Prem Gali ati Sankari - 95 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 95

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प्रेम गली अति साँकरी - 95

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कुछ देर बात उत्पल भी पहुँच गया | मौसी और मौसा जी उसे देखकर प्रसन्न हो उठे | वह किसी से कोई कॉन्टेक्ट नहीं रखता था, इस बात की शिकायत की गई और वह मुस्काता बैठा रहा | वह कोई उत्तर देना नहीं चाहता था या दे नहीं सकता था,कुछ समझ नहीं आया|कुछ पर्सनल बातें मौसा जी ने उससे पूछने की कोशिश की फिर मुझे लगता है कि मौसी ने अपने पति को आँखों से इशारा कर दिया जिससे वे चुप हो गए यानि उत्पल से कुछ खास बात पूछने की उत्सुकता को दूर करने की कोशिश की और इधर-उधर की बातें करने लगे|मेरा मन उद्विग्न सा हो रहा था, आखिर उत्पल के इस खिलखिलाते व्यक्तित्व के पीछे कुछ तो ऐसा है जो दर्द से भर हुआ है |

अपने दर्द को छिपाने के लिए न जाने इंसान किन किन चीज़ों का सहारा लेता है|कभी बेकार ही अपने को चुप कर लेता है,कभी चुपके से रोता है,कभी किसी से अपने दिल की बात कहना चाहता है पर कहने से अपने को जबरदस्ती रोक लेता है और अंदर ही अंदर घुटता रहता है, तो कभी बेकार ही अधिक बोलने लगता है और कभी अपने दर्द को छिपाने के लिए बेबात हँसता भी है|कहाँ समझ पाता है कोई किसी के दिल की बात ! इस दुनिया में कोई किसी के दर्द से नहीं तड़पता ,सबके अपने-अपने दर्द हैं,पीड़ाएं हैं|सबकी अलग-अलग परिस्थितियाँ भी हैं और सबकी हैं अलग-अलग सोच !न जाने उत्पल किसी पीड़ा से गुज़रता रहा है क्या?मैंने सोचा,फिर मन को चुप कराने की कोशिश की|मैंने खुद को उस ऊहापोह से निकालकर सबमें मिक्स होने की कोशिश की|

इतने दिनों बाद फैमिली गैदरिंग हुई |पिछले दिनों में तो जैसे जीवन थम सा ही गया था आज लगा जैसे  दिन नहीं सालों गुज़र गए थे ज़िंदगी को अपनों के साथ जीए|पापा और मौसा जी का हँसना-ठठाना ऐसा लग रहा था जैसे दादी का ज़माना लौट आया हो,कहीं पर जैसे कोई संकोच नहीं था|महाराज ने बीयर केन्स चिल्ड करवाकर रखे थे|कई प्रकार की बाइट्स तैयार की थीं और  ¾ तरह के नए नए स्टार्टर्स भी|

ये अम्मा के शौक से जमा किए गए क्रॉकरी और कटलरी के सैट्स जाने कितने दिनों बाद डाइनिंग-टेबल की शोभा बढा रहे थे|महाराज का खाना,उनकी मेहमाननवाज़ी देखकर तो लोग इतने खुश हो जाते थे कि जाते समय उन्हें कुछ रुपए देना उन्हें ज़रूरी लगता|और महाराज ठहरे संस्थान के ऐसे बंदे जिन्हें मेहमानों से लेना कभी भी अच्छा नहीं लगा|पापा ने कितना समझाया था उन्हें कि अगर लोग खुश होकर कुछ दें तो उसको लेने में हर्ज़ भी क्या था लेकिन उन्हें नहीं मानना था तो नहीं माने|फिर पापा-अम्मा ने उन्हें कहना ही छोड़ दिया था|

“साहब !आपने,संस्थान ने हमें इतना दिया है कि हम भीतर तक संतुष्ट हैं ,ऐसी क्या चीज़ है जो आपने हमारी पूरी नहीं की,फिर बच्चे हों तो ठीक है|कभी भी दादी जी की याद आ जाती है,उन्होंने हमारी झोपड़ी का महल बनवा दिया और जब ज़रूरत होती है आप हमेशा हमारे सिर पर हाथ रखकर खड़े मिलते हो |अब रमेश को ही क्या से क्या बना दिया आपने|आपका नमक खाया है साब ,बस वही खाते रहें|इससे ज़्यादा कुछ नहीं|”यह उनका पापा की,संस्थान का सम्मान करने ,उनकी इज़्ज़त रखने का तरीका था|शुरू-शुरू में तो पापा-अम्मा ने कई बार उन्हें इसरार किया लेकिन जब देखा कि उसमें महाराज को अपना स्वाभिमान छोड़ना पड़ता तो कहना बंद कर दिया|

देखा जाए तो आदमी अपने श्रम से ही कुछ कर पाता है|हाँ,यदि उसका भाग्य होता है तो माध्यम ज़रूर कोई मिल जाता है|हमारे संस्थान में जितने भी लोग थे,उन्हें माध्यम मिला था,श्रम करना उनका काम था और सब ही कर भी रहे थे अपने-अपने अनुसार!मुझे सच में हँसी आती,जिन लोगों को माध्यम मिला उन्होंने उसका लाभ लिया,परिश्रम किया और फल भी प्राप्त किया लेकिन जिन लोगों को बिना श्रम किए कभी कुछ मिलता रहा वे बातें बनाते रहे और इसी बात से महाराज चिढ़ जाते थे|

पापा-अम्मा ने उन्हें किसी से कुछ भी अब लेने के लिए कहना बंद ही कर दिया था|वे उनको ही मना कर देते जो देना चाहते थे| अगर वहाँ पर उनका कभी कोई बच्चा होता तब उसे दे जाते मेहमान लोग जिसमें महाराज को कोई आपत्ति नहीं होती|

आज के जमाने में कौन लोग ऐसे होते हैं जिनमें इतनी समझ हो|पापा-अम्मा और हम सबको उन पर और अधिकतर अपने संस्थान के सभी कर्मचारियों पर इतना गर्व था कि जो लोग उल्टी-सीधी बातें करते थे वे इस बात को,उनकी इस भावना को समझ ही नहीं सकते थे| इसके लिए मन का सबसे पहले साफ़ व निस्वार्थी होना ज़रूरी होता है|

बेशक आज का कितना ही मॉर्डन ज़माना हो ,चाहे कितने ही दादी के,अम्मा-पापा के अहसान हों ,ऐसा कौन करता है कि इंटरनैट के सहारे नए नए व्यंजनों की खोज करके आनंदपूर्वक तरह-तरह के व्यंजन बनाए और मुस्कराते हुए मनुहार से परोसे|हमारे आठवीं पास महाराज थे ही ऐसे !उन्होंने नैट से न जाने कितने नए व्यंजन सीख लिए थे और कोई आने वाला होता तब तो जैसे उनके पर लग जाते|

“अरे ! अस्पताल जाना हो तो वहाँ हो आना,कभी मेहमाननवाज़ी में ही लगे रहो—” आज डिनर पर पापा ने कई बार उनसे कहा था लेकिन वो मस्त थे अतिथियों का स्वागत करने मे|

“साहब ! मैं क्या करूँगा ?अभी तो उसकी सास है न वहाँ ,मैं तो वहाँ जाकर बेकार ही टाइम खोटी करूँगा |चार दिन बाद छुट्टी मिल जाएगी बहुरानी को,आ जाएंगे यहीं |वैसे भी कहाँ दूर है,ज़रूरत पड़े,मार लो चक्कर !

खूब आनंद आया,सबकी खिलखिलाहट सुनकर अम्मा-पापा के चेहरों की चमक देखने योग्य थी|सब अपनी-अपनी कंपनी में खुश दिखाई दे रहे थे|अल्बर्ट और आना की हिन्दी सुनने में तो मज़ा ही आ गया|बहुत अच्छी बोलते थे दोनों लेकिन उनका उच्चारण इतना अलग और मीठा था कि सब उनके चेहरे देखकर मुस्का जाते|जब वे बोलते मैं तो उनके चेहरों पर ही अपनी दृष्टि गडा लेती|

डेज़र्ट में महाराज ने अपनी वही खीर बनाई थी जिसे खाकर लोगों के पेट भर जाते थे,मन नहीं भरता था|अब तो वो मीठे के इतने अधिक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने लगे थे लेकिन उनकी खीर का स्वाद उन सब व्यंजनों पर चढ़कर बोलता|सबने तो पहले उनके हाथ की खीर खाई हुई थी लेकिन अल्बर्ट और आना ने पहली बार इतनी स्वादिष्ट खीर का ज़ायका लिया था और अल्बर्ट तो बार-बार खीर के डोंगे की तरफ़ हाथ बढ़ा रहे थे|आखिर में अम्मा को अंतरा से कहना ही पड़ा कि वह ध्यान रखे,कहीं अल्बर्ट की तबियत खराब न हो जाए|अंतरा ने पति के आगे से खीर का बाउल अपनी ओर सरका लिया और फिर अल्बर्ट की तरफ़ किया ही नहीं|वह तीन बार अपनी कटोरी भर चुका था फिर भी उसका मन नहीं भरा था|पता नहीं ऐसा क्या जादू होता था महाराज की खीर में!लेकिन सभी उनकी बनाई खीर का इतना लुत्फ़ लेते थे कि हमारे यहाँ बड़े से कढ़ाई में औटाई जाती थी खीर !इतने आधुनिक समय में भी कुछ चीज़ें तो अभी तक ट्रेडीशनल तरीके से ही बनती थीं| अम्मा कई बार दादी का सरसों का साग और मकई की रोटी याद करतीं तब महाराज पीछे की तरफ़ चूल्हा लगवा लेते और जाने कितने घंटे साग पकता ही रहता था|

महाराज की उम्र अब काफ़ी हो चली थी और पापा नहीं चाहते थे कि उन पर और अधिक बोझ डाला जाए|अपना एक असिस्टेंट महाराज अपने आप ले आए थे और पापा ने उनके लिए अभी हाल ही में दो हैल्पर्स बुलवा दिए थे|लेकिन महाराज अपनी ही निगरानी में सब कुछ बनवाते यदि ज़रूरत पड़ती तो!वरना उनकी कोशिश यही रहती कि वे खुद ही सब कुछ बनाएं|

महाराज के बच्चे उनकी शादी के कई सालों बाद हुए थे| ऊपर से बेटे रमेश और उनकी बेटी में पंद्रह साल का फ़र्क था|उम्र सब पर अपना असर तो दिखाती ही है,जैसे अम्मा-पापा पर दिखा रही थी उन पर भी दिखा रही थी और मुझ पर नहीं दिखा रही क्या ?मेरा दिमाग उलझन केवल उलझन में फँसा रहता|

“और क्या सोचा अपनी लाइफ़ के साथ अमी बेटा?सैटल तो होना पड़ेगा न ?”मौसी ने अचानक ही मुझ पर वही प्रश्न उंडेल दिया जिससे अभी तक मैं बची हुई थी|

सब लोग किसी अजूबे को देखने के जैसे मेरी ओर मुड़ गए जैसे इसी बात को सब पूछने की प्रतीक्षा कर रहे हों|और तो और उत्पल भी !!