(भाग 12)
अब तक आपने पढ़ा कि रघुनाथ स्टोर रूम का दरवाज़ा पूरी ताकत लगा देने के बाद तोड़ देंता है।
अब आगें...
कमरे के अंदर घुप्प अंधेरा था। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। शोभना और रघुनाथ धीरे-धीरे आगें बढ़ते जा रहें थे।
"किटी...किटी...किटी बेटा...." - शोभना अपनी बेटी को पुकार रहीं थीं।
उसकी आवाज़ बरसों से बन्द पड़े कबाड़ से भरे कमरे में गूंज रही थीं।
रघुनाथ पैर से जमीन को टटोलते हुए आगें बढ़ता जा रहा था। रघुनाथ के पैर से कुछ टकराता है। रघुनाथ ने झुककर उसे टटोला।
"शायद ! यह टॉर्च है।" - यह विचार करके रघुनाथ ने वह वस्तु उठा ली।
सचमुच वह वस्तु पुराने ज़माने की टॉर्च ही थीं। रघुनाथ ने उसमें बनें स्वीच को ऑन किया लेक़िन टॉर्च ऑन नहीं हुआ।
शोभना ने चिढ़कर कहा - " फेंको इस कबाड़ को औऱ जल्दी से किटी को ढूंढो। मेरा तो इस जगह पर बहुत दम घुट रहा है। अजीब सी बेचैनी हो रहीं हैं। सिर भी भारी हुआ जा रहा है। न जाने क्यों यह महसूस हो रहा है कि यहाँ किसी ने अपनी ज़िंदगी के कई साल गुजार दिए।"
रघुनाथ का ध्यान टॉर्च पर ही केंद्रित था। वह टॉर्च को इस उम्मीद से ठोंक रहें थे मानों बन्द पड़ी टॉर्च के कोई पुर्जा हिल जाए और टॉर्च चालू हो जाए। रघुनाथ ने शोभना की बात पर ध्यान ही नहीं दिया।
शोभना को रघुनाथ का यह रवैय्या नागवार गुजरा। घुप्प अंधेरे में भी उसने अंदाजे से ही रघुनाथ के हाथ से टॉर्च छीनकर दूर फेंक दिया।
फेंके जाने से टॉर्च ऑन हो गया। जिस जगह टॉर्च गिरा था वहाँ पर एक रॉकिंग चेयर रखी हुई थीं। चेयर के पास साइड टेबल थी, जिस पर ग्रामोफोन रखा हुआ था।
रघुनाथ तेज़ क़दमो से बढ़ता हुआ टॉर्च की ओर जाता है। वह टॉर्च उठाकर जैसे ही मुड़ता है, तो चर्र-चर्र आवाज़ करतें हुए रॉकिंग चेयर इस तरह से हिलने लगतीं है, जैसे उस पर बैठकर कोई आराम फरमा रहा हैं। थूक गटकते हुए रघुनाथ ने कपकपाते हाथ से चेयर रोक दी।
रघुनाथ को वहाँ एक पल खड़े रहना भी किसी भयानक सज़ा सा लगा। वहाँ से वह तुरन्त हट जाता है। उसने टॉर्च की रौशनी से पूरे कमरे का मुआयना किया। किटी कही भी दिखाई नहीं दी। रघुनाथ घूमते हुए जब कमरे को देख रहा होता है तो अचानक वह धक से रह जाता है।
घूमते हुए जब रधुनाथ टॉर्च की रौशनी सामने दिखाता है तो उसे सामने एक औरत दिखाई देती हैं। उस औरत के जटाओं से उलझें हुए बाल उसके चेहरे पर बिखरें पड़े थे। बालों के बीच मे से झाँकती हुई गहरी काली आँखे एक टक रघुनाथ को ही घूरकर देख रही थीं। उसके होठ भी काले सियाह थे। उसका चेहरा शांत था।
अचानक रघुनाथ के कंधे पर एक हाथ आता हैं और वह बुरी तरह से चीख़ पड़ता हैं। सन्नाटे में रघुनाथ की चीख़ देर तक गूँजती रहीं।
"क्या हुआ रघु..." - शोभना ने डरते हुए पूछा।
रघुनाथ का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसकी सांस ही रुक गई थी। अब फिर से सांस आई और वह गहरी सांसें भरने लगा था। डर के कारण उसके मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थें। उसका पूरा बदन पसीने से तरबतर हो गया। कुछ देर तक हाँफने के बाद रघुनाथ ने कहा - "शोभना, वह औरत..! अभी-अभी मेरे सामने वह औरत खड़ी थीं।"
शोभना की तो मानो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई। डर उसके शरीर में रक्त के साथ बह रहा था। उसे अब अपना जीवन ही अंधकारमय प्रतीत होने लगा था। वह समझ गई थी कि उस औरत ने ही यह सब जाल बुना था उन्हें यहाँ इस कमरें तक लाने के लिए। रात का समय था। उसकी शक्तियां अब कई गुना बढ़ चूंकि थी। उसकी शक्ति के आगे जब पंडितजी हथियार डाल चूंके थे तो अब रघुनाथ और शोभना कैसे उसका मुकाबला कर सकेंगे। उनका मरना अब तय था। वह स्वयं ही काल के गाल में समाने चले आए थे।
रघुनाथ अब तक गहरे सदमे में था। न जाने कौन सी ऐसी ताकत थी जिसके कारण वह उस भयंकर दृश्य को देख लेने पर भी अब तक जिंदा था।
शोभना औऱ रघुनाथ मौन हो गए। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था।
कुछ देर की शांति के बाद एकदम से ग्रामोफोन बज उठा। वहीं गीत एक बार फिर उस डरावनी फ़िज़ा में गूँजने लगा...
दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है
उम्र भर का ग़म हमें ईनाम दिया है
दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है
उम्र भर का ग़म हमें ईनाम दिया है
तूफ़ाँ में हमको छोड़ के साहिल पे आ गये...
तूफ़ाँ में हमको छोड़ के साहिल पे आ गये...साहिल पे आ गये
नाख़ुदा का...
नाख़ुदा का हमने जिन्हें नाम दिया है
उम्र भर का ग़म हमें ईनाम दिया है
पहले तो होश छीन लिये ज़ुल्म-ओ-सितम से...
पहले तो होश छीन लिये ज़ुल्म-ओ-सितम से
...ज़ुल्म-ओ-सितम से...दीवानगी का...
दीवानगी का फिर हमें इल्ज़ाम दिया है
उम्र भर का ग़म हमें ईनाम दिया है
दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है
इतने बोल बजने के बाद गीत रुक गया।
शेष अगलें भाग....
क्या आज शोभना और रघुनाथ की जीवनलीला समाप्त हो जाएगी ? जानने के लिए कहानी के साथ बनें रहिए।