सभी के मध्य यूँ ही वार्तालाप चल ही रहा था कि रानी कुमुदिनी अचलराज से बोली....
"पुत्र अचलराज! मेरी एक इच्छा पूर्ण करोगे",
"जी! कहें रानी माँ!",अचलराज बोला....
"मैं महाराज के दर्शन करना चाहती हूँ,इतने वर्ष बीत गए उन्हें देखे हुए",रानी कुमुदिनी बोलीं...
"किन्तु! उनके दर्शन हेतु आपको तो राजमहल के कारागृह में जाना होगा,जहाँ उन्हें बंधक बनाकर रखा गया है",अचलराज बोला...
"आपका वहाँ जाना सम्भव नहीं है माता!",भैरवी बोली...
"यदि कालवाची चाहे तो मैं उनसे मिलने वहाँ जा सकती हूँ",रानी कुमुदिनी बोली....
"किन्तु! वहाँ आप पर कोई संकट आन पड़ा तो"कालवाची बोली....
"ऐसा कुछ भी नहीं होगा,मैं सावधान रहूँगीं",रानी कुमुदिनी बोली....
तब वत्सला बोली....
"अचलराज! हम रानी माँ की महाराज कुशाग्रसेन से भेंट करवा सकते हैं",
"वो भला कैंसे"?,अचलराज ने पूछा.....
"मैं यहाँ रुक जाती हूँ और रानी माँ मेरा रुप धरकर राजमहल में चलीं जाएँ" वत्सला बोली....
"हाँ! ये तो सम्भव है"अचलराज बोला....
"तो कालवाची तुम्हारा क्या विचार हैं इस विषय में",वत्सला बोली....
तब कालवाची बोली...
"विचार तो उत्तम है किन्तु इसके पश्चात इन्हें कल भी सम्पूर्ण दिन वत्सला बनकर ही बिताना होगा,क्या रानी कुमुदिनी ऐसा कर सकेगीं,क्योंकि इन्हें राजमहल में रहने वाले लोगों के व्यवहार के विषय में इतना नहीं ज्ञात जितना कि वत्सला को ज्ञात है"
"हाँ! ये तो तुम ठीक कह रही हो परन्तु इसका कोई तो समाधान होगा",वत्सला बोली...
"हम एक कार्य और कर सकते हैं",भैरवी बोली...
"वो भला क्या?"वत्सला ने पूछा...
"क्यों ना हम माता को किसी मैना के रुप में बदलकर एक पिंजरे में रख दें और वैशाली बना अचलराज सबसे जाकर ये कहें कि इस मैना को उसने पाल लिया है और जब माता पिताश्री से भेंट करके यहाँ आ जाएँ तो सबसे कह दें कि मैना तो उड़ गई",भैरवी बोली...
"हाँ! ऐसा हो सकता है,ये तो बहुत अच्छा विचार है",कालवाची बोली.....
"हाँ! मैं भी तत्पर हूँ,मैं ऐसा कर सकती हूँ एवं मुझ पर कोई संकट भी नहीं आएगा,रानी कुमुदिनी बोलीं...
"किन्तु! आज आप वहाँ ना जाएँ तो ही अच्छा!",भैरवी बोली...
"वो क्यों भला? इसमें तो मुझे कोई संकट की बात नहीं दिखती भैरवी!",वत्सला बोली......
तब भैरवी बोली...
"संकट वाली कोई बात नहीं है वत्सला! मैं केवल ये चाहती हूँ कि वैशाली बना अचलराज पहले से ही एक मैना को पिंजरे में लेकर राजमहल चला जाएं,इसके पश्चात वो किसी रात्रि मैना को स्वतन्त्र करके इसके बदले में यहाँ से वो माता को ले जाएंँ,जिससे किसी को कोई संदेह ना हो",
"हाँ! ये विचार ही उत्तम रहेगा",वत्सला बोली...
"तो आज रात्रि हम तीनों यहाँ से जाते हैं ,किसी और दिन रानी माँ को राजमहल ले जाऐगें",अचलराज बोला...
"मुझे कोई आपत्ति नहीं,मैं किसी और दिवस महाराज से मिलने राजमहल चली जाऊँगी",रानी कुमुदिनी बोलीं....
उन सभी के मध्य चल रहे वार्तालाप को धंसिका समझने का प्रयास कर रही थी,तब उसने सांकेतिक भाषा में रानी कुमुदिनी से पूछा कि आप सभी क्या कह रहे हैं,तब त्रिलोचना ने अपनी माँ को सारी बात समझाई,ये सुनकर धंसिका अचलराज से सांकेतिक भाषा में बोली....
"मुझे ले चलो राजमहल! मैं अपने पुत्र को देखना चाहती हूँ कि वो कैसा दिखता है,आप सभी चिन्ता ना करें,मैं किसी के समक्ष आप सभी का कोई भी भेद नहीं खोलूँगी,मैं केवल अपने पुत्र को देखकर राजमहल से वापस आ जाऊँगी,अपनी इस माता की विनती सुन लो पुत्र! दया करो मुझ पर",
धंसिका की विनती सुनकर अचलराज का हृदय पिघल गया,उसका मन धंसिका के प्रति करुणा से भर गया,उसे धंसिका में अपनी माता देवसेना दिखाई दी इसलिए वो धंसिका की विनती की अवहेलना ना कर सका और उनसे सांकेतिक भाषा में बोला....
"माता धंसिका! मैं आपको अवश्य राजमहल ले चलूँगा,किन्तु आज नहीं",
"आज क्यों नहीं,मैं इन्हें अपने संग ले जाना चाहती हूँ",कालवाची बोली....
"तुम इन्हें कहाँ रखोगी कालवाची!"?,अचलराज ने पूछा...
"अपने कक्ष में मैना बनाकर",कालवाची बोली...
"हाँ! कालवाची का कथन उचित है,पहले माता धंसिका राजमहल मैना बनकर चलीं जाएँ,इसके पश्चात ये अपने पुत्र को देखकर वापस आ जाऐगीं और इनके बदले में मेरी माता राजमहल चलीं जाऐगीं",भैरवी बोली...
"हाँ! यही उचित रहेगा,मुझे भैरवी की ये योजना पसंद आई",त्रिलोचना बोली...
"तो अब और अधिक बिलम्ब करना उचित नहीं,इन्हें शीघ्र ही मैना बनाकर राजमहल ले चलते हैं,वहाँ पहुँचकर मैं इन्हें पिंजरे में बंद कर दूँगीं",कालवाची बोली...
और इस योजना हेतु सभी ने अपनी सहमति जताई तो कालवाची ने शीघ्रता से धंसिका को मैना का रुप दे दिया और उनसे सांकेतिक भाषा में कहा कि अब आप हमारे संग चलने हेतु तत्पर हैं,चलिए राजमहल चलते हैं,इसके पश्चात अचलराज,कालवाची,वत्सला और धंसिका सभी राजमहल की ओर उड़ चले, राजमहल पहुँचकर सभी वैशाली के कक्ष में पहुँचे और कालवाची ने सबको मानव रुप में परिवर्तित कर दिया किन्तु उसने धंसिका को मैना ही बने रहने दिया और उससे सांकेतिक भाषा में बोली....
"देवी धंसिका! आप अभी इसी अवस्था में रहें,मैं आपको अपने कक्ष में लेकर चलती हूँ,यदि कल राजकुमार सारन्ध ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया तो मैं आपको उनके पास ले चलूँगी",
कालवाची की बात सुनकर धंसिका प्रसन्न हो उठी और उसे अपने कक्ष में लेकर चली गई,दूसरे दिन राजकुमार सारन्ध ने कर्बला बनी कालवाची को अपने कक्ष में नहीं बुलाया,उसे तो कोई और प्रेयसी मिल गई थी,इस बात से कर्बला बनी कालवाची एवं धंसिका दोनों ही उदास हो उठीं,परन्तु कालवाची ने धंसिका को सान्त्वना देते हुए कहा...
"आप चिन्तित ना हों देवी धंसिका! मैं आपको वचन देती हूँ कि आपकी भेंट शीघ्र ही आपके पुत्र से होगी और ये कार्य में पूर्ण करके ही रहूँगी"
ये सुनकर धंसिका प्रसन्न हो उठी और दूसरे दिवस जब राजकुमार सारन्ध अपनी वाटिका में विचरण कर रहे थे तब कर्बला बनी कालवाची भी मैना बनी धंसिका का पिंजरा लेकर वाटिका में पहुँची और अभिनय करते हुए सारन्ध से बोली....
"राजकुमार! आप! मुझे पहचाना या नहीं",
"तुम कर्बला हो ना! राजनर्तकी की सहायिका",सारन्ध बोला...
"जी! राजकुमार! आपने तो मुझे पहचान लिया,मैं तो समझती थी कि आप मुझ जैसी तुच्छ सी नर्तकी को भूल गए होगें",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"मैं सुन्दरियों को सरलता ने नहीं भूलता सुन्दरी कर्बला!",सारन्ध बोला...
"जी! ये तो आपका बड़प्पन है,जो आप मुझे नहीं भूले",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"किन्तु! तुम यहाँ क्या करने आई हो,पहले तो मैंने तुम्हें यहाँ कभी नहीं देखा",सारन्ध ने पूछा....
"जी! मैं अपनी मैना को वाटिका में घुमाने लाई थी,वो बेचारी भी तो कक्ष में रह रहकर ऊब जाती होगी",कर्बला बनी कालवाची बोली....
"दिखाओ! तनिक मैं भी देखूँ तुम्हारी मैना को",
और ऐसा कहकर सारन्ध ने कर्बला बनी कालवाची का पिंजरा अपने हाथ में ले लिया....
क्रमशः....
सरोज वर्मा...