Prem Gali ati Sankari - 97 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 97

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प्रेम गली अति साँकरी - 97

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मैंने अपने आपको प्रमेश से बात करने के लिए तैयार तो कर लिया था लेकिन मन से अस्वस्थ महसूस कर रही थी | उत्पल मेरे दिमाग के आसमान पर टिमटिमा रहा था लेकिन जाने क्यों मुझे लगा कि आसमान से टपकने वाली बरखा की बूंदें उसकी आँखों में सिमट आई हैं | मुझे मह्सूस हुआ कि मैं कहीं उन आँसुओं में सिमट तो नहीं जाऊँगी? मैं असहज थी, बहुत असहज---नहीं होना चाहिए था लेकिन थी और कारण था कि अंतरा ने जाने से पहले मुझे बताया था कि कोविड में जो कलकत्ता में गुज़र गईं थीं वो उत्पल की मौसी नहीं थीं, वो उसकी माँ थीं जो उत्पल भी नहीं जानता था | कमाल है! मन ने सोचा, ऐसे कैसे कि बच्चे को पता ही न लगे कि उसको जिसने पाला है वह उसकी माँ ही है | वैसे देखा जाए तो मुझे मतलब क्या था उससे? लेकिन मन है कि सोचता ही रहता है उन बातों, उन लोगों के बारे में जिनसे परोक्ष रूप में कोई मतलब ही न हो | यह मन कहाँ खाली रहता है मरा---कितनी कोशिश कर लो, कितने मैडिटेशन पर बैठ जाओ लेकिन ये मन ही तो सारी मुसीबत की जड़ है | किसी के प्यार में इतना पागल हो जाएगा कि जानते हुए भी कि उसे पाना संभव नहीं है अथवा सामाजिक बंधनों के अनुसार ठीक नहीं है फिर भी उसी की तरफ़ पवन में उड़ती पतंग की भाँति खिंचता ही रहेगा | 

“ऐसा कैसे ?” मैंने बेबात की उत्सुकता दिखाई थी | 

अंतरा में और मुझ में उम्र का काफ़ी अंतर था लेकिन खुले हुए हम पहले से ही थे | ऐसे होता है कभी कभी, बेशक उम्र का अंतर हो लेकिन मानसिक स्तर, सोच इतनी एकसी होती है कि हम एक-दूसरे को समझ सकते हैं | ज़िंदगी की सतह पर चलने वाले झौंके इधर से उधर टक्कर मारते रहते हैं और संवेदना के भँवर में फँसा आदमी उनके साथ सिर टकराता रहता है | 

उत्पल उन्हें अपनी मौसी समझता रहा, उसके अनुसार मौसी ने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया फिर वह अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए संघर्ष करने लगा और कोशिश की कि वह ‘सैल्फ़ मेड’बने | वह मौसी पर अपना बोझ डालना नहीं चाहता था | उन्होंने भी उसे अपने पास रहने के लिए अधिक ज़ोर नहीं दिया और इस प्रकार वह अपने जीवन के संघर्ष में अपने आप कूद पड़ा | 

“लेकिन ऐसा क्यों?” मुझे उत्सुकता हुई और जिज्ञासावश मैंने सोचा भी कि उससे पूछ लिया जाए लेकिन अंतरा ने मुझे मना कर दिया था कि मुझे उससे जुड़े हुए कोई भी पुराने किस्से छेड़ने नहीं चाहिएँ | वह बहुत पीड़ा में जीया है | अंतरा ने जो मुझे इशारा किया वह था कि उसकी माँ नहीं चाहती थी कि उसे अकेला समझकर समाज की दृष्टि उन पर पड़े | घर से चले जाने पर वैसे ही उसके लिए कई रास्ते बंद हो चुके थे | पति की जल्दी ही मृत्यु के बाद वह अपने शहर में कुछ दिन ही रहीं और अवसर मिलने पर वहाँ से काफ़ी दूर दूसरे शहर में आ बसीं जहाँ उन्होंने खुद को विधवा घोषित नहीं किया | उन्हें डर था कि समाज की नज़रों में उनका स्थान क्या रह जाएगा | वे ऐसे जीने लगीं जैसे एक विवाहिता स्त्री हों | बाद में उन्हें आकाशवाणी में काम मिल गया | उन्होंने उत्पल को यही बताया कि वह उसकी मौसी हैं | जब प्रश्न उठा उनकी माँग और वैवाहिक चिन्हों और उत्पल का, उन्होंने वहाँ सबको बताया कि उनके पति विदेश में व्यापार करते हैं | व्यस्तता के कारण बाहर रहते हैं और उत्पल उनकी बहन का बेटा है जिसके माता-पिता नहीं रहे | कुछ बड़ा होने पर बिना वास्तविकता जाने उत्पल वहाँ से निकल ही गया था | ऐसा गडमड क्यों होता है जीवन? क्यों मनुष्य अपने ही घेरों में फँसकर तड़पता रहता है?बहुत सारे प्रश्नों के मझधार में मन डांवाडोल हो रहा था | 

मुझे उत्पल के जीवन की बात एक कहानी सी लगी लेकिन अंतरा ने मुझे कुछ भी न पूछने का इशारा किया था | वैसे भी मुझे उससे दूर ही रहना था इसलिए उसके अंतरंग जीवन में प्रवेश करने का कोई अर्थ तो था नहीं | कुछ ऐसी पीड़ाएं होती हैं जिन्हें न पूछा जा सकता है, पूछ भी लें तो आसानी से साझा नहीं किया जा सकता और साझा कर भी लें तो पूरी तरह समझा नहीं जा सकता | उत्पल में कुछ ऐसी चीज़ें थीं जो उसकी ओर आकर्षित करती थीं जैसे उसमें एक ऐसी बचपने की झलक बनी रहती थी जो सरल, सहज थी | उसका यह बचपन का सा अंदाज़ उसकी ओर सबको ही खींचता | अम्मा-पापा को तो वह बहुत प्यारा था | 

मेरे लिए केवल एक-दो बातें महत्वपूर्ण थीं जिनमें था अम्मा-पापा को अपनी चिंता से मुक्ति और उत्पल के साथ कोई ऐसा हादसा न बन जाए जिसके लिए मेरे कारण किसी को भी मानसिक त्रास झेलना पड़े | 

कैसी थी मैं?शारीरिक सुख के बारे में मैंने उस समय तो सोचा ही नहीं जब युवावस्था में यह एक ज़रूरत के रूप में होता है | सोचा ही नहीं जब युवा भावनाओं, संवेदनाओं को सबसे अधिक ज़रूरत होती है | सच कल्पनाओं की बातें सच महसूस होती है, पवन के बहाव के साथ लहलहाता मन हिलोरें मारता है | अब जब जिस खालीपन को झेलने में मुझे पीड़ा हो रही थी तब मैं अपने प्रति गंभीर होने लगी | जीवन की उधेड़-बुन में घिसटते जाना, मुझे अपनी बहुत बड़ी हार महसूस हुई | वैसे जीवन में हार-जीत जैसा भी कुछ होता है क्या?मन अक्सर इस प्रकार की दुविधाओं में फँसा स्वयं को व्यर्थ ही तोलता रहता | 

दोस्त मुझे मूर्ख समझने लगे थे, मैं एक आम लड़की थी, लड़की कहाँ रह गई थी, प्रौढ़ स्त्री में परिवर्तित हो गई थी लेकिन किसी से उलझना क्या भला?आप ठीक हैं, मैं गलत हूँ, स्वीकार लेती हूँ न ! मैं मन में हर बार सोच रही थी और उतनी ही अपने ऊपर खीजने लगी थी और स्वयं को असमान्य महसूस करने लगी थी | 

अंतरा का परिवार वापिस जर्मनी लौट गया लेकिन उसकी बातें मेरे मन-मस्तिष्क में सदा के लिए जैसे खुद गईं | उत्पल की अंतरंग बातें अंतरा से पता चल गईं थीं लेकिन असमंजस से भरीं | हम सब एक दूसरे के बारे में जानते थे कि हममें से कोई भी बिना बात किसी के फटे में टाँग नहीं अड़ाते हैं लेकिन बिना अड़ाए भी टाँग फटे में चली ही जाती थी | 

मैंने उत्पल की ओर से जबरदस्ती अपनी दृष्टि हटाने का प्रयास किया और कल्पना की कि मैं अपना परिवार बनाकर उसमें इनवॉल्व हो जाऊँगी | हर किसी में सब चीज़ें सकारात्मक नहीं मिलती हैं आखिर ‘हू इज़ परफेक्ट इन दिस वर्ल्ड?’फिर स्वयं में भी झाँका और पाया कि मुझमें स्वयं में कितनी कमियाँ हैं, ऐसा कैसे हो सकता है कि हर इंसान दूध सा उजला ही हो | अगर मुझे अपने पारिवारिक जीवन के बारे में सोचना है तो किसी ऐसे बंदे के बारे में पॉज़िटिव तो होना पड़ेगा न जिसके साथ रहकर मानसिक शांति से तो रहा जा सके | 

वैसे प्रमेश को देखकर लगता कि आखिर इसने क्या खाकर जन्म लिया होगा ?फिर मैं खुद ही मन में ज़ोर से हँसी | हद्द होती है न पागलपन की बच्चा तो माँ के द्वारा खाए गए खाने को ही खाकर जन्म लेता है | हाँ, शायद मेरा मन यह सोच रहा था कि प्रमेश की अम्मा ने क्या खाकर उनको जन्म दिया होगा?अपने संस्कारों के वशीभूत मैं इस प्रकार से कह क्या सोच भी नहीं सकती थी | 

बार-बार एक बात बहुत शिद्दत से मन को चीरती थी कि आखिर कला के पुजारी होकर भी प्रमेश ऐसे सपाट क्यों थे? अम्मा ने एक बार बातों-बातों में कहा था कि हर मनुष्य का अपना स्वभाव होता है जिसको कोई बदल नहीं सकता लेकिन जब तक हम किसी के भीतरी मन को समझ न सकें तब तक किसी के बारे में कोई भी निर्णय लेना ठीक नहीं होता |  इतने लोगों के प्रपोज़ल्स को ठुकराते हुए क्या मैं अपने आपको हूर की पारी समझती रही होऊँगी? मस्तिष्क भिनभिना जाता !!