जब सुखिया केवल दस वर्ष की थी तब एक दिन अचानक उसको चाक घुमाता देखकर रामदीन की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसे ऐसा लग रहा था मानो सुखिया ऐसी अद्भुत कला अपने साथ खून में समेट कर ले आई है। सुखिया के हाथ चाक पर इस तरह घूम रहे थे मानो महीनों का अभ्यास करके आई हो। मिट्टी का वह खिलौना ऐसा रूप ले रहा था जैसा कि ख़ुद रामदीन बनाया करता था। इतनी छोटी उम्र और छोटे-छोटे हाथों से यह हो पाना असंभव नहीं तो अत्यधिक कठिन अवश्य ही था।
रामदीन ने आखिरकार सुखिया से पूछ ही लिया, “अरी सुखिया यह तू कब और कैसे सीखी है?”
“बाबू जी मैंने यह आपको देख-देख कर ही तो सीखा है। जब आप चाक पर काम करते हो, मैं आपको ही देखती रहती हूँ।”
“अरी सुखिया पढ़ाई-लिखाई कर ले वरना पूरी उम्र मेरी तरह मिट्टी से ही दोस्ती करनी पड़ेगी तुझे भी, समझी?”
सुखिया ने जवाब दिया, “बाबू जी मुझे इस मिट्टी से बहुत प्यार है। यह हमारा खानदानी धंधा है इसे हमें आगे ले जाना चाहिए, है ना माँ?”
“अरे सुखिया दो वक़्त की रोटी के अलावा और हमें इनसे मिलता ही क्या है?”
तभी वैजंती ने कहा, “सुखिया तू बस पढ़ लिख ले।”
“अरे माँ जाती तो हूँ मैं स्कूल। मैं अपनी पढ़ाई भी पूरी करूंगी और हमारी कला को भी जीवित रखूंगी, उसे भी सम्मान दूंगी। अम्मा हमारी वज़ह से ही तो लोग मटकों का ठंडा पानी पी पाते हैं।”
“अरे सुखिया फ्रिज खा गई है हमारे मटकों को। तू कहाँ की बात लेकर बैठी है।”
“पर माँ सब के पास फ्रिज खरीदने के लिए पैसा कहाँ होता है, हमारे पास भी नहीं है। गरीब लोगों को तो हम ठंडा पानी पिलाते हैं ना, बोलो? हम मेहनत करके नई-नई चीजें बनाएंगे तो लोग ज़रूर खरीदेंगे, देख लेना।”
उसकी नन्ही ज़ुबान से यह बड़ी-बड़ी बातें सुनकर उसके बाबू जी रामदीन तो मुस्कुरा दिए लेकिन माँ को चिंता सताने लगी।
धीरे-धीरे यह वर्ष भी पूरा हो गया और सुखिया अब 11 वर्ष की हो गई। वह स्कूल से आते ही अपने बाबू जी के साथ चाक पर काम करने आ जाती और उसकी कलाकारी देखकर रामदीन का सीना चौड़ा हो जाता।
एक दिन जब रामदीन बाज़ार से लौटा तो घर में सुखिया को ना देखकर उसने वैजंती से पूछा, “वैजंती सुखिया कहाँ है?”
“वह पीछे आँगन में अपने बनाए खिलौनों पर रंग लगा रही है। अरे बड़ी सुंदर चित्रकारी की है उसने, चलो तुम भी देखो।”
रामदीन ने बाहर आकर देखा तो उनकी आँखें वह चित्रकारी देखकर अचरज में पड़ गईं।
उन्होंने सुखिया से कहा, “सुखिया आज तेरे बनाए इस छोटे से सुंदर लोटे से मुझे पानी पिला दे। हाँ बाबू जी अभी लेकर आती हूँ, कहते हुए सुखिया उस छोटे से मटकी जैसे लोटे में पानी भर लाई।”
सुखिया के बनाए सुंदर लोटे को रामदीन ने बड़े ही ध्यान से देखा और कहा, “मछली के बच्चे को तैरना नहीं सिखाना पड़ता।”
उन्होंने पानी पीकर एक बहुत गहरी सांस ली। उस गहरी सांस के साथ ही उनके हृदय ने उन्हें धोखा दे दिया। रामदीन ने वक़्त से पहले ही इस दुनिया से मुँह मोड़ लिया।
सुखिया की माँ वैजंती आँसू बहाते हुए चिंता में सोच रही थी कि अब आगे क्या होगा? रामदीन ने तो आधी राह में ही धोखा दे दिया, अकेला छोड़ गए माँ बेटी को। वह स्वयं एक हाथ से अपंग है और सुखिया अभी बच्ची है। यह कैसी परीक्षा ले रहा है ऊपर वाला। इसे ही तो कहते हैं गरीबी में आटा गीला होना।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः