Andhayug aur Naari - 28 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी--भाग(२८)

Featured Books
Categories
Share

अन्धायुग और नारी--भाग(२८)

प्रोफेसर मार्गरिटा थाँमस शिक्षिका के अलावा समाजसेवी भी थीँ,वें "वुमेन्स फ्रीडम"नाम से एक संस्था चलातीं थीं,जहाँ महिलाओं का मुफ्त इलाज होता था,ख़ासकर उन महिलाओं का जिनका कोई नहीं होता था जैसे कि वेश्याएंँ और तवायफ़े,वें महिलाएंँ जो उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच जातीं थीं जब उनके पास ना तो हुस्न बचता था और ना ही जवानी,उनमें से अधिकतर तो गुप्तरोग की शिकार हो जातीं थीं और ऐसी महिलाओं को मार्गरिटा थाँमस की संस्था में पनाह मिल जाती थी,ऐसी महिलाओं के इलाज के लिए मार्गरिटा थाँमस ने खासतौर पर एक अंग्रेज डाक्टर को बहुत ही मोटी पगार पर अपनी संस्था में रख रखा था,वो डाक्टर विलायत से डाक्टरी पढ़कर आया था......
वें उन महिलाओं की बेटियों को पढ़ाया भी करतीं थीं,ऐसी ही कुछ ही महिलाओं की बेटियाँ अपनी माँओं के साथ रहती थीं,उन में से कुछ तो नाजायज़ थी और कुछ के बाप तो थे लेकिन वें उन बदनाम मांँओ की बेटियों को अपनाना नहीं चाहते थे,क्योंकि वें लड़कियांँ उनकी अय्याशी का नतीजा थीं,कुछ ने तो कोठों की परम्परा को निभाते हुए अपनी अपनी बेटियों को उसी धन्धे में उतार दिया था और उन सभी को इस बात का कोई अफसोस भी नहीं था,लेकिन मिसेज थाँमस उन महिलाओं को समझातीं थीं और उनसे कहा करतीं थीं कि वें अपनी बच्चियों को यहाँ बुला लें,जब उनकी उम्र ढ़ल जाएगी तो उन बच्चियों की दशा भी तुम लोगों की तरह ही हो जाएगी,लेकिन वें सभी मिसेज थाँमस की बात मानने को राजी ही नहीं थ़ी,इसलिए मिसेज थाँमस ने भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था.....
और एक बार मिसेज थाँमस बहुत बिमार पड़ीं,तब उन्होंने मेरे कमरें में खबर भिजवाई कि मैं फौरन ही उनसे मिलने उनके घर पहुँचूँ,चूँकि वें मेरी शिक्षिका थीं और मैं उनका कहा नहीं टाल सकता था,इसलिए मैं उनके आदेशानुसार फौरन ही उनसे मिलने उनके घर पहुँचा,तब वें मुझसे बोलीं....
"त्रिलोकनाथ! क्या तुम मेरी संस्था में चले जाओगे"?,
"जी! हाँ! लेकिन मुझे वहाँ करना क्या होगा"?,मैंने पूछा....
तब वें बोलीं....
"मैं इतने दिनों से बीमार हूँ और उन बच्चियों को पढ़ा नहीं पा रही हूँ,हिन्दी और गणित के अध्यापक तो उन्हें पढ़ा देते हैं लेकिन मेरा विषय छूटता जा रहा है ,क्या तुम उन सभी को मेरे बदले में पढ़ाने चले जाओगे"?
"जी! वो तो मैं वहाँ चला जाऊँगा,लेकिन मुझे लगता है मैं उन सभी को आपकी तरह नहीं पढ़ा सकूँगा और ख्वामख्वाह में मेरा वहाँ मज़ाक बन जाएगा", मैंने उनसे कहा...
"ऐसा कुछ नहीं होगा,मैं भी तुम्हारे संग वहाँ कार में चलूँगी,मैं कक्षा में एक किनारे कुर्सी पर बैठी रहूँगीं और तुम पढ़ाते रहना,ऐसा तो कर सकते हो ना!", वें बोलीं....
"जी! तब तो मुझे कोई एतराज़ नहीं हैं",मैंने कहा....
और फिर मैं मिसेज थाँमस के संग उनकी कार में संस्था पहुँचा,उस समय गणित के अध्यापक उन सभी को उनका सबक पढ़ा रहे थे,इसलिए मिसेज थाँमस मुझसे बोलीं....
"त्रिलोकनाथ! अभी तो मिस्टर त्रिपाठी अपनी क्लास ले रहे हैं,तुम तब तक संस्था का बगीचा घूम लो"
तब मैंने उनसे कहा...
"जी! बहुत अच्छा"
और फिर मैं ऐसा कहकर बगीचे में चला गया,वहाँ का बगीचा वाकई बहुत ही खूबसूरत था,मैं अभी बगीचे का कुछ ही भाग घूम पाया था ,तभी मैं एक पेड़ के नींचे से गुजरा और मेरे सिर पर कुछ आ गिरा, मैंने जमीन पर नजरें झुकाकर देखा तो वो एक जूती थी जो अब मेरे सिर से लगकर धरती पर औंधी पड़ी थी,मैंने उस जूती को हाथ में उठाया और पेड़ की ओर देखा,जहाँ एक लड़की पेड़ की डालियों में छुपी बैठी थी और मैंने उससे पूछा....
"ये जूती आपकी है"?
तब वो बोली....
"हाँ! मेरी ही है"
"तो इसे सम्भाल कर क्यों नहीं रखतीं मोहतरमा! मेरे सिर पर जोर की लग गई",मैं बोला....
"ये इतनी भारी भी नहीं है जो आपके सिर को इससे चोट लग गई",वो बोली....
"हल्की हो या भारी,मुझे इससे क्या? लेकिन ये मेरे सिर पर लगी ही क्यों?",मैं बोला....
"आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि इसने आपकी खोपड़ी तोड़ दी हो",वो बोली....
"देखिए मोहतरमा! मेरा आपसे बहस करने का कोई इरादा नहीं है,जब जूतियाँ सम्भाली नहीं जातीं तो आप पैरों में डालतीं ही क्यों हैं,ख्वामख्वाह दूसरों के सिरों पर जाकर टहल रहीं हैं आपकी जूतियाँ",मैंने कहा....
"देखिए!आप बात को बढ़ा रहे हैं",वो बोली....
"मैं बात को नहीं बढ़ा रहा मोहतरमा! आप बस मुझसे माँफी माँग लीजिए तो सारी बात ही खतम हो जाएगी",मैंने कहा....
"जब मेरी कोई गलती ही नहीं है तो मैं आपसे माँफी क्यों माँगू",वो बोलीं....
"अरे! चोरी की चोरी,ऊपर से सीनाजोरी,गलती की गलती करती हैं आप और माँफी माँगने के लिए भी तैयार नहीं हैं",मैंने कहा....
"फिर वही बात,मैंने जानबूझकर तो अपनी जूती आपके सिर पर नहीं गिराई",वो बोली...
"तो फिर ये गिरी कैसें"?,मैंने पूछा
"मैं यहाँ छुप रही थी,अपना पैर सम्भाल नहीं पाई और जूती पैर से निकलकर आपके सिर पर जा गिरी",वो बोली....
"लेकिन आप यहाँ छुप क्यों रहीं थीं",मैंने पूछा...
"मुझे गणित नहीं पढ़नी थी इसलिए छुप रही थी",वो बोली....
"ओह...तो ये बात है,लेकिन आपको गणित क्यों नहीं पढ़नी थी",मैंने पूछा....
"अरे....वो शुक्ल जी पढ़ाते कम चीखते ज्यादा हैं,कुछ समझाते ही नहीं है और कुछ पूछो तो चिल्लाना शुरू कर देते हैं,आज उन्होंने चालीस तक पहाड़े याद करके लाने को कहे थे और मैंने याद नहीं किए,कक्षा में जाती तो हथेलियों में दस छड़ी से कम ना पड़ती,इसलिए नहीं गई",वो बोली.....
"अच्छा! तो ये बात है,लेकिन आप पहले नींचे उतरकर आइए,तब मैं आपकी सारी बात सुनूँगा",मैंने उससे कहा...
"मैं नींचे नहीं आऊँगीं", वो बोली....
"तो फिर मैं आपकी बात सबसे जाकर कह दूँगा",मैंने कहा....
"नहीं ऐसा मत कीजिएगा,नहीं तो मेरी माँ भी मुझसे बहुत नाराज़ होगी,उन्हें मुझसे बहुत आशाएँ हैं,वो नहीं चाहतीं कि मैं उनके जैसी अनपढ़ ना रह जाऊँ",वो बोली....
"तो फिर आइए नींचे और अपनी जूती भी ले लीजिए",मैंने कहा...
"ठीक है आती हूँ लेकिन आप किसी से कुछ मत कहिएगा",वो बोली....
"मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा,पहले आप नींचे तो आइए",मैंने कहा....
"आ सच कह रहे हैं ना! किसी से कुछ नहीं कहेगें ना!",उसने दोबारा पूछा....
"क्या आपको मुझ पर जरा भी भरोसा नहीं है जो आप ऐसी बातें कर रहीं हैं"?,मैंने उससे कहा....
"मेरी माँ कहती है कि जमाना बहुत खराब है,किसी पर जल्दी भरोसा मत किया करो",वो बोली....
"बात तो बिलकुल सही कहतीं हैं आपकी माँ,लेकिन आप मुझ पर भरोसा कर सकतीं हैं",मैंने उससे कहा....
"वो भला क्यों ? क्या आप पर सुर्खाब के पंख लगें हैं जो आप पर भरोसा कर लूँ",? वो बोलीं....
"क्या मैं आपको सुर्खाब पंक्षी दिखाई देता हूँ"?,मैंने गुस्से से कहा.....
"आप नाराज़ क्यों होते हैं"?,वो दुखी होकर बोली....
"पहले आप नींचे आइए,मेरे पास आपके लिए फालतू वक्त नहीं है",मैं फिर गुस्से से बोला....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....