चक्रवर्ती सम्राट् अशोक (ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान् सम्राट् थे। सम्राट् अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। उनका राजकाल ईसा पूर्व 269 से 232 प्राचीन भारत में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट् अशोक ने अखंड भारत पर राज्य किया है तथा उनका मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिंदूकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश से पश्चिम में अफगानिस्तान, ईरान तक पहुँच गया था। सम्राट् अशोक का साम्राज्य आज का संपूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार के अधिकांश भू-भाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट् अशोक विश्व के सभी महान् एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर रहे हैं। सम्राट् अशोक भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान् सम्राटों में से हैं। सम्राट् अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट् अशोक’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है—सम्राटों का सम्राट्।सम्राट् अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से ज्यादा कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। सम्राट् अशोक ने संपूर्ण एशिया तथा अन्य महाद्वीपों में भी बौद्ध पंथ का प्रचार किया। सम्राट् अशोक के संदर्भ के स्तंभ एवं शिलालेख आज भी भारत के कई स्थानों पर दिखाई देते हैं। इसलिए सम्राट् अशोक की ऐतिहासिक जानकारी अन्य किसी भी सम्राट् या राजा से बहुत व्यापक रूप में मिल जाती है। सम्राट् अशोक प्रेम, सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवनप्रणाली के सच्चे समर्थक थे, इसलिए उनका नाम इतिहास में महान् परोपकारी सम्राट् के रूप में दर्ज हो चुका है। कलिंग युद्ध के पश्चात् सम्राट् अशोक भगवान् बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध अनुयायी हो गए और उन्हीं की स्मृति में उन्होंने कई स्तंभ खड़े कर दिए, जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल-लुंबिनी में मायादेवी मंदिर के पास, सारनाथ बौद्ध मंदिर बोधगया, कुशीनगर एवं श्रीलंका, थाईलैंड, चीन में आज भी अशोक स्तंभ में देखे जा सकते हैं। सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। सम्राट् अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट् अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई, जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेशों से छात्र शिक्षा ग्रहण करने भारत आया करते थे। ये विश्वविद्यालय उस समय के उत्कृट विश्वविद्यालय थे। अशोक शिलालेख प्रारंभ करने वाले पहले शासक थे। अशोक ने बौद्ध पंथ के सिद्धांत लागू किए, जो आज भी कार्यरत हैं।
आरंभिक जीवन
अशोक सम्राट् बिंदुसार तथा रानी धर्मा के पुत्र थे। लंका की परंपरा में बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन का नामोल्लेख हैं, वे है—सुसीम, जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य; तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था। एक दिन धर्मा को स्वप्न आया कि उसका बेटा एक दिन बहुत बड़ा सम्राट् बनेगा। उसके बाद उसे राजा बिंदुसार ने अपनी रानी बना लिया। चूँकि धर्मा क्षत्रिय कुल से नहीं थी, अतः उसको कोई विशेष स्थान राजकुल में प्राप्त नहीं था। अशोक के कई (सौतेले) भाई-बहन थे। बचपन में उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी। अशोक के बारे में कहा जाता है कि वह बचपन से ही सैन्य गतिविधियों में प्रवीण था। दो हजार वर्षों के पश्चात् आज भी सम्राट् अशोक का प्रभाव एशिया, मुख्यतः भारतीय उपमहाद्वीप में देखा जा सकता है। अशोक काल में उकेरा गया प्रतीकात्मक चिह्न, जिसे हम ‘अशोक चिह्न’ के नाम से जानते हैं, आज भारत का राष्ट्रीय चिह्न है। बौद्ध पंथ के इतिहास में गौतम बुद्ध के पश्चात् सम्राट् अशोक का ही स्थान आता है। दिव्यावदान में अशोक की एक पत्नी का नाम ‘तिष्यरक्षिता’ मिलता है। उनके लेख में केवल उनकी पत्नी ‘करुणावकि’ है। दिव्यावदान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक के नाम का उल्लेख है।
साम्राज्य विस्तार
अशोक का ज्येष्ठ भाई सुसीम उस समय तक्षशिला का प्रांतपाल था। तक्षशिला में भारतीय-यूनानी मूल के बहुत से लोग रहते थे। इससे वह क्षेत्र विद्रोह के लिए उपयुक्त था। सुसीम के अकुशल प्रशासन के कारण उस क्षेत्र में विद्रोह पनप उठा। राजा बिंदुसार ने सुसीम के कहने पर राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ भेजा। अशोक के आने की खबर सुनकर ही विद्रोहियों ने उपद्रव समाप्त कर दिया और विद्रोह बिना किसी युद्ध के खत्म हो गया, हालाँकि यहाँ पर एक बार फिर अशोक के शासनकाल में विद्रोह हुआ था, पर इस बार उसे बलपूर्वक कुचल दिया गया। अशोक की इस प्रसिद्धि से उसके भाई सुसीम को सिंहासन न मिलने का संकट बढ़ गया। उसने सम्राट् बिंदुसार से कहकर अशोक को निर्वासन में डाल दिया। अशोक कलिंग चला गया। वहाँ उसे मत्स्यकुमारी कौर्वकी से प्रेम हो गया। वर्तमान में मिले साक्ष्यों के अनुसार बाद में अशोक ने उसे तीसरी या दूसरी रानी बनाया था। इसी बीच उज्जैन में विद्रोह हो गया। सम्राट् बिंदुसार ने अशोक को निर्वासन से बुलाकर विद्रोह को दबाने के लिए भेज दिया, हालाँकि उसके सेनापतियों ने विद्रोह को दबा दिया, पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई, क्योंकि मौर्यों द्वारा फैलाए गए गुप्तचरों के जाल से उसके बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुशीम द्वारा उसे मरवाए जाने का भय था। वह बौद्ध संन्यासियों के साथ रहा था। इसी समय उसे बौद्ध विधि-विधानों तथा शिक्षाओं का पता चला था। यहाँ पर एक सुंदरी, जिसका नाम देवी था, उससे अशोक को प्रेम हो गया। स्वस्थ होने के बाद अशोक ने उससे विवाह कर लिया। कुछ वर्षों के बाद सुशीम से तंग आ चुके लोगों ने अशोक को राजसिंहासन हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि उस समय तक सम्राट् बिंदुसार वृद्ध तथा रुग्ण हो चले थे। जब वे आश्रम में थे, तब उनको समाचार मिला कि उनकी माँ को उनके सौतेले भाइयों ने मार डाला, तब उन्होंने राजभवन में जाकर अपने सारे सौतेले भाइयों की हत्या कर दी और सम्राट् बने। सत्ता सँभालते ही अशोक ने पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही दिशा में अपना साम्राज्य फैलाना प्रारंभ किया। उसने आधुनिक असम से ईरान की सीमा तक का साम्राज्य केवल आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया।
कलिंग की लड़ाई
चक्रवर्ती सम्राट् अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष (261 ई.पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था। आंतरिक अशांति से निपटने के बाद 269 ई.पू. में उनका विधिवत राज्याभिषेक हुआ। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख 50 सहस्र व्यक्ति बंदी बनाकर निर्वासित कर दिए गए। एक लाख लोगों की हत्या कर दी गई। 1.5 लाख लोग घायल हुए, सम्राट् अशोक ने इस भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा, इससे उन्हे बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने बौद्ध भिक्षुक उपगुप्त से उपाय पूछा। इससे द्रवित होकर सम्राट् अशोक शांति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार की ओर प्रवृत्त हुए। कलिंग युद्ध ने सम्राट् अशोक के हृदय में महान् परिवर्तन कर दिया। उनका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उन्होंने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बंद कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग आरंभ हुआ। उन्होंने महान् बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया। सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार सम्राट् अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्चात् मोगाली पुत्र तिस्स के प्रभाव से वे पूर्णतः बौद्ध हो गए थे। दिव्यावदान के अनुसार सम्राट् अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु को जाता है। सम्राट् अशोक ने अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरांत अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुंबिनी की यात्रा की तथा लुंबिनी ग्राम को करमुक्त घोषित कर दिया।
बौद्ध धर्म
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से ऊब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वे बुद्ध के उपदेशों के निकट आते गए और अंत में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उन्होंने ब्राह्मणों एवं अन्य संप्रदायों के संन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया और जनकल्याण के लिए चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उन्होंने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उनके पुत्र महेंद्र को मिली। महेंद्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उन्होंने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्य ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गए, जिनमें अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाए–
(1) धर्मयात्राओं का प्रारंभ
(2) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति
(3) धर्म महापात्रों की नियुक्ति
(4) दिव्य रूपों का प्रदर्शन
(5) धर्म-श्रवण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था
(6) लोकाचारिता के कार्य
(7) धर्मलिपियों का खुदवाना
(8) विदेशों में धर्म प्रचार हेतु प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रारंभ धर्मयात्राओं से किया। वे अभिषेक के 10वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गए। उन्होंने कलिंग युद्ध के बाद आमोदप्रमोद की यात्राओं पर पाबंदी लगा दी। अपने अभिषेक के 20वें वर्ष में लुंबिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल की तराई में स्थित निगलीवा में उन्होंने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तंभ लेख तीन और सात के अनुसार उन्होंने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया। अभिषेक के 13वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया, जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कार्य विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था। विद्वानों ने अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेंटाइन, ऐटोनियस, सेन्टपॉल, नेपोलियन तथा सीजर के साथ की है। अशोक अहिंसा, शांति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों को लागू करने की दृष्टि से विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट् हैं। एच.जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र 'इतिहास के स्तंभों को भरनेवाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, संत-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्राय: एकाकी तारा की तरह चमकता है।'
सम्राट् अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिन्हें अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में अपने 269 ईसा पूर्व से 231 ईसा पूर्व चलनेवाले शासनकाल में खुदवाए। ये शिलालेख आधुनिक बांग्लादेश, भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं। इन शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट् मिस्र और यूनान तक की राजनीतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इसमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर जोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज हैं। इन शिलालेखों में सम्राट् अपने आप को ‘प्रियदर्शी’ (प्राकृत में 'पियदस्सी') और देवानांप्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में ‘देवानंपिय’) की उपाधि से बुलाते हैं। अशोक ने लगभग 36 वर्षों तक शासन किया, जिसके बाद लगभग 232 ईसा पूर्व में उनकी मृत्यु हुई। उनके कई संतान तथा पत्नियाँ थीं जिनके बारे में अधिक पता नहीं है। उनके पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला।