मांगने से जो मौत मिल जाती
तो कौन जीता इस जमाने मे ?
आखिरी 72 घटों से मैं मुंबई
अस्पताल के आई सी सी यु के बिस्तर में पड़ा जिंदगी और मौत के बीच लुप्पा छिप्पी का खेल
खेल रहा हूं. यम राजा का साया मेरे सिर पर मंडरा रहा था.
चंद घड़ी का मेहमान होने का अहसास कुछ राहत दिला रहा हैं. फिर भी पामर जीव जिंदगी की उंगली छोड़ने को तैयार नहीं.
हर घड़ी मरने से एक बार मर जाना बेहतर होता हैं.
दिल का दौरा मुझे यहाँ घसीट लाया हैं. न जाने कौन कौन सी बीमारिया भागीदार बनी हैं.
बर्फ की पाट, मिर्ची पावडर ओर सककर के पानी से जुड़े सभी दृश्य मेरी आंखो के सामने नर्तन कर रहे हैं.
आदत के मुताबिक सी बी आई अफसर के सामने झूठ बोला जिस का मुझे बहुत ही भारी जुर्माना भरपा करना पड़ा.
उन्होंने सच्चाई बताने का मुझे आदेश दिया था जिस का मैंने अनादर किया था.
उस की वजह से मेरा बुरा हाल कर दिया गया था. जान बचाने के लिये मुझे सब कुछ बताना पड़ा था.
तब मेरी जमानत कबूल हुई थी. ओर मुझे छोड़ दिया गया था.
लेकिन बताये बिना मुंबई से बाहर जाने पर कड़ा प्रतिबंध जारी किया गया था.
ओर दूसरे ही दिन मैं नियत समय पर नीचे मुंह दफ्तर में पहुंच गया.
तब?
मेरी केबिन बाहर लगाई गई नेम प्लेट गायब थी.वह देखकर मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था. कंपनी से मेरा नाता टूट जाने का ख्याल आया था.
यह काम नाथालाल के छोटे सपूत ने कर के अपनी होशियारी का प्रदर्शन किया था.
" मोहन लाल नाम का कोई मुलाजिम हमारे यहाँ काम नहीं करता. "
आखिरी कुछ दिनों की भगा दौड़ी के कारण मैं थक सा गया था.
मैं शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूरी तरह से थक सा गया था. सीने में दर्द हो रहा था. फिर भी कंपनी का वफादार मुलाजिम
का चौला पहनकर दफ्तर पहुंच गया था.
नाथालाल ओर उन के चिरंजीवीओने मुझे देखकर मुंह बिगाड़ा था.
छोटी छोटी बातों में गुस्सा करने का नाथालाल का स्वभाव बन गया था.पिता का यह गुण कहो की अवगुण अदलोअदल बेटो
को विरासत में मिल गये थेतकदीर के बलभूते वह करोड़पति की बिरादरी में शामिल हुए थे. यहाँ तक पहुंचने में उन के बाप
दादा का बहु मूल्य योगदान था.जिस का श्रेय नाथालाल ओर उन के सपूत ले रहे थे.
उन्होंने जाहिर में मेरे बारे में निवेदन किया था.
" मोहन गधा हैं. उस में पाई भर भी अकक्ल नहीं है.40 लाख रूपये वापस मिलते ही मैं उसे कंपनी से बाहर कर दूंगा. "
इतने साल की वफादारी का कैसा सिला दिया था.
शायद उन्होंने धैर्य रखा होता तो ऐसा नहीं होता.
नाथालाल की अधीराई ने मुझे त्रिशूल पीड़ा दे रही थी .
वह किसी शख्स से फोन पर किसी के साथ अभद्र जुबान में बात कर रहे थे.
उन के शब्द हर पल मेरे कलेज़े को इजा पंहुचा रही थी.
मेरी सीने की पीड़ा बर्दास्त से बाहर थी.
मुझे बार बार घंटी बजाकर स्टाफ सदस्यों ओर चपरासी को केबिन में बुलाने की आदत थी. इस लिये कोई भी मेरी घंटी की परवाह नहीं करता था.
मैंने लगातार घंटी बजाना जारी रखा था. लेकिन कोई चपरासी मेरे पास नहीं आया था.
कुछ पल बाद एक बुढ़ा चपरासी केबिन का दरवाजा खोलकर भीतर आया.
उस को मैंने गुस्से में झाड दिया.
" किधर मर गया था साला? "
ओर मैं कुर्सी में ढेर हो गया था.
उस के बाद क्या हुआ था?
उस की मुझे कोई जानकारी नहीं थी.
घर की चार गाड़िया होने के बावजूद मुझे एम्बुलेंस में अस्पताल ले जाया गया था.
मानवी लाख चाहे बुरा क्यों न हो? लेकिन उस के दिल में इंसानियत छिपी होती हैं.
मैंने दिल की शक्ति को बुद्धि के हाथों लीलाम की हैं.
जिंदगी के एक महतम दायके तक नाथालाल की कंपनी को अपनी कंपनी की तरह संभाला था. सारी जिम्मेदारी निभाई थी. घरेलु समस्या भी सुलझाई थी. फिर भी उन्होंने मेरी गिनती आम आदमी में की थी. मुझे एक चपरासी की कक्षा में रख दिया था.
खबर मिलते ही मेरी बीवी सुष्मा मुझे मिलने अस्पताल आई थी.
उस की मेरे साथ दूसरी शादी थी.
उस का पहला पति हवस खोरी ओर बदमाशी की गजब की मिशाल था.
वह निथल्लु था. कुछ काम धंधा करता नहीं था. सुष्मा के पैसों पर ऐश करता था. दोनो में बिल्कुल बनती नहीं थी.
एक बार दोनो के बीच बहुत बड़ा झगड़ा हुआ था. उस का पति सब कुछ लेकर उड़न छू हो गया था.
उस वक़्त मैंने उस को सहारा दिया था. ओर दोनो ने शादी भी कर ली थी.
उस के पति की समग्र बिरादरी के प्रति पूर्वाग्रह हो गया था.
उस ने अपना अनुभव कुछ इस तरह बयान किया था.
" सालो का कोई भरोसा नहीं. वक़्त आने पर सगी मा के भी कपड़े उतरवाये. "
दवाईयो के प्रभाव तले मैं करीब बारह घंटे सो गया था.
आंख खुलने पर पीड़ा कुछ कम हुई थी.
विचारों का सैलाब मेरे दिलो दिमाग़ पर हावि हो चूका था.
मतलबी दुनिया में कोई किसी का नहीं हैं.
यह ख्याल मेरे दिमाग़ की नसे तंग कर रहा था.
अतीत की यादें मुझे परेशान कर रही थी.
सत्ता के बलभूते मैंने सदैव छोटे आदमी का शोषण ही किया था. उसे मैं अपनी काबिलियत मानकर चलता था. इस वजह से मेरे दिल में कोई अनुकम्पा या हमदर्दी नहीं उभर रही थी.
फिर भी हर कोई एक बार आकर मेरी खबर पूछ गये थे.
एक समय मेरा आयात निकास का बड़ा कारोबार था.करोड़ो रूपये का टर्न ओवर था.सुख शांति का जीवन था. आराम की
सुख चैन की रोटी हांसिल थी. हाथ चालाकी करना मेरी रगेरगो में शामिल था. उसी की बदौलत मैं अपना खुद का कारोबार शुरू कर पाया था.
लेकिन मेरी एक ही कमजोरी थी. छोटे मोटे फायदों के लिये मैं गैर कानूनी काम करने पर आमादा हो जाता था. सरकारी दस्तावेजों के साथ छेड़खानी करने से भी नहीं डरता था.
मेरे नसीब से धंधा भी ठीक चल रहा था.मैं इस बात से फ़ख्र महसूस करता था.
मुझे एक कला ओर महारत थी. मैं किसी के भी दस्तख्त की कोपी कर सकता था. लेकिन मेरी यही आदत मुझे भारी पड़ गई थी.
सिंगापुर से एक कनसाइनमेंट क्लियर करने के लिये वहाँ की बैंक ने दस्तावेज भिजवाये थे, जो बीच राह गुम हो गये थे. सभी ने अपना माल छुड़वा लिया था लेकिन मेरा... दस्तावेज न होने की वजह से वेर हाउस में सड़ रहा था.
डेमरेज का आंक ऊपर चढ़ रहा था.
बचपन से ही मुझे मनमानी करने की आदत पड़ गई थी.
मुझ में धैय का अभाव था.
माल की किमत घटती जा रही थी.
माल घरमे रखने की नौबत आई थी.
उस वक़्त मेरा ' सिक्स्थ सेन्स ' मेरी मदद में आया था.
गेरंटी मार्जिन के पैसे बचाने के लिये मैंने सारे क़ानून तोड़कर रास्ता ढूंढ लिया था. बैंक गेरंटी तैयार कर के बैंक का रबर स्टेम्प बनाकर मैंने मेनेजर के जाली दस्तखत कर के शिपिंग कंपनी में पेश की थी. कुछ टेक्निकल गलती की वजह से शिपिंग कंपनी ने बैंक का संपर्क किया ओर सब कुछ बाहर आ गया. फौजदारी गुन्हे की तहत बैंक ने मेरे खिलाफ केस दर्ज किया. ओर मुझे जैल हो गई.
मैंने अपने आप को बैंकरुप्ट जाहिर किया.
उस के पहले मैंने सारे पैसे जर्मनी में अपने छोटे भाई के खाते में ट्रांसफर कर दिये थे.
उस वक़्त नाथालाल ने मुझे जामीन पर छुड़वाया था.
मुझे उन में भगवान का साक्षात्कार हुआ था.
लेकिन बात कुछ ओर थी.
उन का मैनेजर जोब छोड़कर चले
गये थे.
उसी वजह से उन्होंने मुझे यह
जिम्मेदारी सोंपी थी.
मेरी विवशता का लाभ उठाने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी.
मुझे जोब देकर नाथालाल ने मुझे
आश्रय दिया था. सही मानो में मैं
उन का आश्रित ही था. मुझे कोई अधिकार या विशेष सवलत उपलब्ध नहीं थी. दस्तखत करने का भी अधिकार नहीं था.
उन्हें मेरी नियत पर संदेह था.
नाथालाल को कंपनी का सही वहीवट करने वाला मुलाजिम चाहिए था.
उन का यह व्यवहार मुझे आश्रित होने का एहसास करवा रहा था.
वह भी बाप दादा शुरू की गई आयात निकास की कंपनी चला रहे थे. वह बोलने में बहुत ही शुरे थे. बड़ी बड़ी बातें करते थे. लेकिन पैसे देने की बात में पानी में बैठ जाते थे.
उन के इसी रवैये से तंग होकर मैनेजर चला गया था.
बैंक व्याज़ बचाने के सिवा उन्हें किसी चीज में दिलचस्पी नहीं थी.
भाई भेजे गये पैसे को लौटाने से नामुकर हो गया.
और मेरे पास लाचारी के सिवा कुछ नहीं बचा था.
मैं खुद अपनी ही रची जाल में फस गया था.
मैं बहुत ही व्यस्त रहता था. इसी वजह से मैं सुष्मा को समय नहीं दे पा रहा था. इस वजह से वह नाराज रहती थी. फिर भी उस ने कभी कोई शिकायत नहीं की थी.
उसे मेरी कुछ आदते पसंद नहीं थी. इस लिये शुरू में उसने मुझे रोकने का प्रयास किया था. लेकिन मैं अपनी मर्जी का मालिक था. मैं किसी की भी बातें नहीं सुनता था.
वह कुछ बोलने की कोशिश करती तो मैं यह कहकर उस की जुबान बंद कर देता था!!
" स्त्री की बुद्धि पैरोकी पानी तले होती है. "
वह सुख शांति की रोटी चाहती थी.
लेकिन मेरी आदते मुझे कब कौन सी मुसीबत में डाल देगी इस बात से मैं अक्सर परेशान रहता था.
" भैंस के सिंग भैंस को भारी होते हैं. "
यह dकहकर उस ने मुझे कुछ भी कहना छोड़ दिया था.
जामीन पर छूटने के बाद मेरा सुष्मा के साथ बड़ा झगड़ा हो गया था. मैंने गुस्से में आकर उस पर हाथ उठाया था तो वह नाराज होकर अपने मयके चली गई थी.
और मैंने उसे वापस बुलाने की कोई कोशिश नहीं की थी.
एक बंदर कभी गुलाट मारना नहीं छोड़ता. नाथालाल यह बात जानते समझते थे. इसी लिये मुझे सिग्नेटरी पावर्स से महफूज रखा था.
हकीकत में मैं कोई पेपर्स साइन न करू वह मेरे लिये अच्छा था. लेकिन यही बात कंपनी में मेरी हैसियत को बयान करती थी. वातानुकुलित केबिन में बैठकर यह बात अक्सर चुभती रहती थी. बाकी दस्तखत बदलना मेरे लिये बाये हाथ का खेल था.
मैं अपनी प्रतिष्ठा के लिये नाम बदलने को भी तैयार था.
लेकिन नाथालाल उस का क्या मतलब निकालेंगे.?
यह सवाल मुझे रोक लेता था.
अपराधी का मानस बिल्कुल कमजोर होता हैं. उसे हर एक चीज में गलत होने का डर लगता हैं.
मेरी अगुवाई तले मैं किसी को भी अपनी उंगलियों पर नचा सकता था.
स्टाफ सदस्यों के बिना काम कोई बात नहीं करता था.
मेरे मन खूद का अस्तित्व ही मायना रखता था.
मैं नाथालाल का हुजूरीआ बन गया था. उन की हर एक बात में हा मिलाता था.
बड़ी कुर्सी ने मेरे अहम को पोषण दिया था!!
स्टाफ सदस्य मेरी केबिन में आने से डरते थे. उन के शोषण का मानो मुझे लाइसेंस मिल गया था.
लेकिन कुमार के आगमन के बाद बहुत कुछ बदल गया था.
वह मुझ से बेहद अच्छा कार्यकर्ता था. मैं यह बात स्वीकार नहीं पाया. मैं हर कदम नीचे गिराने की कोशिश में लगा रहता था.
लेकिन वह मुझ से दो कदम आगे था.
निर्भयता उस का सब से बड़ा गुण था. वह मुझे खुल्ले आम नाथालाल का आश्रित मानता था.
मैं भी यह जानता था. मेरा यही स्थान था. फिर भी स्वीकारने को तैयार नहीं था.
एक आश्रित दूसरों की दया पर ही जिन्दा रहता हैं. उस की अपनी कोई आजादी नहीं होती.
फिर भी चाहता तो मैं नाथालाल से अपनी मनमानी करवा सकता था. लेकिन मैं introvert टाइप इंसान था. अपने सिवा दूसरों के बारे में सोचता नहीं था.
कुमार बहुत ही सीधा, सरल और सहदयी था.अपना काम बखूबी निभाता था. जवाबदारी के प्रति सजाग था.
उस के आगमन को लेकर काम के बारे में दुविधा खड़ी हुई थी. कौन क्या काम करेगा. वह तय नहीं हो पा रहा था.
मैं कश्मकश में रहता था.
कुमार भी अपनी जिम्मेदारी को लेकर स्पष्ट नहीं था.
इस बात का फायदा लेकर मैंने नाथालाल और उन के सपूतों को कुमार के खिलाफ भड़काने की कोशिश की थी.
उस में मेरी जगह संभालने की पूरी क्षमता थी. यह वात मैं झेल नहीं पा रहा था. वह मेरा प्रतिस्पर्धी बन गया था
मैं उसे नीचा दिखाने की कोई तक छोड़ता नहीं था..
वह स्पष्ट वकता था.जो कुछ कहता था वह मुंह पर ही. उसे पीठ के पीछे बोलने की न तो आदत न तो जरूर.
एक बार उस ने खुल्ले आम मुझे कह दिया था :
" आप खुद गर्ज हो. मतलबी हो. सदैव खुद के बारे में सोचते हो.. तनख्वाह बढाने के टाइम गूंगे बहरे हो जाते हो.
"आप के जैसे लोगों की वजह से गरीब कभी ऊपर नहीं आता. लेकिन इतना समजो एक हाथ से ताली नहीं बजती. आप जैसे
लोग भले करे लेकिन नतीजा शून्य ही निकलता हैं. "
तलवार के घा रुझ सकते हैं लेकिन शब्दों के कभी नहीं."
कंपनी के मुख्य कार्यकर्ता होने के नाते मुझे बड़ा घमंड चढ़ गया था.
मुझे ही पूरी चिंता थी. यह बात नाथालाल और उस के सपूतों को बताने का हरदम प्रयास किया था!!
लेकिन उन्होंने खुद कुमार को सुझाव दिया था.
" आप को इतना प्रोब्लेम हैं तो मेरे पिताजी से बात कीजिये. "
उस वक़्त कुमार ने साफ कह दिया था :
" आप को खुद भी उन से प्रोब्लेम हो तो आप ही बताइये ना.. मुझे क्यों बीच में घसीट रहे हो? मोहन भाई मेरे दुश्मन थोड़े हैं? "
मुझे इस बात का पता नहीं था.
मैंने उस की उपस्थिति में नाथालाल के दिमाग़ में जहर घोलने की चेष्टा की थी. तो कुमार ने मेरा मुंह तोड़ लिया था.
" यु केन नोट एक्सपेक्ट एनी थिंग ऐट एनी टाइम. "
कुमार की बात सुनकर मेरा अहम चकनाचूर कर दिया था.
फिर भी मुझे पराजय स्वीकार नहीं था. कुमार का सामना भी नहीं कर पा रहा था. इस लिये मैं पीछे से वार करने का मौका तलाश रहा था.
शुरू के दिनों में मेरा लिहाज कर के कुमार ने मुझे बर्दास्त कर लिया था.
उस की यह कमजोरी थी यह सोचकर उस का आत्म विश्वास तोड़ने का विफल प्रयास किया था.
वह बहुत ही जल्द मेरा इरादा भांप गया था.
मैं उस की आगे बढ़ने की दिशा में बाधा खड़ी करने के लिये कार्यरत रहता था.
यह जानकर कुमार के दिल में गुस्से का लावा भड़क उठा था.
अच्छा कार्यकर्ता किसे कहते हैं?
वह कुमार भली भ्रान्ति जानता था.
जब की मैं आधे अधूरे ज्ञान के बलभूते बंदर जैसी गुलाट खा रहा था.
नसीब से जो मिला था उसे अपनी क्षमता का नाम देकर मैं उछल रहा था.
पूरा जगत मानो मेरी मुट्ठी में कैद था.
काम करने की कोई निश्चित स्ट्रेटेजी नहीं थी, कोई स्पष्ट modus oprandi नहीं थी.
दफ्तर में हर कोई मेरी काम करने की पद्धति से नाखुश था. लेकिन मेरी कुर्सी उन्हें रोकती थी.
लेकिन कुमार अलग मिट्टी का था. उस ने अपने तरीके से सभी सदस्यों का मन हर लिया था. उस के दिल में समग्र मानव जात के प्रति सदभावना. वह बोसिंग में कतई विश्वास करता नहीं था.
जिसे मैं वफादारी मानता था. वह हकीकत में एक आडंबर था. आत्म वंचना थी.
शुरुआत में नाथालाल और उन के सपूतों ने कुमार का परिचय करवाते हुए मेरी तारीफ के पुल बांधे थे.
नाथालाल ने उसे एक बार कुमार के टेबल जाकर उसे सलाह दी थी.
" मोहन भाई के पास बहुत काम हैं. आप को उसे मदद करनी चाहिए. "
उस वक़्त कुमार ने साफ कह दिया था :
"ज़ब तक वह अपने काम करने का तरीका नहीं बदलते उन्हें कोई मदद नहीं कर सकता. "
कुमार की बात सुनकर नाथालाल बिल्कुल अवाक से रह गये थे.
कुमार ने सही तोड़ सुझाया था.लेकिन उस का स्वीकार करना एक अहम की बात थी.
मैंने नाथालाल और उन के सपूतों की आंखो में पट्टी बांध दी थी.
वह लोग भी मेरी बातों पर विश्वास करते थे.
मैं अकेला ही काम करता हूं. मुझे ही सारी फिकर चिंता हैं. ऐसा दिखावा करने का शौक था. गाड़ी का भार कुत्ता उठाने वाली बात थी. मेरी इस आदत से दूसरों का आत्म विश्वास खंडित हो जाता था. मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं था.
मेरे ऐसे अभिगम के सामने कुमारने आवाज उठाई थी.नाथालाल और उन के सपूतों को सजाग किया था.
लेकिन हर एक छोटे मोटे कामों में सब को मेरी जरूर पड़ती थी. इसलिए किसी ने कुमार की बात पर ज्यादा गौर करना जरूरी नहीं समजा था. जिस से मेरे अहम को बढ़ावा मिला था.
कुमार शांति से काम करने के हक में था उस की इसी बात को ' गो स्लो पोलिसी ' का लेबल चिपकाया था.
पिछले कई दिनों से हमारे बीच शीत युद्ध जारी हो गया था.
दोनो के बीच बुनियादी फर्क था.
कुमार जो कुछ कहना चाहता था वह सीधा ही मुंह पर कह देता था ज़ब की मैं पीठ के पीछे बात करने में माहिर था.
मेरा यह अभिगम मुझ पर भारी पड़ रहा था.
मैं एक तरफ़ा था. केवल काम से ही मतलब रखता था.
स्टाफ की समस्या से मुझे कुछ लेना देना नहीं था. फिर भी तनख्वाह देते हैं तो सब कुछ करवा लेने के हक में था.
नाथालाल के सामने मैंने कुमार को नीचा दिखाने का प्रयास किया तो उस ने जड़बातोड़ जवाब दिया था.
" जो आदमी दूसरों का सन्मान नहीं कर सकता. उसे सन्मान पाने का कोई अधिकार नहीं हैं. "
उस की बात सुनकर मैं सन्न रह गया था.
उसी सिलसिले में मैं एक बार केबिन में बैठकर चाय नास्ता कर रहा था.
उस वक़्त उस ने मुझे ताना मारा था.
" नाथालाल के तलवे चाटते हो. सुबह से लेकर रात को दर तक काम करते हो लेकिन कंपनी के एकाउंट में चाय नास्ता भी नहीं
कर पाते हो. ऐसी वफ़ादारी किस काम की भला? "
मैं कुमार को बेवकूफ समजता था लेकिन वह तो मेरा गुरु बन गया था. उसे मेरे सारे उलट सुलट धंधे की पूरी जानकारी थी.
नाथालाल एन्ड सन्स में एक दो शख्स ही उस बात को जानते थे. उस की जुबान बंद रखने की तगड़ी रकम चुकाई जाती थी.
बाकी ईमानदारी कोई मायना नहीं रखती थी.
कंपनी की ऐसी नीति से कुमार सदैव नाराज रहता था.
कार्य भार के बहाने मैंने कई जरूरी चीजों पर फोकस नहीं किया था. और किसी न किसी बहाने कुमार को तकलीफ देना जारी रखा था.
कुमार की वजह से ओफिस के कुछ लोगों के मेरे सामने बोलने की मानो ताकत सी आप गई थी. अब पहले की तरह कोई मुझे सुनकर चुप नहीं रहता था.
कुमार ने मुझे- ' mad monkey kung fu ' नाम दिया था.
एक चपरासी ने मुझे ' कुए का मेढक ' कहां था.
उस की ऐसी बातें सुनकर मेरा खून घोल उठा था. मैं चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाया था.
पैसे की हैरा फैरी करना मेरी जूनी पुरानी आदत थी.
हर कोई सौदे में मेरा हिस्सा रहता था. इसलिए ऐसे सभी काम मैं ही देखता था.
नाथालाल और उन के सपूत भी यह बात जानते थे.
लेकिन उन को मेरी जरूरत थी इसलिए आंख आड़े कान कर के बैठे थे.
कामकाज का तीन चौथाई समय तो फालतू मीटिंग्स और बहस में बीत जाते थे.
नाथालाल के सपूत मुझे पूछे बिना कोई काम नहीं कर पाते थे.
इस वजह से मेरा टेबल सदैव पेपर्स और फाइल्स से भरा रहता था. जिसे निपटाने के लिये मुझे देर तक दफ्तर में रहना पड़ता था.
मैंने नाथालाल और उन के सपूतों को काम सिखाने की कोशिश की थी. लेकिन सपूतों का दयान धंदे के अलावा बेकार चीजों में लगा रहता था.
वह बिना पढ़े कोई भी पेपर सही कर देते थे.
उस के बारे में मैंने उन के छोटे सपूत को टोका तो उस ने जाकर अपने पिता के सामने मेरी शिकायत दर्ज कर दी.
" मोहन भाई. स्टाफ सदस्यों के सामने मुझे कुछ भी बोल देते हैं."
मैंने थोड़े तीखे शब्दों में उसे टोका था :
" हम लोग air condition केबिन में बैठने नहीं आते.!! कोई भी पेपर साइन करने से पहले उसे पढ़ना जरूरी होता हैं.
मैंने कुमार की मौजूदगी में उसे यह कहां था तो उसे बुरा लग गया था.
नाथालाल ने अपने बेटे के बचाव में मुझे बहुत कुछ कह दिया था.
" तु मेरा आश्रित है. मालिक बनने की कोशिश मत करना. "
उस के बाद मैंने नाथालाल के सपूतो को कुछ भी कहना छोड़ दिया था.
कुमार के शब्द ' Mad Monkey Kung Fu ' मेरे कलेज़े में चुभ रहे थे.
उस ने मुझे ' हार्ट लेस ' भी कहां था.
और मेरे हार्ट अटैक को झूठा माना था.
अगर हम चाहे तो किसी बच्चे से भी बहुत कुछ सिख सकते हैं. बस सिखने की प्यास होनी चाहिए.
कुमार के साथ सदैव चढ़भड होती थी फिर भी मेरे बीमार होने की खबर मिलते ही वह सब से पहले मेरा हाल पूछता था.
मैं बिल्कुल ' introvert ' था. सदैव अपने आप में व्यस्त रहता था. अतीत मुझे काफ़ी परेशान कर रहा था.
एक बार कुमार से चढ़भड़ होने पर उस ने मेरे अतीत पर वार किया था.
वह मेरे बारे में सब कुछ जानता था.
शायद मैंने अपने से छोटे लोगों का ख्याल किया होता तो? उन को सन्मान दिया होता तो? मैं अपने कडूए अतीत से पीछा छुड़वाया पाया होता.
लेकिन कुर्सी का नशा मुझे उलट दिशा में खिंच रहा था..
कुमार की भर्ती के बाद कुछ महिनो में एक शिल्पा नामक युवती को भर्ती किया गया था.
शिल्पा को नाथालाल की पर्सनल सेक्रेटरी के तौर पर नियुक्त की गई थी. उन के सपूत बहुत ही जल्द शिल्पा के दीवाने हो गये थे. खुद नाथालाल भी उस को फासने के चक्कर चला रहे थे.
वह शिल्पा को हम बिस्तर बनाने के लिये ऊपर तले हो रहे थे.
मैं भी उस के रूप का दीवाना हो गया था.
सुष्मा के अलावा मैंने किसी अन्य स्त्री को अपनी जिंदगी में दाखिल नहीं होने दिया . शिल्पा का यौवन उभार मुझे लुभा रहा था.
हर कोई उसे पाने की रेस में शामिल था.
नाथालाल ने तो उसे खुल्ले आम कहां था :
" तुम्हारे पहले जो लड़की काम करती थी, वह हम सब के साथ सोती थी और भरपूर माल कमाती थी. तुम चाहो तो कुछ ही दिनों में अमीर बन सकती हो. "
उन की गंदी बातें सुनकर शिल्पा भड़क गई थी. वह तो जोब छोड़ने पर आमादा हो गई थी. लेकिन घर के हालात से वह लाचार विवश थी.
उस ने कुमार को सब कुछ बताया था.
वह शिल्पा का बॉडीगार्ड बन गया था.
कुमार ने जाहिर में ऐलान किया था.
" अगर किसीने भी शिल्पा की ओर आंख उठाई तो मैं मीडिया को सब कुछ बता दूंगा. "
और शिल्पा निर्भय बन गई थी.
कुमार के सहयोग से वह काफ़ी
प्रभावित हो गई थी. वह मन ही मन
कुमार को प्यार करने लग गई थी.
एक बार मैं कंपनी के काम के लिये बाहर जा रहा था. उस वक़्त विजिटर कक्ष में शिल्पा कुमार के पास खड़ी जोक सुन रही थी.
एक लड़की ने एक साथ तीन बच्चों को जन्म दिया..
उस बदल किसी ने टकोर की थी :
" बहन एक टाइपिस्ट हैं और सदैव वन प्लस टू कॉपीज निकालने की आदि हैं. "
दोनो के बीच की आत्मीयता देखकर मैं ईर्ष्या की आग में जलकर राख हो गया था.
यहाँ भी वह मेरा प्रतिस्पर्धी ही साबित हुआ था.
वह मेरे साथ टेक्सी में आने जाने पर हिचकिचाहट महसूस कर रही थी. लेकिन कुमार के साथ चलकर स्टेशन जाती थी.
यह बात मैं झेल नहीं पा रहा था.
कुछ दिन बाद कुमार और शिल्पा की मग्नि तय हो गई.
एक हप्ते में दोनो शादी भी करने वाले थे.
उस वक़्त मेरा सिक्स्थ सेन्स मेरे काम आया था.
मैंने कुमार के पिता को ननामी खत लिखकर शिल्पा के चरित्र के बारे में उन को भड़काया.
यह जानकर कुमार के घरवालों ने यह रिश्ता तोड़ दिया.
इस स्थिति में शिल्पा ने ख़ुदकुशी कर के अपने आप को मिटा दिया.
कुमार से शिल्पा को दूर कर के सहानुभूति जताकर उस से शादी करने का सपना चकनाचूर हो गया.
शिल्पा की मौत के बाद सच्चाई बाहर आ गई. मैंने ही ऐसी घिनौनी हरकत की थी. उस बात की कुमार को भनक लग गई थी.
उस की भीतर प्रतिशोध की आग दहक रही थी.
वह देवदास बनकर रह गया होता.
लेकिन उस के दिल में क्या चल रहा था? कुछ समज नहीं आ रहा था.
मैं बहुत ही भयभीत सा हो गया था.
कंपनी के दो नंबरीय पैसों का 40 लाख का हिसाब वसूली के लिये चिनाय गया था.
पार्टी के भाव बढाकार बिल्स बनवाये जाते थे और फिर बीस से टका केश में वापस लिये जाते थे.
इस वजह से हिसाब बुक में खोट रहती थी और नफा तिजोरी में जमा होता था.
नाथालाल के सपूतो में पापड़ तोड़ने की भी क्षमता नहीं थी.
धंधादारी सुझाव उन से कोसो दूर थी.
हकीकत कुछ ओर थी. सपूतो को धंदे में कोई लगाव नहीं था.
इच्छा न हो तो क्या हो सकता हैं?
" आप घोड़े को पानी पिलाने नदी तक ले जा सकते है लेकिन मर्जी के खिलाफ उसे पानी नहीं पीला सकते हैं. "
जबरन धंदे में जबरन पैर रखे लेकिन उन की चांच नहीं बुड पाई.
इसी वजह से पैसों की जिम्मेदारी मेरे सिर पर थी.
और मैं मलाई निकाल लेता था.
पैसे मिलते ही कुमार ने सी बी आई को सजाग कर दिया था.
सी बी आई पलटन मेरे पीछे पड़ी
थी और नाथालाल एक ही बात
दोहरा रहे थे.
मुझे मलाई मिली थी. उस बात का भी नाथालाल को पता लग गया था
पैसों का हिसाब मेरी तिजोरी भी भर रही थी .
इसी वजह से मैं ' नाथालाल एन्ड सन्स ' से जुड़ा रहा था.
नाथालाल ने फ्लाइट पकड़कर फ़ौरन मुझे मुंबई बुलाया था.
उन की बातों में मेरे प्रति संदेह की दुर्गन्ध आ रही थी.
मेरे पीछे सी बी आई की पूरी पलटन लगी थी. यह जानते हुए भी उन्होंने ठंडे कलेज़े सूचित किया था :
" कुत्तो को रोटी फेंककर फ़ौरन मुंबई आ जाओ., "
कुछ गलत होने के ख्याल से मैं कांप रहा था.
मैंने पहली बार प्रभु का स्मरण किया.
फ्लाइट की एवज ट्रैन में चिनाई से
मुंबई का सफर जारी किया था.
और अगले ही स्टेशन पर सी बी आई पलटन ने मुझे घेर लिया था.
मेरे हाथ में ब्रिफ केस था. वह देखकर अफसर ने सवाल किया था :
" ब्रिफ केस में क्या हैं? "
" कैश मनी है? "
" कितने है? "
" 20-25 हजार होगा. "
" बेग खोलो. "
और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.
मेरा सिक्स्थ सेन्स नाकाम हुआ.
मेरे पाव मानो निःसचेतन हो गये.
45 लाख रूपये और दो नंबर के कागज देखकर सी बी आई पलटन चकित सी रह गई.
सारे भेद खुल गये.
उन्होंने सब कुछ सच सच बताने की गुजारिश की थी. लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ था.
और मुझे वोरंट बताकर चिनाई की जेल में ले जाया गया था.
फिर भी मैंने कुछ बताया नहीं तो
आख़री विकल्प का सहारा लेकर
मुझ पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल
किया गया था.
टोर्चर चेम्बर में मेरे सारे कपड़े उतारकर 24 घंटे बर्फ की पाट पर सुलाया गया था.
मेरी आंखो के सामने मौत घूरक रहा था. न जाने कौन सी दैवी शक्ति काम कर रही थी. मैं पूरी तरह से फ्रिज हो गया था.
फिर भी वह लोग वाज नहीं आये थे.
उन्होने मेरे गुह्य अंग में मिर्ची पावडर घुसेड़नी की कोशिश की गई थी.
इतना ही नहीं मेरे नग्न देह को सककर के पानी से नहलाया गया था . जिस की वजह से चींटीयो का एक दल मेरे देह पर डिस्को डांस खेलने लगा था.
मेरी बर्दास्त शक्ति भी जवाब दे गई थी.
मैं दर्द के मारे चीख रहा था.
लेकिन उन्होंने कोई तरस नहीं खाया था. उन लोगों ने मिर्ची पावडर का प्रयोग बार बार दोहराया था.
उस वक़्त शिल्पा का मासूम चेहरा मेरे सामने नर्तन कर रहा था.
मानो वह मुझे कह रही थी :
" साले, लंपट और बदमाश. तुम इसी के लायक हो. "
उस के चेहरे पर विजयी स्मित झलक रहा था.
मेरी अवदशा देखकर कुमार कितना खुश होता होगा?
उसी ने मेरा ये हाल किया था.
मैं सब कुछ जान चूका था. शायद यह मेरा भ्रम था. या एक अपराधी के मानस का प्रतिबिम्ब.
कुमार बहुत ही पहुंची हुई माया थी. उसी की वजह से नाथालाल को अपने पैसे वापस मिले थे. उस लिये खुश होकर नाथालाल ने उसे मेरी जगह बिठाने का ओफर दिया था.
मैं अपने किये कराये पर पछतावा महसूस कर रहा था.
यह जानकर सुषमा ने मुझे माफ किया था. वह सब कुछ भूलकर मेरी जिंदगी में लौट आई थी.
मैंने दस साल से भी अधिक नाथालाल एंड सन्स को एक बच्चे की तरह संभाला था. उसे हर कोई मुश्किल और आफतो से बचाया था.
फिर भी उन्होंने ने मेरे पेट पर लात मारी थी.
उस वक़्त सुष्मा का पूर्वाग्रह
हकीकत बनकर सामने खड़ा था.
" सालों का कोई भरोसा नहीं. चमड़ी टूटे पर दमड़ी न छूटे. अपने निजी स्वार्थ के लिये पैसे पानी की तरह बहा दे लेकिन जरूरत मंद लोगों को कभी नहीं मदद करे.
मेरी सेहत के बारे में कुमार फूलों का गुलदस्ता लेकर अस्पताल में आया था. उस के चहेरे पर विजयी स्मित झलक रहा था.
मैंने उसे सताने में कोई कसर छोड़ी नहीं थी. उसे नीचा दिखाने की तमाम कोशिशे की थी. उस की बोडी लैंग्वेज देखकर मेरा सारा गुस्सा पिघल गया. प्रतिशोध की आग बुझ गई.
शिल्पा के मौत के बाद वह नाथालाल की कंपनी को अलविदा कहना चाहता था.लेकिन वह सदैव ऐसा महसूस कर रहा था. मानो शिल्पा कह रही थी.
मोहन भाई को उस के किये कराये की कड़ी सजा दिलाना.!
उस ने दो कागज मेरे हाथ में थमा दिये. वह देखकर मानो मेरी सांसे पलभर थम सी गई.
निश्चित मेरी हकाल पट्टी की नोटिस होगी.
पेपर्स हाथ में लेते हुए मुझे ख्याल आया था.
सुष्मा ने मेरे हाथों से पेपर्स ले लिये.
उसे पढ़कर सुष्मा ने सच्चाई बयान की :
कुमार ने नाथालाल एंड सन्स को अलविदा कर दिया था.
उस के इस्तिफे की प्रत थी.
और दूसरा नियुक्ति पत्र था.
उसे एक प्रतिष्ठित कंपनी में जोब मिल गया था.
उसी ने 48 घंटों की भीतर नाथालाल के पैसे वापस दिलाया थे.
बदले में नाथालाल ने उसे मेरी जगह बिठाने का ओफर दिया था.
कुमार ने ओफर ठुकरा दी थी.
नाथालाल एंड सन्स का कोई भरोसा नहीं था. वह कभी भी बंद हो सकती थी.
इसी वजह से अपना मिशन पूर्ण होने पर उसने इस्तीफा दे दिया था.
पैसे मिल जाने की बात सुनकर मेरा बोज हल्का हो गया.
मैं पुलकित हो गया.
मैंने कुमार को बड़े प्यार से गले लगा दिया.
उसी वक़्त मेरी मौत ने मेरा रास्ता छोड़ दिया.
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