, जिसका कर्ज़ तो मैं जीवन में कभी भी उतार नहीं पाऊँगा। सागर ने रुमाल से अपने आँसुओं की बहती धार को रोकते हुए कहा, मैं आपका शुक्रिया कैसे अदा करूं, मुझे समझ नहीं आ रहा है। अच्छा हुआ आपने मेरी बच्ची को यहाँ रोक लिया वरना इस भीड़ में ना जाने वह कहाँ गुम हो जाती। उसके साथ न जाने क्या अनहोनी हो जाती, सोचता हूँ तो रूह काँप जाती है।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः