बँटवारा
बुधन बँटवारा का नाम सुनते ही आग बबूला हो गए। वो इस तरह बौखला उठे जैसे कि समन्दर में भीषण ज्वार उठा हो और बुधन का काँपता हुआ शरीर सागर की लहरों की अनुभूति कराने लगा। आज उनको अपनी अवस्था पर अफसोस हुआ। चारापाई से उठने की कोशिश की मगर शरीर ने साथ नहीं दिया।
पत्नी के स्वर्गवाासी होने कंे दो वर्ष के पश्चात ही लकवा की चपेट में आ गए थे। घर की ढाल बन सहारा देनेे वाला आज खुद सहारा के लिए मोहताज था। वो भी पचास की उम्र में।
बुधन जी ने एक सरसरी निगाह से बड़ा बेटा दुक्खू, तत्पश्चात छोटा बेटा सुक्खू की तरफ देखा और कहा ’’ जब तक मैं जीवित हूं, बँटवारा का नाम भी इस घर में कोई नहीं लेगा, और अगर मेरी आत्मा की शांति चाहते हो तो मेरे मरने के बाद भी घर और खेत का बँटवारा मत करना। मैं भूला नहीं हूं बँटवारा का दर्द और चारपायी पर लेटा हूं तो कया हहुुआ, लेटे-लेटेे ही तुम लोगों को ेअच्छा और सही रास्ता दिखा सकता हूं। ’’
दुक्खू तो सिर झुका कर और दोेनों हाथों की अंगूूलियों को आपस में फंसा कर अपने पिता की बात को सुनता रहा मगर दुक्खू तो बेखौफ होकर अपने पिता की आँखों में आँखें मिला कर देख रहा था। बुुधन जी को अपने दोनों बेटों की नियत का भलि-भांति पता था मगर नियति से वो खुद अंजान थेे।
संध्या से ही गले में खराश की स्थिति उत्पन्न हुई, अदरख की चाय से भी न सुुधार हुआ,, उल्टेे खांसी ने विकराल रूप लेे लिया। बुधन जी को एहसास हो आया कि सीना अब फटा कि तब फटा।ं उनको शहर तो ले जाया गया मगर झोला छाप डाॅक्टर से दवा चलवाने के बाद।ं
सुक्खू और दुक्खू ने पिता के चेहरे पर आयी नकली हंसी से तो कुछ भी ऐसा -वैसा अनुभव नहीं किया मगर सोलह वर्ष की मुन्नी की आँखों से आँसू निर्झर की तरह बह रहेे थे।ं शायद मुन्नी को उदासी भरा एहसास था। बुधन जी ने एका-एक खाँसना शुरू किया और खाँसने के साथ खुन की उल्टी भी करते रहे।ं बुधन जी का खाँसना तो खत्म हुआ मगर अफसोस उनकी साँस भी खत्म होे गई।
सदमें से बेहाश हो चुकी मुन्नी केे होश में आने तक बुधन जी का शव लकड़ियों के अम्बार पर रखा जा चुका था।
पिता की अंतिम विदायी के अंत में पहंूची मुन्नी एक बार फिर गश खाकर गिर गई।
पिता केे अंतिम क्रियाकर्म तक तो दोनों भाइयों मे बेजोड़ का भाईचारा बना रहा, हिसाब बिल्कूल आधा-आधा बैठा, किसी के दिल में बईमानी का एहसास नहीं हुआ। दोनों भाई बारी-बारी से एकललोती बहन मुन्नी को सांत्वना दे रहे थे और पिता की कमी नहीं होने देने का एहसास करा रहे थे।
श्राद्ध कर्म के बाद आपसी भाईचारे ने दम तोड़ दिया ने बहन की शादी करने की बात को कहा और दूसरा भाई बँटवारा की जिद पे अड़ा रहा।
मुुन्नी कोे एहसास हुआ कि दोनों भाईयांे के साथ-साथ दोनों भाभियों में भी चख-चख मची हुई है।
दुक्खू ने अपने भाई सुक्खू को समझाते हुए कहा ’’ देख भाई, मुन्नी की शादी तक ठहर जा, फिर मैं अपने खर्चे पर अमीन बुला कर बँटवारा करा दुंगा। ’’
सुक्खू की पत्नी फुलवतिया ने घंूघट थोड़ा सरका कर पीछे से कहा ’’ हमलोग भी समझते हैं नियत को, वो भी अच्छी तरह से।। ’’
इस पर खीज कर दुक्खू की पत्नी गोेमती ने कहा ’’ हाँ, तुम तो ठीक जा रही हो। हमलोेगों की नहीं बल्कि अपनी नियत की पहचान करो तुम लोग। ’’
दुक्खू ने अपनी पत्नी गोमती को धक्का देते हुए कहा ’’ हम भाईयों ंके बीच में बोलने वाली तुम कौन होे ? ’’
गोमती तो गिरने-गिरने को हुई लेकिन मुन्नी ने सम्भल लिया। फूलवतिया के चेहरे पर कुुटिल मुस्कान तैर गई।
सुक्खूू ने कहा ’’ दो महीना से ज्यादा इंतजजार कना मुशिकल है मेरे लिए और अपनी पत्नी को लेकर किवाड़ बंद कर लिया।ं
दुुक्खूू भाई और पिता का रिश्ता तो बहूत अच्छी तरह से निभा रहा था मगर मुन्नी के लिए अच्छा रिश्ता नहीं मिल पा रहा था।
दुक्खू जब भी थक कर निराश-हताश होता तो मन-मस्तिष्क पर पिता जी का चेहरा छा जाता औेर वो फिर उर्जावान हो जाता।
बँटवाराा की लालच में सुक्खूू ने अपने भाई के साथ-साथ अपनी बहन से भी मन-मुटाव सा कर लिया था। बहन के लिए रिश्ता ढूूंढने कहीं ंभी नहीं गया, शायद उसकी पत्नी ने हिदायत दे रखाी थी।
बहन के लिए भाई के कर्Ÿाव्य में भगवान ने साथ दिया औेर योग्य लड़का से विवाह तय हुआ।
बारात के दिन दुल्हन सी सजी मुुन्नद के चेहरे पर उदासी मिश्रीत खुशी की रेखाएं उमड़ पड़ी।
दुक्खू ने कहा ’’ मुन्नी, मैं एक बार तो बोल चूका हूं, जा तूू भी सुक्खू को एक बार बूूलाने जा। ’’
दुुल्हन के रूप में सजी बहन को देख कर सुक्खूू को खुशी तो हुई मगर फूलवतिया का फूल सा चेहरा, मगर कसी हुई आँखें देख कर सुक्खूू की खुशी ने दम तोड़ दिया।
सुक्खू ने धीरे से कहा ’’ तु जा मुन्नी, मैैं दोे मिनट में आया।’’ और किबाड़ बंद कर लिया।ं
विवाह की रस्मों के बीच-बीच में सरसरी निगाह से मुन्नी , सुुक्खूू भइया को ढंूढने का प्रयास करती रही।
विदायी के समय सुक्खूू के मन-मस्तिष्क में बहन के लिए ऐसा प्रेम उमड़ा कि आँखों से आँसू बहने लगे।
सुक्खू के ऐसी मनोदशा का सामना करने की हिम्मत, फूलवतिया में बिल्कूल भी न थी।
मुन्नी की विदायी के समय हीी सही सुक्खूू और दुक्खू का भाईचारा एक बार उफान मारा औेर दोनों गले लग कर, फुट-फुट कर रो पड़े।
सुक्खू ने अपने मन-मस्तिष्क से बँटवारा का ख्याल ही निकाल दिया।
समाप्त