Amma Mujhe Mana Mat Karo - Part - 6 in Hindi Motivational Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 6

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अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 6

जिस मेले का इंतज़ार सुखिया कर रही थी उस मेले में आने की चाह आसपास के गाँव के लोगों में भी उत्साह भर रही थी। सागर उसी शहर में रहने वाले एक बहुत बड़े बिज़नेस मैन थे। इस मेले के बारे में पता चलते ही उन्हें भी उनकी बेटी अनाया को यह शानदार मेला दिखाने की इच्छा हो गई।

जब उनके घर में अनाया को मेला दिखाने की बात चल रही थी, तब उसकी मम्मी नैंसी ने उससे कहा, “अनाया अपने शहर में एक बहुत ही सुंदर मेला लगा है। तुम्हें वहाँ जाकर बहुत अच्छा लगेगा। बहुत सी नई-नई चीजें देखने को मिलेंगी। तुम श्याम अंकल के साथ मेला देखने चली जाना।”

अनाया ने कहा, “नहीं मम्मा मैं उनके साथ नहीं जाऊंगी, मुझे तो पापा के साथ ही जाना है।”

सागर ने कहा, “नहीं बेटा, यह संभव नहीं है।”

“नहीं पापा, मुझे आपके साथ चलना है, या फिर जाना ही नहीं है।”

“अनाया बहुत काम है ऑफिस में बेटा।”

“काम-काम-काम वह तो हमेशा ही रहता है,” कहते हुए 10 वर्ष की अनाया ने रोना शुरू कर दिया।

अपनी लाडली बेटी के आँसू कहाँ देख सकते थे सागर। उसके आँसुओं को पोंछते हुए उन्होंने कहा, “रो मत अनाया चलो तैयार हो जाओ। इस बार हम भी तुम्हारे साथ मेला देखने चलेंगे।”

सागर ने अपनी पत्नी की ओर देखते हुए कहा, “इस बच्ची के सामने मेरी कहाँ चलने वाली है।”

अनाया को तो बस अपने पिता की हाँ सुनने की देर थी। वह तुरंत ही तैयार होकर आ गई। उसके बाद अपने ड्राइवर भोला के साथ वह दोनों मेला देखने आ गए। भोला ने पार्किंग में गाड़ी लगा दी। सागर और अनाया मेला देखने अंदर चले गए।

उधर सुखिया को मेले में एक वृक्ष के नीचे जगह मिल गई। उसने अपनी माँ की मदद से उनकी देखरेख में सारा सामान जमा लिया। सुखिया ने वहाँ पर अपने चाक का इंतज़ाम भी कर लिया था; ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग आकर्षित होकर उसकी तरफ आएं। सुखिया के पिता रामदीन ने कभी वहाँ पर अपना चाक नहीं घुमाया था लेकिन सुखिया के छोटे से दिमाग में यह बात ज़रूर थी कि उसके नन्हे हाथों को चाक पर घूमता देखकर लोग ज़रूर आकर्षित होंगे। छोटे-छोटे हाथों वाली नन्ही सुखिया के हाथ भले ही छोटे थे पर उसकी सोच बड़ी थी। मेहनतकश होने के साथ ही साथ वह आत्मविश्वास की भी धनी थी।

अनाया अपने पापा के साथ मेले का उछलते कूदते आनंद ले रही थी। कभी झूलों पर बैठती, कभी कठपुतली का नृत्य देखती। सागर उसे खिलौनों की बहुत बड़ी दुकान में ले गए लेकिन अनाया को वहाँ कुछ भी पसंद नहीं आया क्योंकि वह सब तो पहले से ही उसके पास था। घूमते-घूमते वह सुखिया की छोटी सी दुकान के पास आई। वहाँ चाक पर चलते सुखिया के हाथों को देखकर उसके कदम वहीं रुक गए और आँखें सुखिया के हाथों पर अटक गईं।

दो पल के बाद उसे मिट्टी से बने रंगीन सुंदर खिलौने दिखाई दिए तो उसने सागर से कहा, “पापा मुझे यह खिलौने चाहिए।”

“अनाया यह मिट्टी के बर्तन लेकर क्या करोगी? चलो यहाँ से, मैं तुम्हें इससे बहुत ज़्यादा अच्छे खिलौने दिलवाऊंगा,” इतना कहते ही सागर के मोबाइल की रिंग बजने लगी।

सागर ने देखा कोई बहुत ही महत्त्वपूर्ण कॉल था। सागर ने फ़ोन उठाने के लिए अनाया की उंगली जो उन्होंने पकड़ रखी थी उसे छोड़ा। बात करने की धुन में वह आगे निकल गए और अनाया वहीं सुखिया की दुकान के सामने खड़ी रह गई। वह उन खिलौने की तरफ़ इतनी आकर्षित हो गई कि उसे अपने पापा के चले जाने का आभास ही नहीं हुआ। कुछ ही पलों में सुखिया और वैजंती की नज़र अनाया पर पड़ गई।

वैजंती ने उसे देखते ही पूछा, “तुम्हें क्या चाहिए बेटा?”

रंग-बिरंगे खिलौनों की तरफ़ इशारा करते हुए उसने कहा, “वह खिलौने चाहिए।”

“लेकिन तुम्हारे साथ कौन है? तुम किसके साथ आई हो?”

“यह है ना मेरे पापा …” कहते हुए अनाया ने जैसे ही अपनी नज़र घुमाई वहाँ सागर तो थे ही नहीं।

अनाया घबरा गई और पापा-पापा कहते हुए वह रोने लगी। तब वैजंती और सुखिया भी घबरा गए क्योंकि वह दोनों समझ गए कि यह बच्ची अपने पिता से बिछड़ गई है।


रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः