भारत की रचना - धारावाहिक- तृतीय भाग
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थोड़े-से दिन और सरक गए।
रचना कालेज जाती रही। भारत भी कालेज आ रहा था। वक्त की बढ़ती हरेक तारीख और आकाश में सरकती हुई प्रत्येक बदली के साथ-साथ भारत की रचना के सपनों का सरताज बनकर उसके दिल की सोई हुई कमसिन प्यार की भावनाओं में दखलअंदाज़ी करने लगा। करने लगा, तो रचना ने भी अपनी ओर से इसका कोई विरोध नहीं किया। दिल-ही-दिल में वह भारत को अपना समझकर, उसे अपने मन में और भी पास बुलाने लगी- उसके प्रति न जाने कितने ख्वाब सजाने लगी। अक्सर ही वह भारत के विषय में सोचने पर विवश हो जाती थी। जब भी उसके दिल की कोमल भावनाओं में भारत की कोई स्मृति चुपचाप से आकर छेड़खानी कर जाती, तभी वह उसके प्रति सोचने लगती थी। अपने दिल के हाथों मजबूर बनी वह एक कठपुतली के समान ढेरों-ढेर बातें, भारत के विषय में स्वतः ही करने लगती-कारण न जानते हुए वह उसको अपने पास बैठा लेती और न जानते हुए भी उसके सपनों के चित्रों को समेटने लगती थी। उसके दिल में आने वाली ये उसकी कौन सी भावनाएं थीं? अनजानी अथवा जानी-पहचानी-सी- पराई या अपनी। दूर की अथवा बहुत पास की। इन बातों से उसे कोई मतलब नहीं रहता था- मतलब निकलता भी था, केवल भारत की स्मृतियों से ही उसकी मधुर कल्पनाओं से सुखद काल्पनिक चित्रों के इशारों की स्मृतियों से ही वह घंटों मन-ही-मन भारत के प्रति न जाने क्या-क्या सोचती रहती थी। सोचती थी और खुद ही खो भी जाती थी। कभी वह अपने मन में ही कहने लगती कि ‘भारत’ हां, भारत ही कितना अच्छा है- कितना सभ्य, भोला, सीधा-सादा समझदार, हृष्ट-पुष्ट, कुछ-कुछ नादान-सा, राजकुमार जैसा, पर अकेला। न किसी से अधिक मेल-लड़ाई-झगड़ा, कोई भी तो बुराई है उसमें। न जाने क्यों अधिकतर चुपचाप रहता है वह? क्यों? किस कारण....? पर कुछ भी हो- आगे से तो ठीक है, चल सकता है या फिर दौड़ेगा? वैसे भी यूंही, कोई राजकुमार तो नहीं असानी से हर किसी को मिल जाया करता है। अभी तो वह शर्माता बहुत है। अपनी ओर से लगता है वह बात करने की पहल करेगा नहीं, मुझ ही को पहल करनी पड़ेगी- खुद आगे आना होगा। कभी मौका मिला तो बैठकर सारी बातें कर लूंगी- फिर इसी तरह धीरे-धीरे उससे मित्रता बढ़ जाएगी। जब इतना हो जाएगा, तो फिर एक दिन एकांत में उससे अपने मन की बात भी कही जा सकती है- कहूंगी तो अवश्य ही कहीं-न-कहीं किसी भी समय, समय को उचित समझकर, ताकि बाद में कोई भी शिकवा और शिकायत खुद से न रह जाए- दिल की भावनाएं मात्र पसीजती ही न रहें- इतना करने के पश्चात् चाहे कुछ भी क्यों न हो- हार या जीत, वैसे भी परमेश्वर के हाथों में है। प्रेम करना पाप नहीं है, पर प्रेम को छिपाना निश्चय ही भूल कही जा सकती है। यदि ‘उसको’ उसके परमेश्वर ने उसके लिए ही चुनकर सुरक्षित रखा है, तो फिर कोशिश तो फिर उसे ’ही करनी पड़ेगी। पहल तो अवश्य ही करनी चाहिए। एक बार नहीं, बार-बार, तब तक, जब तक कि आस और उम्मीद जीवित बनी रहे।
रचना भारत से मिलने के पश्चात् उपरोक्त प्रकार की कोमल कल्पनाओं में अक्सर ही खो जाया करती थी। अपने मन में इस प्रकार की मोहमयी बातों को सोचने और एकत्रित करने के लिए वह दोषी थी अथवा निर्दोष, ये तो कोई नहीं जानता था, पर इतना अवश्य था कि वह अपने जीवन के जिस मोड़ से गुज़र रही थी, वहां पर आकर अन्य के समान वह भी अपने-आपको अछूती नहीं रख सकती थी- प्यार की भावनाएं, सपने, कोई पहले से खुद नहीं बनाता था। ये तो दिल की वह प्रेरणा होती है, जो किसी का सामीप्य पाकर स्वयं ही उत्तेजित होकर अपने प्रतिबिम्बों को दिल के पर्दे पर बनाने लगती है। रचना अपने मन में जो प्यार के सपनों के महल बनाने लगी थी, उनकी बुनियादों की हरेक बढ़ती हुई ईंट से भारत भी अभी तक अनजान था। इस प्रकार से प्यार जो कुछ भी भारत के लिए सोचती थी, वह उसके लिए हर बार रचना का नया आयाम खड़ा कर देता था। जो कुछ भी कल्पनाएं वह किया करती थी, उनमें अब भारत का साथ होने लगा था। उसके हरेक सोच-विचार और भावी सपनों के चित्रों में, भारत का साथ होना ही है, ऐसा उसका विश्वास हो गया था- कभी भविष्य में यही उसका अपना ‘प्यार’ भी होगा- किसी दिन ये उसके जीवन का अंतिम महत्वपूर्ण निर्णय भी बन जाएगा।
रचना अपने होस्टल से जब कालेज जाती, तो सबसे पहले उसकी तरसी हुई आंखें भारत को तलाश करने लगती थीं। उसकी खोज में कभी-कभी जब वह नहीं दिख पाता, तो स्वयं ही परेशान भी होने लगती थी। फिर जाने क्यों और कैसे वह परेशान और फिर चिंतित होने लगती? ऐसा जब सोचती, तो उससे पहले ही भारत उसको कालेज की लंबी गैलेरी में खड़ा मिल जाता था- अपने पूर्व निश्चित स्थान पर बहुत खामोशी और गम्भीरता की मूरत बना हुआ, मानो वह भी उसी के आने की प्रतीक्षा कर रहा होता। ऐसा रोज होने लगा था। प्रतिदिन अब जैसे ये एक निश्चित कार्यक्रम ही बन गया था। रचना जब तक भारत को अपनी नज़रों से एक बार देख लेती थी, उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती थी, ये कैसा प्यार था? उसके दिल को कौन-सी चाहत थी? ये कैसी आरज़ू थी कि जिसके न आदि का पता था न ही अंत का। बस जो कुछ भी होने लगा था, वह बस हो रहा था और रचना को स्वीकार भी था, पसंद भी था।
इस प्रकार जहां रचना प्रतिदिन भारत के प्रति गंभीर होती जा रही थी, वहीं भारत भी उसके लिए गंभीर था अथवा नहीं, रचना इसके बारे में कुछ नहीं जानती थी। इसके साथ ही भारत ने अभी तक ऐसा कुछ भी प्रदर्शित नहीं किया था कि जिसके द्वारा उसके दिल के ख्यालों का अंदाज लगाया जा सकता। भारत यूं भी कुछ अधिक खामोश प्रवृत्ति का युवक था। वह न तो किसी से अधिक बात ही करता था और न ही उसकी किसी से कोई घनिष्ठ मित्रता आदि देखी गई थी। वह चुपचाप कालेज आता-कक्षा में जैसे बेजान, खामोश मूर्ति समान बैठ भी जाता और फिर कक्षा समाप्त होने पर वैसा ही चुपचाप उठकर चला भी जाता था। रचना उसको देखती कभी कनखियों से, तो कभी नजरें चुराकर और फिर जब भी देखती तो केवल देखकर ही रह जाती। फिर वह कर भी क्या सकती थी? सीमा से आगे वह निकल भी कैसे सकती थी। वैसे भी प्रेम की शुरूआत में नारी अपने प्रेमी को एक बार देखकर ही काफी संतुष्ट हो जाया करती है। रचना के साथ भी ऐसा ही था। हर बार की दृष्टि में भारत उसको पहले से और भी अधिक अपना जैसा प्रतीत होता था-पहले से भी अधिक सुंदर और सभ्य।
अपने दिल की इन्हीं प्यार की कशमकशों के मध्य रचना की लालसाएं एकत्रित होती जा रही थीं। वह अपना जीवन जी रही थी और भविष्य के किसी मनमोहक, सुंदर सपने को साकार करने की कल्पनाएं वह केवल एक दिन नहीं बल्कि हर पल ही करती जा रही थी। उसके दिन इन्हीं सोचों और विचारों में सरकते जा रहे थे। हरेक कार्य सामान्य गति से चल रहा था।
इस प्रकार धीरे-धीरे एक दिन वह आया, जबकि रचना को बगैर उससे पूछे हुए, मन-ही-मन अपने मन का राजकुमार मानकर अपने पास बुलाने लगी। ये उसका अपना प्यार था, अपने खुद के मन का कोई निर्णय था, अपनी पसंद थी और एक लड़की के दिल की हसरतों से सजी हुई कोई चाहत थी- भारतीय नारी की परम्परा एवं उसके आदर्शों के तहत् पलती हुई, उसके दिल की सारी आकाक्षाओं का निचोड़ था। उसके जीवन का पहला-पहला अनुभव- पहला प्रेम, अपने साजन से प्रथम भेंट से पूर्व दिल की नाजुक भावनाओं का कोई सिलसिला। नाजुक दिल-भोले और कमसिन इरादे- प्रथम प्यार के अनुभव- मीठी-मीठी कल्पनाएं- एक गुदगुदाहट, सिहरन-रचना का प्यार। उसके प्यार का वह झरोखा, वह खुशबू कि जिसकी सुगन्ध से ‘भारत’ अभी तक न जाने कितनी दूर था- कितना अधिक? रचना को शायद अनुमान भी नहीं था।
रचना का पहले ये तो था कि, वह कभी-कभार कालेज जाना टाल भी जाती थी, किसी भी शारीरिक अवस्था का लाभ लेकर वह नहीं भी जाती थी, परंतु जब से भारत उसके दिल का शासक बन बैठा था, तब से वह जैसे प्रतिदिन कालेज जाने के लिए विवश थी। न चाहकर भी उसके कदम स्वयं ही कालेज की उस लम्बी गैलेरी की ओर मुड़ जाते थे, जहां पर उसका भारत उसकी प्रतीक्षा में, जैसे पहले ही से तैयार रहता था- शायद आंखें बिछाये हुए केवल उसी के कारण।
इस प्रकार से अभी तक रचना और भारत के अपने-अपने दिलों की बातें, केवल उनके दिलों तक ही सीमित थीं। उम्मीदों और अभिलाषाओं से भरी हुई प्रेम की कोमल भावनाएं मन के अंदर धीरे-धीरे पनप रही थीं; और दोनों के मध्य भाषा का आदान-प्रदान शब्द न होकर, मात्र आंखें ही थीं, आंखों के मूक इशारे थे। दोनों एक-दूसरों के हृदय का भेद समझते तो थे, पर आगे कदम बढ़ाने के लिए उनको शायद अभी और भी समय चाहिए था और इन सारी बातों के लिए कालेज का वातावरण उचित तो कहा जा सकता था, परंतु समय के हिसाब से वैध नहीं, क्योंकि अभी दोनों को अपनी शिक्षा पर ध्यान पहले देना था, परंतु अपना भविष्य बनाने और अपने जीने का ठोस आकार स्थापित करने के लिए एक निश्चित समय ही होता है।
अभी रचना और भारत को अवसर की तलाश थी- उचित समय चाहिए था। प्यार की नींव रखने और उसकी यात्रा का काफिला आरम्भ करने के लिए कालेज का वातावरण अच्छा तो था, परंतु ऐसे माहौल में प्रेमी प्रायः अन्य विद्यार्थियों की पैनी दृष्टि से सहज ही पहचान भी लिए जाते हैं। फिर जब पहचान लिए जाते हैं, तो फिर उसके प्यार की कहानी को अन्य छात्र व छात्राओं के बातों का विषय बनने में देर भी नहीं लगती है। अपने प्यार का ऐसा अफसाना बनना रचना और भारत को तो क्या, शायद भी प्रेमी युगल को स्वीकार नहीं होगा। क्योंकि प्यार की चर्चा करना एक अलग बात है और बदनामी पूरी तरह से भिन्न।
इस प्रकार से सोचते, विचारते, सपनों को बनाते और उनमें खोते हुए एक दिन वह आया कि रचना ने अपने मन-मस्तिष्क में स्वतः ही ये निर्णय कर लिया कि वह शीघ्र ही भारत से बात करेगी- इतना शीघ्र कि वह अब इस विषय में कोई और देर नहीं करना चाहेगी। उसने ये संकल्प इस कारण और भी किया था, क्योंकि वह अब तक इतना तो समझ गई थी कि, भारत इतना अधिक चुप किस्म का युवक है कि शायद ही वह इस विषय में अपनी ओर से बात करना तो अलग आगे भी नहीं बढ़ सकेगा। यदि वह खुद भी खामोश रही तो कालेज का सारा वर्ष यूंही उम्मीदों की आस पर गुजर जाएगा और वह केवल अपने हाथ मलती रह जाएगी। भारत इस कदर शर्मीला लड़का है कि जब भी वह उसके सामने पड़ती है तो अब अक्सर कतराने भी लगा है। उसका ऐसा करना बहुत स्वभाविक भी है, क्यांेकि जब तक भारत के मन में उसके प्रति कुछ भी नहीं था, तब तक वह अपनी तरफ से खूब उससे बातें कर लेता था और अब जब से नजरों की चमक और देखने के अंदाज़ में अंतर आया है, तो अब वह मन में छिपे हुए चोर के कारण नजरें चुराने भी लगा है। इसलिए यदि कालेज के सारे वर्ष यही रवैया बना रहा, तो मन की बात मन में तो रह ही जाएगी, साथ ही उसके सारे जीवन के लिए एक अधूरी कहानी का अनकहा दर्द बनकर रह जाएगा।
भारत चाहकर भी बोल नहीं पाएगा, तो इससे तो अच्छा यही रहेगा कि वह ही आगे बढ़े-खुद ही पहल करे और एक दिन स्वयं ही आगे बढ़कर उससे बातों का सिलसिला आरम्भ कर दे। फिर इस प्रकार से जब भारत के मन का संकोच समाप्त हो जाएगा तो वह उससे प्रतिदिन ही बात कर लिया करेगी- ऐसी बात जो कि बाद में समय आने पर, प्यार की मीठी-मीठी, सुखद, दिल को लुभाने वाली हसीन कल्पनाओं के बार-बार जन्म देने का स्त्रोत भी बन जाएगी।
रचना ने यही उपरोक्त धारणा अपने मन में बना रखी थी। यही संकल्प करके वह आज होस्टल से कालेज आई थी कि आज उसको हर कीमत पर भारत से बात अवश्य ही करनी है। वह उसको लेकर कालेज के पार्क में घंटों बैठी रहेगी, चाहे कितनी ही कक्षाएं उसको क्यों न छोड़नी पड़ें। यही सोचकर रचना ने आज अपने आपको विशेष रूप से संवारा भी था। अपने अनाथालय से उसे एक विशेष प्रकार के ही कपड़े पहनने को मिलते थे- मुख्य रूप से सफेद कपड़ों में एक ऐसी देवी की प्रतिमा जैसी प्रतीत होती थी, जिसने कि अभी हाल में ही आकाश की बुलंदियों को त्यागकर इस धरती के आंचल में अपने बनने का प्रयत्न किया था। रचना का दिल था- उसके प्यार की भावनाओं के पहले-पहले अनछुए जज्बात थे। हृदय में आकांक्षाओं और आशाओं का समुद्र हिलोरें मार रहा था। प्यार की राहों पर बेतहाशा दौड़ने के लिए। यूं भी मनुष्य पहले कुछ सोच नहीं पाता है, वरना इस मार्गों पर चलने के लिए क्या कुछ नहीं कर जाता है। फिर रचना भी एक नारी थी- एक नारी का उसका अनछुआ दिल था। अपने दिल के अरमानों के ढेर का जनाजा वह क्योंकर सजा सकती थी? कैसे? अपने आंखों के सामने, अपनी अनमोल चाहतों के दीपों को वह क्यों प्रज्जवलित करने से रोक सकती थी? ऐसा तो वह कभी सपने में भी नहीं कर सकती थी। इसी कारण वह आज अपने को विशेष तौर पर संवार और सजाकर आई थी। दिल में अपने प्यार के गीतों के सरगम को संभाले हुए वह आगे बढ़ी जाती थी- ऐसे गीत- गीत के बोल, जो अपने साजन का स्पर्श पाकर ही सारे वातावरण को मदहोश बनाने के लिए, अभी से व्याकुल थे।
सफेद हल्की छींटदार साड़ी में रचना का सौंदर्य यूं प्रतीत होने लगा था, मानो प्रकृति ने सारी धरती की हरियाली समेटकर रचना के शरीर से लपेट दी हो। वैसे भी यदि किसी सुंदरता को मात्र क्षणभर संवारने और सपनों का इशारा ही प्राप्त हो जाता है, तो उसके आकर्षण में असाधारण तरह से चार चांद लग ही जाया करते हैं। रचना के रूप और सौंदर्य में भी एक विशेष प्रकार का आकर्षण आ चुका था- इस प्रकार की कालेज के हरेक छात्र की जैसे ही उस पर दृष्टि पड़ती थी, तो एक बार को उसे ठिठकना अवश्य ही पड़ जाता था।
फिर रचना जब कालेज आ ही गई, तो उसकी बेचैन आंखों ने सबसे पहले भारत की खोज करनी आरम्भ कर दी। परंतु शायद ये रचना का दुर्भाग्य ही कहा जाए कि आज प्रतिदिन के समान भारत उसको कालेज की गैलरी में नहीं दिखाई दिया। रचना ने एक ही दृष्टि में पल भर में ही, एक ओर से सारी लम्बी गैलरी का निरीक्षण कर लिया। भारत सचमुच ही आज वहां पर उपस्थित नहीं था। फिर भारत की यूं अचानक से गैर-मौजूदगी को पाकर रचना के अरमानों से प्यार भरा दिल अचानक ही एक अजीब प्रकार की शंका के कारण धड़ककर रह गया। दिल में उसके तुरंत ही अनेक प्रकार के शंकित विचार, तरह-तरह के प्रश्नों के साथ घुमड़ने लगे-कहां गया? आया तो अवश्य ही होगा? यहीं होना चाहिए था- इसी स्थान पर- इसी गैलरी में-कमरा नम्बर चार वाले दरवाजे के सहारे? ऐसा उसने सोचा; मगर उसके दिल को संतोष नहीं मिल सका। इसी सोच-विचार में वह शीघ्र ही लाइब्रेरी में चली गई; परंतु वहां पर भी सुबह के समय कुछेक छात्र और छात्राओं को देखकर उसका मन और भी खराब हो गया। भारत उसको वहां भी नहीं दिखाई दिया। फिर इसी ढूंढ़-ढांढ में उसके साथ पढ़ने वाली उसकी सहेली नीता मिल गई, तो वह भी उसके साथ हो ली। तब रचना नीता को भी बिना अपने दिल की कोई बात बताए हुए बहाने लगाकर सारा कालेज ही देख बैठी। फिर जब अंत में उसको विश्वास हो गया कि भारत इस समय कालेज में नहीं है, तो वह बहाने से ऐसे स्थान पर खड़ी हो गई, जहां से कालेज का मुख्य द्वार स्पष्ट दिखाई देता था। उसकी कक्षा आरम्भ होने में लगभग दस मिनट शेष थे। इन दस मिनटों के अंतर में रचना को अभी भी भारत के आने की पूरी संभावना थी। वह सोच रही थी कि हो सकता है कि आज भारत को आने में देर हो गई हो। यही सोचकर रचना ने तो अपने-आपको मना लिया था; परंतु उसके साथ में खड़ी उसकी सहेली नीता उसको देखकर आश्चर्य तो कर रही थी, लेकिन उससे भी अधिक रचना के बदले हुए हाव-भाव और क्रियाकलापों को देखकर मन में शंकित भी होने लगी थी। तब नीता ने बात आरम्भ की। वह एक संशय से रचना से बोली-
‘‘रचना!’’
‘‘!!’’ रचना ने जब उसकी तरफ देखा तो नीता ने कहा- ‘‘तुझे कक्षा में नहीं जाना है क्या? यहां क्यों खड़ी है?
‘‘अभी से!’’ रचना ने कहा तो नीता पहले से और भी अधिक आश्चर्य कर बैठी। वह अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी में समय देखते हुए बोली,
‘‘अभी से; मतलब क्या है तेरा? सात मिनट में कक्षा आरम्भ होने वाली है और तू कह रही है अभी से?’’
‘‘हां, चलती हूं।’’ ये कहकर रचना फिर से कालेज के मुख्य गेट की ओर ताकने लगी, तो नीता ने पहले तो उसे एक संशय से देखा, सोचा फिर बोली-
‘‘ये ले, तू बात मुझसे कर रही है और देख दूसरी तरफ रही है। किसी के आने की प्रतीक्षा है क्या?’’
‘‘नहीं तो....।’’ रचना बोली।
‘‘तो फिर उठती क्यों नहीं है?’’ नीता ने कहा तो रचना जैसे विवशता में उठते हुए बोली- ‘‘ठीक है। तू नहीं मानती है तो चल।’’
तभी कालेज का घंटा बजा, तो रचना का दिल और भी अधिक मायूस हो गया। इतनी अधिक देर प्रतीक्षा में आंखे बिछाने के पश्चात् भी भारत नहीं दिखा था और साथ में कालेज का घंटा भी घनघना गया था। कक्षा आरम्भ भी हो गई थी और भारत अभी तक आया नहीं था। रचना ऐसी परिस्थिति में कर भी क्या सकती थी? केवल मजबूरी में अपने हाथ मलकर रह गई वह। दिल मसोसकर वह नीता के साथ अपनी कक्षा की ओर बढ़ने लगी-बहुत खामोश-चुप और गंभीर भी।
बाद में जब कक्षा समाप्त हुई तो रचना को ज्ञात हुआ कि उस दिन भारत कालेज आया ही नहीं था। ये सब सुनकर रचना का दिल टूटा ही नहीं, परंतु बहुत उदास भी हो गई थी वह। फिर सारे दिन उसका मन कालेज में उचाट ही बना रहा। होस्टल भाग जाने को वह बार-बार बाध्य हुई, परंतु नीता हर समय उसके साथ ही बनी रही थी। उसने कुछ पढ़ा भी नहीं था। फिर दिल जब कहीं और लगा हुआ हो, तो पढ़ाई और पुस्तकें खोलने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसलिए रचना भी सारे दिन कालेज में पढ़ नहीं सकी थी। अपने जीवन के पहले-पहले कमसिन प्यार की किताब उसके मस्तिष्क में खुली पड़ी थी। कालेज की किताबों में उसका मन लग भी कैसे सकता था।
तब इस प्रकार सारे दिन रचना का मन कालेज में उदास ही रहा, बिखरा-बिखरा, टूटा-टूटा-सा जैसे गम का मारा किसी के आने की प्रतीक्षा ही करता रहा। न जाने कितनी हिफाजतों से वह आज अपने दिल की आकांक्षाओं को छुपाए हुए थी- कोमल सिहरनों की सेज पर उसने अपने प्यार के पहले-पहले तन्तु उत्पन्न किए थे। जैसे-तैसे उसे ये अवसर प्राप्त हुआ था; फिर ऐसे में यदि दिल की सारी तमन्नाओं पर मायूसियों की आग बरस पड़े-आरजुएं कुंठित हो जाएं तो दिल को तसल्ली देना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव भी हो जाता है, साथ ही दिल टूट भी जाता है। रचना के साथ भी ऐसा ही हुआ था- उसके प्यार के गीतों का राग अभी बना भी नहीं था और साज टूटने का अंदेशा पहले होने लगा था। दुःख तो होना ही था।
कालेज छूट गया तो रचना निराश कामनाओं की निरर्थक अर्थी के समान अपने होस्टल में वापस आ गई। दिल का बोझ समझकर उसने नीता के वे सारे कपड़े उतारकर पलंग पर फेंक दिए, जिन्हें उसने आज विशेष तौर पर उससे मांगकर पहन लिए थे। बड़े ही निराश मन से पुस्तकें और कापियां भी उसने एक कोने में मेज पर पटक दीं, और गंभीर होकर बड़े ही क्षुब्ध मन से अपना मुंह लटकाकर पलंग पर ही बैठ गई, बहुत ही चुप होकर-अपने गाल हाथ पर रखे हुए। भारत की अनुपस्थिति ने आज उसको न केवल परेशान ही क्रिया था, बल्कि प्यार की तपिश में निःस्वार्थ भावना से जलने और तड़पने के सुख का प्रथम अनुभव भी करा दिया था। दिल के रिश्तों के रिवाजों का चलन भी शायद कुछ ऐसा ही होता है कि करते हैं तो अपने ही मन की सुनते हैं तो अपने ही लिए-प्यार की दीवानगी और उसकी सारी हरकतों को जितना मुरझाने में आनंद और सन्तोष प्राप्त होता है, उतना उनको संवारने में नहीं। रचना भी शायद मर मिट जाना चाहती थी- अपने लिए और अपने भारत के लिए-केवल अपने ’भारत’ के लिए ही।
सारी रात रचना के मन-मस्तिष्क में आज भारत की अप्रत्याशित अनुपस्थिति खलबली मचाती रही। इसी ऊहापोह में वह एक क्षण को भी नहीं सो पाई। सोने का उसका मन ही नहीं हुआ। दिल में उसके भारत था- भारत का अहसास था। उसके अहसास में उसका अपना एक अधिकार छुपा हुआ था। उस अधिकार में उसका अनुठा प्यार था। उसकी ढेरों-ढेर यादें थीं। फिर ऐसी दशा में वह किस प्रकार अपने उदास दिल के साथ बेवफाई करके, अपनी रातों को बेमकसद, जागना कुछ अच्छी तरह ही सीख जाते हैं। रचना भी सारी रात जागी- थोड़ा बहुत नहीं; बल्कि जी भर, वह हर समय कमरे की शून्यता में उसकी छत से ही बातें रचना भी अपने दिल के प्यार के सपनों के सारे चित्रों को सजा - सजाकर रखती रही। बार-बार संवारकर उसकी कल्पनाओं के मधुर रूप तैयार करती रही। दिल में उसके प्रथम प्यार का शोर मचा हुआ था, कैसे सो सकती थी वह।
क्रमश: