Machargandha... in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | मछरगन्धा...

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मछरगन्धा...

"क्या हुआ पुरोहित जी! ऐसे उदास क्यों बैठें हैं"? राममूरत ने बूढ़े पुरोहित जी से पूछा....
"बहुत बुरा हुआ बेटा उसके साथ,ऐसा नहीं होना चाहिए था,उसके कर्मों की इतनी बुरी सजा उसे नहीं मिलनी चाहिए थी",पुरोहित जी बोले....
"किसके साथ क्या हो गया,किसे ऐसी सजा नहीं मिलनी चाहिए थी,मैं कुछ समझा नहीं,जरा खुलकर बताऐगें कि क्या हुआ है",राममूरत ने पूछा....
"वो मेरा मित्र था,हम दोनों गुरुकुल में साथ में पढ़ा करते थे,कल शाम मुझे खबर मिली कि वो नहीं रहा",पुरोहित जी बोले....
"तो क्या वो बीमार थे या उनकी उम्र हो चुकी थी",राममूरत ने पूछा....
"ना वो बीमार था और ना ही उसकी इतनी खास उम्र थी,उसने तो विष खाकर आत्महत्या कर ली",पुरोहित जी बोले....
"विष खाकर आत्महत्या कर ली....लेकिन भला क्यों"?,राममूरत ने पूछा....
"बहुत लम्बी कहानी है उसकी,इसलिए कहते हैं कि पाप उतने ही करो जितने की ढ़ो पाओ,जब पाप का पलड़ा भारी हो जाता है ना तो इन्सान का सन्तुलन बिगड़ जाता है,यही शायद उसके साथ भी हुआ",पुरोहित जी बोले....
"लेकिन उन्होंने ऐसा क्या किया जो उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी",राममूरत ने पूछा....
"तुम सुनना चाहते हो तो सुनो उस अभागे शिवकिर्तन चतुर्वेदी की कहानी"
ऐसा कहकर पुरोहित जी ने शिवकिर्तन चतुर्वेदी की कहानी राममूरत को सुनानी शुरु की....
बहुत समय पहले की बात है एक गाँव में एक पण्डित जी रहा करते थे जिनका नाम शीर्षनाथ चतुर्वेदी था,वें शास्त्रों के इतने ज्ञाता नहीं थे इसलिए लोग अपने घरों की पूजा पाठ उनसे करवाने के लिए कतराया करते थे,इस बात का शीर्षनाथ जी को बड़ा अफसोस रहता था इसलिए शीर्षनाथ जी ने मन में पक्का इरादा कर लिया था कि वें अपने बेटे को प्रकाण्ड विद्वान बनाकर ही दम लेगें,दिन गुजरे और अब उनका बेटा चौदह बरस का हो चला था और तभी उनकी पत्नी को भयानक ज्वर ने जकड़ लिया और ज्वर ने इतना भयानक रुप ले लिया कि वो ज्वर उनकी पत्नी लीलावती के मस्तिष्क तक पहुँच गया,पण्डित जी ने गाँव के वैद्य से लीलावती का बहुत इलाज करवाया लेकिन लीलावती को वो ज्वर लील कर ही माना,पत्नी की आकस्मिक मृत्यु से पण्डित जी को बड़ा आघात पहुँचा और उनका मन अत्यधिक व्यथित सा रहने लगा....
वैसें भी कमाई का एक ही जरिया था और वो थी उनकी पण्डिताई जो कि कभी कभार ही चलती थी,जब गाँव के लोगों को कोई पण्डित पुरोहित नहीं मिलता था तब वें मजबूरी में पण्डित शीर्षनाथ चतुर्वेदी को बुलाया करते थे,घर में खाने के लाले पड़े थे,इसलिए बेटे शिवकीर्तन की शिक्षा के लिए भला धन कहाँ से आवें,इरादे तो बहुत बड़े थे पण्डित जी के कि वें बेटे को बहुत बड़ा शास्त्री बनाऐगें लेकिन हाथ में फूटी रुपल्ली भी ना थी और इसी बीच वें मन की शान्ति के लिए अपने बेटे के साथ ऋषिकेश आ गए तब उन्हें वहाँ आकर पता चला कि वहाँ एक गुरुकुल चलता है,जहाँ बच्चों को मुफ्त में वेदों,उपनिषदों और महाकाव्यों का ज्ञान कराया जाता है,बस बच्चों को वहाँ फीस के बदले अपने गुरुओं की सेवा करनी होती है,अब क्या था यह सुनकर पण्डित शीर्षनाथ चतुर्वेदी का माथा सनक गया और वें उसी वक्त शिवकीर्तन को उस गुरुकुल में भरती करवाकर घर वापस आ गए,
पाँच छः बरस बाद शिवकीर्तन ऋषिकेश से प्रकाण्ड विद्वान बनकर लौटा,वो अब लगभग बीस बरस का हो चुका था ,अब गाँव के लोगों के बीच पण्डित शीर्षनाथ चतुर्वेदी का अलग ही रुतबा था क्योंकि वें तो नहीं लेकिन अब उनका बेटा वेदों और उपनिषदों का प्रकाण्ड ज्ञाता था,उसे संस्कृत के श्लोक तो मुँह जुबानी याद थे,किसी भी कर्मकाण्ड का वो विधि विधान पूर्वक अनुष्ठान करवाता था,अब अपने बेटे की विद्वत्ता को देखकर पण्डित जी की छाती चौड़ी हो जाती थी और आस पास के पण्डितों के सीने पर साँप लोटने लगता था क्योंकि अब शिवकीर्तन के आगें सबकी पण्डिताई ठप्प हो चली थी....
जब शिवकीर्तन की पण्डिताई चलने लगी तो शीर्षनाथ जी ने सोचा कि अपने बेटे का ब्याह कर दिया जाए और एक खूबसूरत सी अच्छे घराने की कन्या को वो बहू बनाकर अपने घर ले आए,बहू का नाम अनुसुइया था,अनुसुइया देखने में बहुत सुन्दर थी,उसके शरीर का एक एक अंग देखकर लगता था कि जैसे ईश्वर ने उसे बड़ी फुरसत से गढ़ा था,उसके गदराये यौवन ने एक ही झलक में शिवकीर्तन को दीवाना बना डाला,अनुसुइया बड़ी ही अच्छी गृहिणी साबित हुई लेकिन कभी कभी शिवकीर्तन को लगता था कि जैसे अनुसुइया के मन में कोई बात है जो वो उससे कह नहीं पा रही है,जब दोनों अंतरंग पलों में होते तो शिवकीर्तन को लगता था कि जैसे अनुसुइया को कुछ खटक रहा है वो उसके साथ उस पल को जी नहीं रही है उसका आनन्द नहीं उठा पा रही है,लेकिन फिर शिवकीर्तन सोचता कि शायद सभी महिलाएंँ उस पल में ऐसा ही व्यवहार करती हों,वो अनुसुइया को बहुत चाहता था इसलिए उसकी इस बात को उसने अनदेखा कर दिया और ब्याह के बाद वो हमेशा घर में घुसा रहने लगा था इसलिए एक दिन पण्डित शीर्षनाथ ने उसे सुनाते हुए कहा.....
"भाई! ब्याह तो सभी का होता है,सभी पर जवानी आती है इसका मतलब ई थोड़े ही है कि हरदम मेहरारू के पल्लू में घुसे रहो,काम धन्धा छोड़कर घर में बैठ जाओ"
और फिर उस दिन के बाद पण्डित शिवकीर्तन फिर से अपनी पण्डिताई पर लग गए और देखते ही देखते ही घर में अन्धाधुन्ध पैसा आने लगा,अनुसुइया सिर से पैर तक सोने के गहनों से लद गई,कच्चे की जगह पक्का मकान बनना शुरु हो गया लेकिन शायद पण्डित शीर्षनाथ चतुर्वेदी के भाग्य में पक्के मकान में रहना नहीं लिखा था इसलिए बड़े पोते पीताम्बर के जन्म के बाद वें स्वर्ग सिधार गए,अब दूसरा बेटा नीलाम्बर भी पैदा हो चुका था,शिवकीर्तन की तरक्की देखकर गाँव के और पण्डित जलभुन कर राख होने लगे,लेकिन ये तो केवल शिवकीर्तन ही जानते थे कि वें वो कमाई किस प्रकार कर रहे थे,वें अब पण्डिताई से आगे और भी कुछ करने लगे थे,उन्होंने अब लोगों को कालेजादू के नाम पर ठगना शुरु कर दिया था,वे लोगों से कहते कि इसके बारें में किसी से कुछ मत कहना वरना कार्य पूर्ण नहीं होगा,मेरी सिद्धि असफल हो जाएगी,जो लोग अपनी तरक्की चाहते,किसी को अपने वश में करवाना चाहते या किसी की दौलत को अपना बनाना चाहते वें लोग पण्डित शिवकीर्तन के पास जाते थे और टोना टोटका करवाकर अपना काम निकलवाते थे और शिवकीर्तन उन लोगों से पूजा के रुप में कभी लकड़बग्घे का बाल,श्मशान की राख,मुर्दे की अधजली खाल तो कभी उल्लू की आँखें और कवरबिज्जू का दाँत मँगवाते और इन सभी चींजो का इन्तजाम वें सब लोग तो नहीं कर सकते थे इसलिए वें इन सब चींजो के लिए शिवकीर्तन को पैसें देकर ये कहते कि आप ही इन सभी चींजो का इन्तजाम खुद कर लीजिएगा,इस तरह से पण्डित जी की निकल पड़ी थी,वें सब चींजे अनुष्ठान में रखते और फिर दूसरे लोगों से पैसा लेकर उन्हीं चींजो को दोबारा भी इस्तेमाल कर लेते,उनके घर का पैसा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रहा था.....
इसी तरह साल गुजरे और दोनों बेटे सोलह और अठारह के हो चुके थे,बाप के पास अपार सम्पत्ति थी इसलिए वें दोनों दिनभर जुआँ खेलते ,गाँव की लड़कियों को छेड़ते और रात को मन का खाना ना मिलने पर माँ को मस्त गालियाँ सुनाकर सो रहते,उन्हें चाहिए था गोश्त और मछली जो कि अनुसुइया के घर में कभी बनती ही नहीं थी,इसलिए माँ को गालियाँ सुनाते,आए दिन घर पर शिकायत आती कि उन दोनों ने आज उसकी बहू को खेतों में पकड़ा,कल उसकी बेटी को,वें दोनों तो अधेड़ उम्र की औरतों को भी नहीं छोड़ते थे और फिर एक दिन हद तो तब हो गई जब एक विधवा ब्राह्मणी को वें दोनों खेतों में घसीटकर ले गए और उसके साथ कुकर्म कर डाला,अनुसुइया तक खबर पहुँची तो वो भीतर तक तिलमिला गई और उस रात उसने ना तो रसोई पकाई और ना ही घर में दिया बाती की,जब शिवकीर्तन लौटे तो बोले....
"ये क्या घर में आज दिया बाती भी नहीं की और दोनों लड़के कहाँ हैं"?
"मर गए दोनों,इसलिए दिया बाती नहीं की आज",अनुसुइया गुस्से से बोली....
"क्या बकती हो?",
और ऐसा कहकर शिवकीर्तन ने अनुसुइया को दो झापड़ रसीद दिए,अब अनुसुइया गुस्से में अपना आपा खो बैठी और शिवकीर्तन से बोली....
"ओ.... मछरगन्धा! हाथ मत लगा मुझे,तेरे शरीर की मछली जैसी बदबू इतने सालों से बरदाश्त करती आ रही हूँ,अब तेरी मार बरदाश्त नहीं करूँगी,तेरे ही पाप हैं जो अब एक एक करके सामने आ रहे हैं,इसलिए ऐसी कुकर्मी औलादें पैदा हुईं हैं तेरे घर में"
अब शिवकीर्तन ने ये सुना तो वो अपना माथा पकड़कर धरती बैठ गया और उसे तब मालूम हुआ कि अनुसुइया अंतरंग पलों में ऐसा व्यवहार क्यों करती थी,लेकिन उस बात को तो सालों बीत चुके हैं क्या अब भी उस मछुवारन की बदबू मेरे शरीर से आती है,क्या उस सत्यवती ने अभी भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा और शिवकीर्तन अपने अतीत के भँवर में गोते खाने लगे.....
जब उनके पिता पण्डित शीर्षनाथ उन्हें गुरुकुल छोड़कर आए थे,वहाँ उसे कई साथी मिले,उनके पिता ने तो उन्हें वहाँ छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया लेकिन उसके बाद जो उन्होंने वहाँ भुगता उसे कोई नहीं समझ सकता,उनके सारे बाल मुँडाकर उनके सिर पर शिखा रख दी गई और एक धोती नीचे और एक धोती ऊपर पहनने को दी गई,कई लड़को ने उनसे कुछ कहने का प्रयास किया लेकिन वो कुछ कह नहीं पाए,वे सभी छात्र हमेशा डरे और सहमे रहते थे जिसका कारण शिवकीर्तन कभी समझ नहीं पाते थे और इस तरह से जब शिवकीर्तन को वहाँ रहते एक महीना बीत चुका था और उस रोज एक गुरुजी उनके पास आकर बोले....
"शिवकीर्तन! सभी छात्र बारी बारी से आचार्य जी की सेवा कर चुके हैं,आज तुम्हारी बारी है,आज वें तुम्हें विशेष ज्ञान देगें और याद रहें वो ज्ञान तुम्हें किसी के साथ नहीं बाँटना है",
ये सुनकर शिवकीर्तन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और जब रात हुई तो उसके लिए बड़े आचार्य का बुलावा आया और वो खुशी खुशी उनकी कुटिया में पहुँचा,उनकी कुटिया में लालटेन का उजियारा था,वो कुटिया में पहुँचा तो आचार्य ने उससे किवाड़ बंद करने को कहा ,उसने खुशी खुशी किवाड़ बंद कर दिए और उस रात आचार्य जी ने उसे जो ज्ञान दिया वो उसे कभी नहीं भूल पाया,आचार्य ने उसके बचपने को कुचल दिया था,उसके बालमन को रौंदकर उन्होंने उस रात उसके संग कुकृत्य किया,उसने चीखने की कोशिश की तो उन्होंने उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया,वो अपना घायल मन और घायल शरीर लेकर बिस्तर पर लेटा और सारी रात रोता रहा लेकिन अब उसके साथ छोटे और बड़े गुरू भी यही करने लगे फिर एक रोज वो इन सबसे तंग आकर गुरुकुल छोड़कर अपने घर लौट आया लेकिन उसके पिता फिर से उसे ये समझकर वहीं छोड़ आए कि ये गुरुकुल के कठिन नियमों का पालन नहीं कर पा रहा है इसलिए गुरुकुल छोड़कर चला आया है.....
अब आए दिन शिवकीर्तन के साथ यही होने लगा,उसे खुद से नफरत होने लगी,खुद से घिन आने लगी इसलिए एक दिन वो आत्महत्या के इरादे से गंगा के किनारे वीराने में पहुँचा,जहाँ उसे कोई बचा ना सके और उसने खुद को गंगा के सुपुर्द कर दिया लेकिन उसे किसी ने बचा लिया जो उसकी ही हमउम्र लड़की थी और उसका नाम सत्यवती था,सत्यवती के प्रेमभरे शब्दों को सुनकर वो अपने दर्द भूल बैठा और जब भी उसे मौका मिलता वो रात के अँधेरे में सत्यवती से मिलने आने लगा,वो एक मछुवारन थी,उसकी देह से हमेशा मछलियों की गन्ध आती थी और एकरात जब आकाश में बादल घिरे तो जैसे पराशर ऋषि ने सत्यवती की देह का स्पर्श किया था,उसी तरह उस रात शिवकीर्तन की देह में सत्यवती समा गई,लेकिन इसके बाद वो कभी भी सत्यवती से अपने प्रेम का इजहार ना कर पाया,उसकी देह का उपयोग तो करता रहा लेकिन मन से उसे कभी नहीं अपना पाया और जब वो गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूरी करके वापस आ रहा था तो वो कायरों की भाँति उससे मिले बिना ही वापस आ गया....
मतलब अनुसुइया को मुझसे मछली की बदबू आती है तभी वो मेरे नजदीक आने पर उदासीन सी हो जाती थी,अब शिवकीर्तन को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने अनुसुइया से अपने व्यवहार के लिए माँफी माँगी,लेकिन अनुसुइया ने कुछ भी नहीं कहा और बिस्तर पर जाकर लेट गई,उस रात घर में पण्डित जी ने भी दिया बाती नहीं की और ना ही कुछ पकाया खाया,आधी रात गए जब नीलाम्बर और पीताम्बर घर लौटे तो पण्डित जी ने उन दोनों को घर से निकाल दिया क्योंकि उन दोनों के कुकर्म गाँव के लोग पण्डित जी को बताकर चले गए थे और फिर दोनों को पुलिस गिरफ्तार करके ले गई,लेकिन कुछ दिनों बाद वें दोनों जेल से भाग निकले और गाँव आकर फिर से वही चोरी चकारी,मारपीट और गाँव की बहू बेटियों से बदसलूकी करने लगे,इसलिए गाँववालों ने उन दोनों को गाँव से निकाल दिया,लेकिन वें दोनों दूसरों गाँव में जाकर वही सब करने लगे,इस बीच वें दोनों कई बार जेल गए और जेल से भाग निकले.....
और फिर एक रात वो सेंध लगाकर पण्डित जी के घर में घुसे,उस समय अनुसुइया जाग रही थी उसने आहट सुनी तो चोर चोर चिल्लाना शुरु कर दिया,तब तक शिवकीर्तन जी भी जाग उठे और उन्होंने जब अपने ही घर में अपने दोनों बेटों को चोरी करते देखा तो लाठी उठाकर दोनों की ओर लपके,लेकिन पीताम्बर ने उनके हाथ से लाठी छीनी और उन पर ही बरसाने लगा,पति को पिटता देखकर अनुसुइया बीच में आ गई और उसकी कमर में एक जोर की लाठी पड़ गई और वो वहीं धराशायी हो गई,इस बीच दोनों बेटे भाग निकले और इधर शिवकीर्तन जी पार्वती को सम्भालने में लग गए और बाद में पता चला कि अब अनुसुइया हमेशा के लिए अपाहिज हो चुकी है वो सारी उम्र यूँ ही बिस्तर पर रहेगी,कभी चल फिर नहीं पाएगी,ये बात पण्डित जी ने स्वीकार कर ली और साथ में ये भी स्वीकार कर लिया कि ये सब उनके कुकर्मों का नतीजा है,अब दिनभर बिस्तर पर पड़े पड़े अनुसुइया पण्डित जी को कोसती रहती,दिनभर गालियाँ देती रहती और पण्डित जी सहर्ष सुनते रहते ,कभी भी जवाब ना देते,दिन रात उसकी सेवा करते रहते, अनुसुइया के नहलाने से लेकर रात के सोने तक का सारा काम बिना किसी चिड़चिड़ के वही करते रहते,तब भी अनुसुइया उन पर तरस ना खाती और गालियाँ देती रहती......
दिन गुजरे पण्डित जी की पण्डिताई कुछ तो उनके दुष्कर्मी बेटों के कारण छूट गई और कुछ उन जजमानों के कारण छूट गई,जिन्हें पण्डित जी के अनुष्ठानों का कोई लाभ नहीं मिला और पण्डित जी को उन सभी ने इस काम के लिए गाढ़ी कमाई दी थी,पण्डित जी की सारी जमापूँजी धीरे धीरे खर्च हो गई ,अनुसुइया के जेवर भी गरीबी की भेंट चढ़ गए,यहाँ तक की घर के बर्तन भी बिकने लगे,जो उपहार स्वरूप कुछ जमीने उन्हें मिली थीं वो तो कब की बिक चुकीं थीं, घर रह गया था वो भी गिरवीं पड़ा था,जैसे तैसे गुजारा चल रहा था और फिर एक दिन सुबह सुबह किसी ने पण्डित जी के दरवाजे पर दस्तक दी और जब पण्डित जी उसके कहने पर तालाब के बगल वाले खेत पर गए थे उन्होंने देखा कि उनके बड़े बेटे पीताम्बर की लहुलूहान लाश पड़ी है और उसकी लाश के पास से कुछ घिसटने के निशान भी थे,गाँव के लोग उस निशान के पीछे पीछे चले तो काफी दूर पर घास के बीच में नीलाम्बर का सिर पड़ा था और कुछ दूर पर उसका धड़ पड़ा था,साथ में एक साड़ी भी पड़ी थी,ऐसा लग रहा था कि उन दोनों का ऐसा हाल किसी औरत ने किया है....
ये देखकर पण्डित जी जरा भी दुखी नहीं हुए और लोगों से कहा कि मैं घर जा रहा हूँ,पुलिस आ जाए तो मुझे खबर कर देना,वें घर पहुँचे तो अनुसुइया ने पूछा कि .....
"सुबह सुबह कहाँ निकल गए थे,देखो मैं नहाने को बैठी हूँ",
"बस ऐसे ही,चलो मैं तुम्हें नहला देता हूँ"
और ऐसा कहकर पण्डित जी ने अनुसुइया को नहलाया,फिर खुद नहाकर खाना पकाने बैठ गए,उस दिन उन्होंने अनुसुइया की मनपसंद कढ़ी और चावल बनाएँ,अनुसुइया को खाना परोसकर बोले....
"तुम्हें आपत्ति ना हो तो मैं भी आज तुम्हारी ही थाली से खा लूँ",
उस दिन पण्डित की आँखों में निर्मलता देखकर अनुसुइया की आँखें भर आईं और उसने खुद ही पण्डित जी के मुँह में कढ़ी चावल का निवाला डाला और फिर पण्डित जी ने भी अनुसुइया को कढ़ी चावल का निवाला खिलाया,दोनों एक दूसरे को खिला ही रहे थे कि तभी दोनों के गले में तेज दर्द हुआ तो पण्डित जी बोलें.....
"पण्डिताइन! आज मेरे और तुम्हारे सभी दुख दूर हो जाऐगें क्योंकि मैंने खाने में विष मिलाया है",
अब पण्डिताइन भी अपने इस जीवन से ऊब चुकी थी और आज उसने मछली की बदबू का ख्याल ना करते हुए पण्डित जी को अपने सीने से लगा लिया और उनके चरण स्पर्श करके लरछती आवाज़ में बोली...
"मैंने तुमसे ही प्रेम किया है मेरे "मछरगन्धा"
ये सुनकर पण्डित जी मुस्कुराए,अनुसुइया भी मुस्कुराई और दोनों ने अपने अपने प्राण त्याग दिए....
कहानी सुनाते सुनाते पुरोहित जी की आँखें भर आईं और वें राममूरत से बोलें....
"उनके गाँव का एक व्यक्ति ये खबर लेकर आया था"
"तो ये थी मछरगन्धा पण्डित की कहानी",राममूरत बोला....
और दोनों की बातें यूँ ही चलतीं रहीं.....



समाप्त....
सरोज वर्मा....