Musafir Jayega kaha? - Last part in Hindi Thriller by Saroj Verma books and stories PDF | मुसाफ़िर जाएगा कहाँ?--(अन्तिम भाग)

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मुसाफ़िर जाएगा कहाँ?--(अन्तिम भाग)

ओजस्वी को दुखी देखकर नारायन को बिलकुल अच्छा नहीं लगा और वो बिना किसी को बताएं जीप उठाकर हवेली की ओर चला गया और इधर शान्तिनिकेतन में ओजस्वी के साध्वी बनने का अनुष्ठान चलने लगा,कोढ़ियों के आश्रम के गुरूजी की देख रेख में ये कार्य हो रहा था,ओजस्वी सफेद सूती साड़ी धारणकर, माथे पर चन्दन लगा और गले में तुलसी की माला पहनकर वो हवनकुण्ड के पास जा बैठी,वो अब इस सांसारिक माया मोह से मुक्ति पाना चाहती थी,जिसे उसने सबसे ज्यादा चाहा था उसी ने उसे धोखा देकर उसकी छोटी बहन को अपना लिया था,ये बात ओजस्वी के हृदय में काँटे की तरह चुभ गई थी.....
इधर ओजस्वी के साध्वी बनने का अनुष्ठान चल रहा था और उधर नारायन हवेली जा पहुँचा और वहाँ जाकर तेजस्वी से बोला....
"आप दोनों को मालकिन ने बुलवाया है",
"लेकिन क्यों"?,ओजस्वी ने पूछा...
"आप दोनों की करतूतों का उन पर क्या असर हुआ है ये देखने के लिए,वें आप दोनों को अपने सम्बन्ध से मुक्त करना चाहतीं हैं,अब उनसे आप दोनों का कोई नाता नहीं है,इसलिए वें सन्यास ग्रहण करने जा रहीं हैं,इसलिए आप दोनों को उन्होंने शान्तिनिकेतन बुलवाया है",नारायन बोला....
"ओजस्वी! सन्यास ले रही है",किशोर ने पूछा...
"हाँ! और इसका कारण आप हैं किशोर बाबू! आपने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा",नारायन बोला...
"मैं उसे सन्यास लेने से रोकूँगा",किशोर बोला...
"तो फिर अभी चलिए मेरे साथ,जल्दी कीजिए ,अब कुछ भी सोचने का वक्त नहीं है",नारायन बोला...
"लेकिन मैं शान्तिनिकेतन नहीं जाऊँगी",तेजस्वी बोली...
"आपको भी मेरे साथ चलना होगा",नारायन बोला...
"हाँ! तेजस्वी!मेरे साथ चलो,तुम्हें वहाँ ओजस्वी को सारी सच्चाई बतानी होगी",किशोर बोला...
"लेकिन मैं वहाँ क्यों जाऊँ"?,तेजस्वी बोली...
"तुम्हें चलना ही होगा मेरे साथ"
और फिर किशोर ने तेजस्वी का हाथ पकड़ा और जबरदस्ती उसे अपने साथ जीप तक ले गया और फिर तीनों जीप में जा बैठे,नारायन ने जीप स्टार्ट की और जीप चल पड़ी,नारायन आगें बैठा था और वें दोनो पीछे बैठें थे,फिर एकाएक नारायन ने जीप की स्पीड बढ़ा दी और दोनों से बोला....
"अब मालकिन को आप दोनों से मुक्ति मिल जाएगी",
और फिर उसने जीप उस खाई की ओर मोड़ ली जहाँ हमेशा एक्सीडेंट होते रहते थे और फिर जीप खाई में जा गिरी और उसमें आग लग गई,ये कहते कहते साध्वी जी चुप हो गई तो कृष्णराय जी बोलें...
"तो क्या किशोर की मौत इस तरह से हुई "?
"नहीं! किशोर बाबू की मौत एक्सीडेंट में नहीं हुई",साध्वी जी बोलीं....
"ये क्या पहेली है साध्वी जी! अगर जीप खाई में गिरी तो किशोर कैसें नहीं मरा,इतनी ऊँचाई से गिरने पर तो कोई भी नहीं बच सकता",कृष्णराय जी बोले....
"अब आगें सुनिए कि क्या हुआ था उस दिन",साध्वी जी बोलीं....
फिर उन्होंने आगें की कहानी सुनानी शुरु की....
उस रोज जब एक्सीडेंट हुआ तो खाई में जली हुई केवल दो ही लाशें मिलीं थीं,एक नारायन की थी और दूसरी तेजस्वी की....
"तो फिर किशोर का क्या हुआ"?,कृष्णराय जी ने पूछा...
"लोगों ने सोचा कि उस इलाके में इतने बाघ और तेदुएंँ हैं तो कोई ना कोई जानवर किशोर जी की लाश को खा गया हो गया होगा ,लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ था",साध्वी जी बोलीं...
"तो फिर क्या हुआ था उस दिन,कृपया कर इस पहेली को सुलझाए",कृष्णराय जी बोलें...
तब साध्वी जी बोलीं....
जब नारायन दोनों को जीप में लेकर जा रहा था तो रास्ते में जीप अचानक से रुक गई,मतलब जीप रूकी नहीं थी,नारायन ने जानबूझकर वो जीप कोढ़ियों के आश्रम के पास रोकी थी,वहाँ उस समय उन तीनों के अलावा और कोई भी मौजूद नहीं था,वो इलाका एकदम सुनसान था और फिर वो वहाँ रुककर जीप को ठीक करने का नाटक करने लगा और फिर वो जीप के पीछे रखे भाग में औजारों का थैला उठाने गया और वहीं पर रखें डण्डे से उसने दोनों के सिर पर वार किया,दोनों जब तक कुछ समझ पाते तब तक बेहोश हो चुके थे....
कुछ देर तक नारायन वहीं खड़ा रहा क्योंकि उसे पता था कि उस रास्ते से कोढ़ियों के आश्रम के लिए खाने का सामान एक बैलगाड़ी में जाया करता था,जब बैलगाड़ी वाला वहाँ आया तो उसने किशोर जी को उस बैलगाड़ी में बैठाकर आश्रम भेज दिया और उससे कह दिया कि....
" ये बात सिवाय रामस्वरूप जी के किसी को पता नहीं होनी चाहिए कि किशोर बाबू जिन्दा हैं,इनके हाथ पैर बाँधकर भण्डारग्रह में डाल देना और फौरन ही रामस्वरूप जी को बताने चले जाना,मैं शायद अब कभी ना लौट पाऊँ"
और फिर नारायन बेहोश तेजस्वी को जीप में लेकर उस खाई के पास पहुँचा और उसने खुद को,तेजस्वी को जीप सहित उस ऊँची खाई में धकेल दिया,जिससे वें दोनों तो मर गए लेकिन किशोर बाबू बच गए....
"इसका मतलब किशोर जिन्दा है तो आपने ये बात अब तक सबसे क्यों छुपाकर रखी है,उसकी तस्वीर पर माला भी लगा दी",कृष्णराय जी ने पूछा....
"हाँ! किशोर बाबू जिन्दा हैं और मैं सबको क्या जवाब देती कि मेरे पति ने मुझसे बेवफाई करके मेरी छोटी बहन से रिश्ते बना लिए,दुनिया तो यही कहती ना कि ये है वही इन्सान जिसकी वजह से उसकी पत्नी को सन्यास लेना पड़ा,इसलिए उनकी बदनामी के डर से मैंने ये बात सबसे छुपाकर रखी,आखिर मैनें उनसे प्यार किया था वें मेरे सुहाग थे और मैं उनका बुरा कभी नहीं चाह सकती थी"
और ये कहते कहते साध्वी जी रोने लगी,तब कृष्णराय जी ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा....
"आप मेरी छोटी बहन की तरह हैं,मैं अपने दोस्त की तरफ से आपसे माँफी माँगता हूँ,माँफ कर दीजिए उसे,आप सच्ची साध्वी के साथ साथ एक अच्छी पत्नी भी साबित हुई,आपने ये सिद्ध कर दिया कि स्त्री कितनी महान हो सकती है,आपका पति आपकी आँखों के सामने हैं तब भी उसकी विरह में पल पल जलकर आप सच्ची साध्वी बनी रहीं,आपने अपना सारा जीवन जनसेवा में लगा दिया",
"मैं बाद में मिलने गई थी किशोर जी से तो वें मेरे सामने बहुत रोए,बहुत गिड़गिड़ाए और बोलें कि उन सब में उनका कोई दोष नहीं था,वो सब तो तेजस्वी का किया कराया था और इस बात की गवाही लक्खा ने भी दी थी,फिर मैंने उन्हें माँफ कर दिया",साध्वी बोलीं...
"तो अब कहाँ है वो क्या मैं उससे मिल सकता हूँ"?,कृष्णराय जी बोलें...
"हाँ! मैं भी आपके साथ आपको ऊधवगढ़ स्टेशन छोड़ने चल रही हूँ,रास्ते में मैं आपको उनसे मिलवा दूँगीं",
और फिर कृष्णराय जी साध्वी जी के साथ ऊधवगढ़ स्टेशन की ओर चल पड़े ,रास्ते में कोढ़ियों का आश्रम मिला तो साध्वी जी ने ताँगेवाले से वहीं ताँगा रोकने को कहा और फिर कृष्णराय जी से बोलीं....
"आइए! मैं आपकी ये कामना भी पूरी कर देती हूँ"
और फिर वें कृष्णराय जी को आश्रम के एक कमरें में ले गई जहाँ किशोर गेरूएँ वस्त्र धारण करके,गले में रूद्राक्ष की मारा डाले ध्यान लगाकर बैठा था,कृष्णराय जी किशोर को दूर से ही देखकर वापस लौट आएं तो साध्वी जी बोलीं....
"देख लिया अब आपने अपने दोस्त को,हो गई ना तसल्ली कि वें सही सलामत हैं",
"हाँ! हो गई तसल्ली! वो भी आपकी तरह ही बन गया लेकिन जाने से पहले एक इच्छा और पूरी हो जाती तो अच्छा रहता",कृष्णराय जी बोलें......
"अब क्या इच्छा शेष बची है,मैं वो भी पूरी किए देती हूँ,साध्वी जो हूँ,मेरे द्वार से कोई खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए", साध्वी जी मुस्कुराते हुए बोलीं....
तब कृष्णराय जी बोलें....
"एक बार धानी,रमेश और रामविलास चौरिहा जी से मुलाकात हो जाती तो फिर मन में कोई मलाल शेष ना रह जाता",
"बस!यही इच्छा बाक़ी रह गई है ना तो वो भी पूरी हो जाएगी,अब हम वहाँ जा रहे हैं जहाँ आपकी मुलाकात सबसे हो जाएगी,मैंने कहा था ना आपसे कि लक्खा धानी और रमेश की शादी के लिए मान गया है,तो आज धानी और रमेश की शादी है और हम दोनों वहीं जा रहे हैं",साध्वी जी बोलीं...
"आपने पहले बताया होता तो मैं धानी के लिए कोई उपहार ले लेता",कृष्णराय जी बोलें...
"आप उसकी चिन्ता ना करें,वो मैनें ले लिया है",साध्वी जी मुस्कुराते हुए बोलीं....
"आपने तकलीफ़ क्यों उठाई"?,कृष्णराय जी बोले....
"अब आपने मुझको अपनी छोटी बहन माना है तो इतना तो मैं आपके लिए कर ही सकती हूँ",साध्वी जी बोलीं...
"हाँ!एक बात तो मैं आपसे पूछना ही भूल गया कि आपकी माँ कौशकी देवी का क्या हुआ"?,कृष्णराय जी बोलें....
तब साध्वी जी बोलीं....
"माँ को जब पता चला कि उनका दमाद और छोटी बेटी दोनों ही इस दुनिया में नहीं रहे तो कुछ दिनों के बाद उन्होंने भी इस चिन्ता में अपने प्राण त्याग दिए,हलाँकि मैं उनसे मिलने ऋषिकेश गई थी और उनसे कहा था कि किशोर जी जिन्दा है लेकिन जब उन्होंने सुना कि तेजस्वी ने ऐसा किया तो फिर वें इस सदमें को ज्यादा दिन झेल ना सकीं",
और फिर ऐसे ही बातें करते करते वें फूलपुर पहुँचे जहाँ आज रात धानी और रमेश की शादी थी,कृष्णराय जी धानी से मिलने उसके पास पहुँचे तो धानी ने फौरन कृष्णराय जी के चरण स्पर्श किए और बोली...
"शहरी बाबू! आखिर आपने साध्वी जी कहकर बाबा को मनवा ही लिया इस शादी के लिए",
तब कृष्णराय जी ने धानी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा...
"तुम मेरी बेटी जैसी हो तो फिर ये काम तो पूरा करना ही था और देखो मैं उन्हें भी साथ लाया हूँ",
फिर धानी ने साध्वी जी के भी चरण स्पर्श किए तो साध्वी जी ने उसे अपने सीने से लगा लिया,फिर कृष्णराय जी एक एक करके सबसे मिले चौरिहा जी भी वहीं मौजूद थे और रामस्वरूप जी भी,साथ में बंसी भी वहीं था,सबसे मिलने के बाद कृष्णराय जी साध्वी जी के साथ ऊधवगढ़ स्टेशन की ओर चल पड़े....
साध्वी जी कृष्णराय जी को स्टेशन पर छोड़कर वापस चली गई, फिर कृष्णराय जी स्टेशन मास्टर अवधेश कुमार त्रिपाठी जी से भी मिले और उनके घर उनकी पत्नी रामजानकी से भी मिलने गए,क्योंकि उनकी ट्रेन तो रात को आने वाली थी,रामजानकी ने कृष्णराय जी को रात का खाना खिलाकर ही वापस आने दिया फिर वें स्टेशन आ गए क्योंकि उनकी ट्रेन का वक्त हो गया था.....
जब उनकी ट्रेन आ गई तो वें उसमें चढ़ गए,चूँकि अब कृष्णराय जी का काम पूरा हो गया था और वें खुशी खुशी अपने घर की ओर चल पड़े........
अब मुसाफ़िर को पता था कि उसे कहाँ जाना है,इसलिए अब उसके मन में ये सवाल नहीं था कि मुसाफ़िर! जाएगा कहाँ?......

समाप्त.....
सरोज वर्मा....