हनुमान भारतीय चेतना के एक अद्भुत पात्र हैं या यूँ कह लीजिए कि एक विलक्षण नायक हैं। विशाल ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में कई चरित्र हैं। श्रीराम के साथ-साथ उनके पिता दशरथ जी हैं, तो उनके गुरु विश्वामित्र जी और वशिष्ठ मुनि जैसे पुरोहित भी हैं। प्राणों से भी प्रिय भाई लक्ष्मण हैं, तो बिल्कुल न्यारे भाई भरत भी हैं। विभीषण और सुग्रीव जैसे राजा हैं, तो जाम्बवंत और केवट जैसे श्रीराम के प्रति पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व भी हैं। ‘रामचरितमानस’ में कितने ही चरित्र हैं— एक से एक चरित्रवान, एक से एक शक्तिवान, एक से एक बुद्धिमान और एक से एक त्यागी भी।
लेकिन अनोखी बात यह है कि इन सारे चरित्रों में से पूजा के अधिकांश मंदिर तो केवल दो के ही बने हैं— श्रीराम के और हनुमान जी के। चूँकि सीता जी श्रीराम की पत्नी थीं, इसलिए उनके साथ मंदिर में सीता जी भी हैं। अन्यथा दुर्गा और काली माँ जैसे स्वतंत्र मंदिर सीता जी के नहीं हैं। लक्ष्मण जी को भी कहीं-कहीं मंदिरों में स्थान मिला, क्योंकि वे श्रीराम के साथ वन गए थे। हालाँकि लक्ष्मण जी को शेष नाग का अवतार माना गया है, फिर भी भारतीयों ने उनके लिए अलग से मंदिर नहीं बनाए (शायद एकाध अपवाद को छोड़कर)।
यदि अलग से मंदिर बना, तो केवल हनुमान जी का। मंदिर बन गया तो ठीक, नहीं बना तो मड़ई में ही हनुमान जी को बिठा दिया; चौराहे पर छोटे-से मंदिर में हनुमान जी को बिठा दिया। यदि यह भी नहीं सधा तो कोई बात नहीं, पेड़ की छाया ही इनके लिए काफ़ी है। कुछ भी नहीं चाहिए इनके लिए— न तो संगमरमर की मूर्ति और न ही उस मूर्ति को सजाने के लिए गहने और कपड़े आदि। किसी भी पत्थर पर श्रद्धापूर्वक सिंदूर और तेल चढ़ाया और वह हनुमान जी की तरह पूजने योग्य बन गया। हिंदुस्तानी चेतना के लिए सिंदूरी रंग हनुमान जी का पर्याय बन चुका है। आप किसी भी सड़क से यात्रा कीजिए, प्रत्येक किलोमीटर पर आपको एक हनुमान जी बिराजे हुए ज़रूर मिल जाएँगे— कहीं मंदिर में तो कहीं खुले आकाश के नीचे पेड़ की छाया में।
राम जी राजा थे। ज़ाहिर है कि उनके लिए यदि बहुत नहीं, तो भी कम से कम कुछ व्यवस्थाएँ तो करनी ही पड़ेंगी। हिंदुस्तान का ग़रीब व्यक्ति ख़ुद चाहे कुछ भी खा ले या भूखा ही सो जाए, लेकिन यदि कोई मेहमान आ गया है, तो उसके लिए कुछ न कुछ विशेष तो करता ही है। फिर राम जी तो राजा थे। तो अब ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस तरह हनुमान जी को जहाँ चाहा बैठा दिया, उसी तरह राजा राम जी को भी बैठा दिया जाए?
चूँकि हनुमान जी श्रीराम के दास थे, उनके दूत थे, तो उनके साथ इस बात की छूट मिल गई और इस छूट का फ़ायदा यह हुआ कि हनुमान जी जन-जन के देवता बन गए। देवता तो राम जी भी जन-जन के हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि राम जी हिंदुस्तान के मानस के देवता हैं। वे भारतीयों के व्यवहार में घुल-मिल गए हैं। लेकिन हनुमान जी के साथ ऐसा नहीं हो सका। काश कि ऐसा हुआ होता! हनुमान जी छा तो गए हिंदुस्तान के ज़र्रे-ज़र्रे पर, लेकिन वे हिंदुस्तानी चेतना को आच्छादित नहीं कर सके। उन्हें मुख्य रूप से भय का निवारण करने वाला मान लिया गया। मुझे याद है कि बचपन के दिनों में गाँव में जब अंधेरा घिरने के बाद घर पहुँचना होता था, तो थोड़ा-सा खटका हुआ नहीं कि हममें से कई ‘हनुमान-चालीसा’ का पाठ करना शुरू कर देते थे। मज़ेदार बात यह होती थी कि घर सुरक्षित पहुँच भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षित तो पहुँचना था ही। वे लोग भी सुरक्षित घर पहुँच जाते थे जिन्हें ‘हनुमान-चालीसा’ आती ही नहीं थी, लेकिन पाठ करने से इस विश्वास को तो बल मिल ही जाता था कि हनुमान जी ने घर ठीक-ठाक पहुँचा दिया।
हनुमान जी का दूसरा रूप कार्यसाधक का है, यानी कि वे कार्यों को पूरा करते हैं, मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। ‘हनुमान-चालीसा’ और ‘हनुमान जी की आरती’ में उनके इसी रूप का वर्णन है।
मुझे लगता है कि हमें यहाँ यह सोचना चाहिए कि क्या कारण है कि ‘रामचरितमानस’ में इतने सारे लोगों के होते हुए भी केवल हनुमान जी के ही मंदिर बने, उन्हें ही स्वतंत्र रूप से इतने बड़े भगवान का दर्ज़ा दिया गया? हमारे पूर्वजों में से जिसने भी इसका विधान किया होगा, वे निश्चित रूप से बहुत बड़े कर्मयोगी, बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक और बहुत महान दूरदृष्टा रहे होंगे। दास अपने आप में भगवान बन जाए, यह कम अद्भुत बात नहीं है। आख़िर आप कितने ऐसे दासों के नाम बता सकते हैं जो ख़ुद में देव बन गए हों और वह भी सामान्य देव नहीं बल्कि जनमानस के सबसे विलक्षण देव। ऐसा करके भारतीय मानस ने हनुमान जी पर न तो कोई उपकार किया है और न ही हम उनका कोई ऋण चुका रहे हैं। बल्कि सच बात यह है कि ऐसा करके हमने उनके व्यक्तित्व, उनकी कार्य-पद्धति और उनकी उपलब्धियों को एक सर्वकालिक मान्यता प्रदान की है। हमने इस बात पर मुहर लगाई है कि जो भी उनके जैसा होगा, जो भी उनके जैसा करेगा, वह भगवत्व को प्राप्त होगा। और भगवत्व को प्राप्त हो जाने से बड़ी सफलता इस जीवन में भला और क्या हो सकती है?
क्यों चाहिए हमें सफलता? मित्रो, हम सभी अपनी ज़िंदगी में जो कुछ भी करना और पाना चाहते हैं, उसके पीछे एक बहुत गहरा मनोविज्ञान काम करता रहता है। ऊपरी तौर पर तो हम सबको यही लगता है कि हम ज्ञान पाना चाह रहे हैं, धन कमाना चाह रहे हैं, प्रसिद्ध होना चाह रहे हैं, लेकिन आप अपने आप से फिर पूछकर देखें कि आप ऐसा क्यों होना चाह रहे हैं? आख़िर एक आदमी को अपनी ज़िंदगी के लिए कितना धन चाहिए? आख़िर जिस ज्ञान को पाने के लिए वह पागल हो रहा है, उसे न तो वह खा सकता है और न ओढ़ और बिछा ही सकता है। यदि आपको गाने, बजाने, नृत्य करने, लिखने, चित्र बनाने तथा और भी न जाने कई काम करने से प्रसिद्धि मिल भी जाती है, तो आख़िर उससे क्या होगा? चार लोग सलाम करेंगे, चालीस लोग ऑटोग्राफ़ लेंगे और चार सौ लोग मिलने के लिए व्याकुल रहेंगे! आख़िर इन सबसे आपका कौन-सा हित सधेगा? क्या बस यही आपका वास्तविक लक्ष्य है?
इन प्रश्नों से आप परेशान बिल्कुल न हों। यह मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि यह सब ग़लत है। यह सब होता ही है और होना ही चाहिए। मैं यहाँ थोड़े गहरे में उतरना चाहता हूँ। जब आप ख़ुद से ही इस तरह के प्रश्न करेंगे, तो कुछ समय के बाद आपके दिमाग़ में उत्तर की जो शक्ल बनने लगेगी, वह कुछ अलग ही होगी। आपको लगने लगेगा कि यह सब मैं इसलिए करना चाहता हूँ ताकि मैं अपने होने की सार्थकता को सिद्ध कर सकूँ, ईश्वर को बता सकूँ कि “मैं हूँ और आप इसे जानें।”
यदि यह बात आपको सही लगती है, तो अब आप इस बात पर विचार कीजिए कि यदि आपके पास शरीर है, आप स्वस्थ हैं और अच्छी तरह खा-पी रहे हैं, तो जो भी आपको देख रहा है, जो भी आपके संपर्क में आता है, वह तो इस बात को जानता ही है कि आप हैं। आप हैं, तभी तो वह आपके पास आता है। यदि आप नहीं होते, तो वह आता ही क्यों? और ज़ाहिर है कि जब आप नहीं रहेंगे, तब वह आएगा भी नहीं। तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप केवल इस शरीर के होने को अपना होना नहीं मानते? यह भी सच है। किंतु यह एक अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि आप अपने होने को इस शरीर के ऊपर ले जाकर सिद्ध करना चाहते हैं।
बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप। मैं आपसे बस थोड़े-से धैर्य की माँग कर रहा हूँ। न तो आप मुझ पर नाराज़ हों और न ही ख़ुद की समझ पर। चूँकि मैं यहाँ आपको आपके मूल भाव तक ले जाना चाहता हूँ, इसलिए ज़रूरी है कि यहाँ हमारी रफ़्तार थोड़ी धीमी हो और हम इसे पूरी एकाग्रता के साथ समझने की कोशिश करें। अब मैं आपको इसी “मैं हूँ” से जुड़े मनोविज्ञान के बारे में बताना चाहूँगा, क्योंकि इसी मनोविज्ञान में आपके इस प्रश्न का उत्तर छिपा हुआ है कि ‘आख़िर आप सफल क्यों होना चाहते हैं?’
श्रेष्ठता का घमंड या हीनता की ग्रंथि? हो सकता है कि मैं ग़लत हूँ, लेकिन मैं इस बात पर पूरी दृढ़ता के साथ विश्वास करता हूँ कि हम सभी का जीवन मूलतः अहं और कुंठाओं का जीवन है। किसी के मन में इस बात का अहं है कि वह श्रेष्ठ है, तो किसी के मन में इस बात की कुंठा कि वह हीन है। चाहे श्रेष्ठ होने का घमंड हो या हीन होने की कुंठा, ग़लत तो दोनों ही हैं। मन तो होता है रूमाल की तरह। जैसे ही मन में गाँठ लगती है, मन का फूलना, मन का उड़ना, मन का पसरना; सब कुछ बँध जाता है। कभी-कभी तो थम तक जाता है। यदि हम अपनी इस कुंठा, इस अह्ं से बरी हो जाएँ, तो बैकुंठ में रहने लगेंगे। कुंठारहित मन ख़ुद ही ख़ुद के लिए बैकुंठ यानी स्वर्ग की रचना कर लेता है।
अपने को श्रेष्ठ समझने की भावना व्यक्ति को घमंडी बनाती है, अभिमानी बनाती है। यह व्यक्ति के विकास को रोक देती है। यदि कोई रावण की तरह स्वयं को दुनिया का श्रेष्ठ ज्ञानी समझने लगे (उसके दस सिर का होना उसके श्रेष्ठ मस्तिष्क के ही प्रतीक के रूप में है), तो ज़ाहिर है कि उसे और ज़्यादा जानने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। जहाँ विकास रुकता है, वहीं से विनाश की शुरुआत हो जाती है— यह प्रकृति का नियम है। जैसे ही फल पक जाता है, वह बढ़ना छोड़कर गलना शुरू कर देता है। इसलिए श्रेष्ठता की भावना से ग्रसित व्यक्ति आगे कुछ नहीं कर पाते और जो कुछ भी उनके हाथ में होता है, वह भी धीरे-धीरे खोने लगता है।
जबकि अपनी कमज़ोरियों से वाकिफ़ व्यक्ति यदि ज़रा भी संवेदनशील है, थोड़ा भी जागरूक और समझदार है, तो वह इससे मुक्ति पाने के लिए अंदर ही अंदर बुरी तरह से छटपटाता रहता है। उसकी यही छटपटाहट, उसकी यही बेचैनी उसको कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती है— कुछ भी ऐसा करने के लिए, जो उसे उसकी इस कमज़ोरी से छुटकारा दिला सके। बात बहुत साफ़ है कि जब वह कर्म करने को आगे आता है तो कर्म करते-करते कहीं का कहीं पहुँच जाता है। ऐसे ही लोग ज़िंदगी में कुछ पाकर जाते हैं।
श्रेष्ठ या हीन होना या न होना अलग बात है और अपने को श्रेष्ठ या हीन समझना या न समझना बिल्कुल अलग बात। हो सकता है कि एक व्यक्ति अपनी वास्तविक ज़िंदगी में वाक़ई श्रेष्ठ हो, लेकिन वह अपने को हीन समझ रहा हो। इसी प्रकार हो सकता है कि एक व्यक्ति वाक़ई हीन हो, लेकिन वह अपने को हीन न समझकर श्रेष्ठ समझ रहा हो। इसलिए इस समझने का उसके होने न होने से कोई रिश्ता नहीं है। होना अलग बात है और समझना बिल्कुल अलग बात। कमज़ोरियों को जानकर उन्हें दूर करके श्रेष्ठता पाने का प्रयास किया जा सकता है।
हनुमान जी इनमें से क्या हैं? इससे पहले कि आप इस पुस्तक को आगे पढ़ना शुरू करें, आप ख़ुद सोचकर देखें कि हनुमान जी इन दोनों में से किस भावना से ग्रसित हैं— श्रेष्ठता के घमंड से या हीनता की ग्रंथि से? आप पाएँगे कि हनुमान जी मूलतः वास्तविकता को बख़ूबी जानने वाले नायक हैं और वे ऐसे हैं, तभी वे देवत्व तक का सफ़र पूरा कर सके। मैं समझता हूँ कि आपको वह प्रसंग याद होगा जब हनुमान जी सीता जी का पता लगाने लंका पहुँचते हैं। वहाँ उनकी मुलाक़ात विभीषण जी से होती है। विभीषण जी अपनी दीन दशा का वर्णन हनुमान जी के सामने करते हैं। हनुमान जी उन्हें दिलासा देते हुए कहते हैं कि यदि प्रभु श्रीराम ने मुझ जैसे निकृष्ट जीव को अपनाया है, तो आप तो मुझसे बहुत श्रेष्ठ हैं। आपको तो वे अपना ही लेंगे। हनुमान जी का कथन है:
प्रात लेई जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ।। “हे विभीषण, मैं तो एक ऐसा जीव हूँ (अज्ञानी वानर) कि यदि कोई सुबह-सुबह मेरा नाम भी ले ले, तो उसे दिन भर भोजन तक नसीब नहीं होता।”
यदि आप हनुमान जी की इस स्वीकारोक्ति को भावना के स्तर पर सोचेंगे, तो अंदर से दहल जाएँगे। इसे आप चाहे मनोवैज्ञानिक भाषा में सोचें या उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा के रूप में लें, यही वह भाव है जिसने उनको सफलता के उस शिखर तक पहुँचा दिया, जो किसी के लिए भी प्रेरणा और शक्ति का आधार बन जाता है। हनुमान जी में कहीं भी अपनी वास्तविकता को छिपाने का प्रयास नहीं मिलता। उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है या वे जहाँ भी ज़रूरी समझते हैं, अपने इस वानरपन की खुलेआम घोषणा करते हैं। उनमें न तो अनावश्यक दिखावा है और न ही दंभ। अशोक वाटिका को उजाड़ने के बाद जब उन्हें बाँधकर रावण के सामने पेश किया जाता है और उनसे अशोक वाटिका को उजाड़ने का कारण पूछा जाता है, तो उस भरे राजदरबार में उन्हें यह कहने में कोई हिचक नहीं होती कि:
खायऊँ फल प्रभु लागी भूखा। कपि सुभाव ते तोरेऊँ रूखा ।। “हे महाराज, मुझे भूख लगी थी, इसलिए मैंने फल खाए। चूँकि मैं वानर हूँ और वानर का स्वभाव ही पेड़ों को तोड़ना होता है, इसीलिए मैंने आपका बाग उजाड़ा।”
हनुमान जब भरत को राम की अयोध्या वापसी का संदेश देने उनके पास पहुँचते हैं, तब भी उन्हें अपना परिचय ‘मारुतसुत मैं कपि हनुमान’ के रूप में देने में तनिक भी संकोच नहीं होता।
मित्रो, आप सोचकर देखिए कि इतनी बड़ी स्वीकारोक्ति कौन कर सकता है। हनुमान जी वीर थे। चार सौ कोस के समुद्र को बिना कहीं रुके लाँघकर वे लंका पहुँचे थे। इसके बावजूद वहाँ वे ख़ुद को विनम्रता के साथ महज़ एक छोटे-से जीव —वानर— के रूप में घोषित कर रहे हैं। यहीं हमें यह बात देखनी है कि जब व्यक्ति वास्तविकता को स्वीकार करके उससे मुक्ति पाने के लिए कुछ करने लगता है, तो उसके अंदर शक्ति की ज्वालाएँ छूटने लगती हैं। यही स्वीकारोक्ति आत्मविश्वास का आधार बन जाती है, आत्मशक्ति का कारण बन जाती है। यह पलायन कराने वाली कमज़ोरी नहीं रह जाती।
लेकिन यदि इससे मुक्ति के प्रयास नहीं हुए, तो धीरे-धीरे हीनता की ग्रंथि अमरबेल की तरह व्यक्ति की चेतना पर फैलकर उसे और अधिक हीन बनाते हुए क्रमशः नष्ट कर देती है। ऐसे लोग आत्मदया के शिकार हो जाते हैं। उनका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। उनकी प्रेरणाएँ ख़त्म हो जाती हैं। वे आलसी हो जाते हैं। भाग्य को दोष देना और देवताओं का आह्वान करना ही उनका कर्म बन जाता है। लेकिन जैसे ही वे इससे मुक्त होने की दिशा में बढ़ने लगते हैं, वैसे ही धीरे-धीरे हनुमान जी बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
तो हनुमान जी का जो हनुमनत्व है, उसके मूल में पहली और सबसे बड़ी बात है— वास्तविकता को स्वीकारने का साहस, जिससे मुक्ति के लिए वे लगातार कोशिश करते रहे और अंत में इसमें सफल भी हुए। एक प्रकार से हम रावण और हनुमान जी के द्वंद्व को श्रेष्ठता के घमंड और श्रेष्ठता से मिली विनम्रता के द्वंद्व के रूप में देख सकते हैं।
विकासवाद के सिद्धांत के जनक महान वैज्ञानिक डार्विन के अनुसार हम सभी वानर की संतान हैं। वानर हमारे पूर्वज थे। हनुमान जी भी वानर थे, यानी कि मनुष्य से एक श्रेणी नीचे के जीव। रामकथा में कई-कई मनुष्य हैं, लेकिन वे भगवान नहीं बन पाए। किंतु मनुष्य से एक श्रेणी नीचे के जीव हनुमान, जिन्हें पहले मनुष्य बनना चाहिए था, छलाँग लगाकर सीधे भगवान बन गए। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा इसलिए हो गया, क्योंकि वे अपनी सच्चाई को जानते थे और बहुत गहराई से जानते थे। कम से कम मुझे तो यही लगता है।