शिष्य परीक्षा के अनोखे तरीकेसमर्थ रामदास को लोगों की बहुत अच्छी परख थी। अपने शिष्यों के लिए वे गुणपारखी गुरु थे। न सिर्फ गुणों की बल्कि शिष्यों की योग्यता की भी परख उनके द्वारा कड़ी परीक्षाओं द्वारा होती थी।
एक बार स्वामी कुछ परेशान से थे। शिष्यों ने उनके पास जाकर उनकी परेशानी का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि उनके पैर में गाँठ पड़ गई है। उन्होंने अपना वह पैर कपड़े से ढक रखा था। शिष्यों ने उसे ठीक करने का उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि इसे अगर किसी ने अपने मुँह से चूस लिया तो गाँठ के ऊपर बना फोड़ा खुलेगा और गाँठ हलकी हो जाएगी। इससे उन्हें तुरंत आराम मिलेगा।
उपाय सुनकर कई शिष्यों को घिन आ गई। गाँठ इतनी बड़ी थी कि लपेटे हुए कपड़े से बाहर भी उसका आकार महसूस हो रहा था। उसे मुँह से चूसकर खोलने की कल्पना भी वे नहीं कर पाए और कुछ न कुछ बहाना बनाकर, एक-एक करके वहाँ से निकल गए।
कल्याण स्वामी को जब गुरु के कष्ट के बारे में पता चला तो वे तुरंत वहाँ आए और अपने गुरु के पैर में बँधी पट्टी खोलने लगे। गुरु का दर्द हलका करने के लिए वे दूसरों को घिन आनेवाला काम भी करने को तैयार हो गए।
जैसे ही उन्होंने पट्टी खोली तो देखा कि वहाँ न तो कोई गाँठ है और न फोड़ा। वहाँ गुरुजी ने मीठा आम बाँधा हुआ था। अपने सारे शिष्यों की वह परीक्षा थी, जिसमें कल्याण स्वामी इस बार भी खरे उतरे थे। कल्याण की तरफ देखकर हँसते हुए गुरुजी ने वह आम उन्हें आशीर्वाद के रूप में भेंट कर दिया। इस तरह शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए वे हर बार नई-नई करामातें करते थे।
जब किसी को महंत पद देना होता था तब एक अनूठे तरीके से शिष्य की परीक्षा होती थी। उस वक्त ग्रंथ हस्तलिखित अवस्था में होते थे। कागज कच्चा होने की वजह से उनकी बँधाई (बाइंडिंग) नहीं होती थी और न ही ग्रंथ के पन्नों पर पृष्ठ क्रमांक होते थे। ग्रंथ का एक-एक पन्ना खुला (स्वतंत्र) होता था।
समर्थ रामदास दासबोध के सारे पन्ने अपने हाथों से बिखेर देते और जिस शिष्य की परीक्षा होनी है, उसे उन्हें क्रमवार लगाकर रखने को कहते। जिसे पूरा दासबोध याद होता, वह देखते ही देखते उसे क्रमवार संजो लेता। फिर उसे ही महंत बनाया जाता।
समर्थ रामदास कहते थे कि जो कोई दासबोध का न सिर्फ पठन करेगा बल्कि उसे समझकर उस अनुसार आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा। जिसके पास दासबोध है, उसे किसी और गुरु की आवश्यकता नहीं है। यह ग्रंथ ही पूर्ण गुरु है।
एक बार कल्याण स्वामी को उन्होंने कुछ अनमोल रत्न भेंट स्वरूप दिए और उनकी माला बनाकर गले में पहनने को कहा। कल्याण स्वामी ने विनम्रता से यह कहते हुए वे रत्न लेने से मना कर दिया कि 'जिनके पास समर्थ रामदास जैसे गुरु हों, उन्हें किसी और रत्न की क्या ज़रूरत है!' रत्न उनकी नि:स्वार्थ सेवा में बाधा बनेगा, यह बोध पाकर कल्याण स्वामी ने वे रत्न समर्थ को लौटा दिए। अपने शिष्य के वैराग्य की वह परीक्षा थी ।
समर्थ रामदास ने अपने जीवन में निर्धनता से पीड़ित अनेक लोगों को शिष्य बनाकर, उनका अनेक मार्गों से उद्धार किया। वे चाहते थे कि उनके शिष्य कठोर साधना व निरंतर अभ्यास करें।
अपने लेखन में सेवक धर्म बताते हुए वे कहते हैं
* जो आलस्य के मारे अपना अहित करता है, वह अपना ही शत्रु है। अपनी दुर्दशा का ज़िम्मेदार वह खुद है और अपनी दशा के लिए औरों पर दोष लगाने का उसे कोई अधिकार नहीं है।
* जो सेवक अपने से श्रेष्ठ की बात नहीं मानता, अपनी ही शेखी बघारता है, श्रेष्ठों का कार्य बिगाड़ता है, अपनी ही चलाता है, वह भ्रष्ट होता है और एक दिन धनविद्या सब कुछ गँवा बैठता है।
* जो सिर्फ दिखावे के लिए, लोगों के सामने कार्य करता है लेकिन मन में सेवाभाव नहीं होता, उसके हाथ खाली रह जाते हैं।
* जो अपने पिता समान (ज्येष्ठ) लोगों को बेवजह अकल के पाठ पढ़ाता है, उनके साथ छल और चालाकी करता है, ऐसा मूर्ख कभी श्रेष्ठ पद पाने का पात्र नहीं बनता।
* जो बिना किसी अपेक्षा के कार्य (निष्काम सेवा) करता है, उसके निर्वाह (आजीविका) की चिंता स्वयं प्रभु करते हैं।
* पहले निश्चय करना और बाद में उस पर सोचना समझदारी का लक्षण नहीं है। निर्णय लेने से पहले ही पूरा सोचें।
* जहाँ स्वार्थ बुद्धि है वहाँ शुद्धि नहीं है और जहाँ शुद्धि नहीं है ऐसी सेवा दुःख का कारण बनती है।
* अपना स्वार्थ पाने की कामना करना, जिसकी सेवा में है, उसका कार्य बिगाड़ना, सच्चे सेवक का लक्षण नहीं है।
* शुद्ध सेवाभाव सेवकधर्म का सत्व है।
* थोड़े से लालच के लिए जो महान कार्य बिगाड़ता है, वह स्वयं महत्वहीन बनकर, दूसरों की निंदा का पात्र बनता है।
* जो सेवक स्वामी के सामने विश्वसनीय बनता है लेकिन पीठ पीछे शत्रु से जाकर मिलता है, ऐसा चांडाल (चालबाज़ / कपटी इंसान) दुर्गति को प्राप्त होता है।
* ऐसा सेवक न बनें जो स्वामी के लिए आवश्यक बनकर रहे। यह स्वामी के कार्य में अड़चन पैदा करने समान है।
सेवक धर्म में प्रस्तुत ये कुछ बातें समर्थ रामदास के साहित्य सागर के एक छोटे बूँद के समान हैं। वे एक विद्वान, लेखक, कवि और राजनीतिज्ञ थे। उनकी समृद्ध विचारधारा से आया हुआ समर्थ साहित्य (वाड्मय), उनकी अमृतधारा समान शब्दरचना से बने ग्रंथ आज चार सौ साल बाद भी समाज को ज्ञान का प्रकाश दे रहे हैं।
☤
ज्ञान मिलना काफी नहीं है, ज्ञान से अहंकार भी जग सकता है । सच्ची सेवा में अहम्भाव पिघलता है इसलिए आंतरिक शुद्धि के लिए सेवा अति आवश्यक है।
गुरु पाहता पाहता लक्ष कोटी। बहूसाल मंत्रावळी शक्ति मोठी ॥
मनी कामना चेटके धातमाता। जनीं व्यर्थ रे तो नव्हे मुक्तिदाता॥180॥
अर्थ - दुनिया में लाखों गुरु हैं। उनके पास कई तरह की मंत्र शक्तियाँ हैं। लेकिन जिसका मन कामनाओं से भरा हुआ है, जो जादू-टोना करता या सिखाता है, ऐसा इंसान व्यर्थ गुरु है। ऐसा गुरु कभी मुक्तिदाता नहीं हो सकता।
अर्क - गुरु शब्द की परिभाषा बहुत अस्पष्ट है। ए से लेकर जेड तक हर प्रकार के गुरु बताए जा सकते हैं। लोग शिक्षक या प्रशिक्षक को भी गुरु कहते हैं। मंत्रतंत्र, अघोरी विद्या, योग प्राणायाम सिखानेवाले आदि अनेक प्रकार के गुरु हैं। लेकिन असली गुरु वही है जो लालसा रहित, ज्ञान से परिपूर्ण हो और जिसके ज्ञान से इंसान का आध्यात्मिक उत्थान हो । ऐसा गुरु ही मुक्तिदाता है, ऐसा समर्थ रामदास बताते हैं।
नव्हे चेटकी चाळकू द्रव्यभोंदू। नव्हे निंदकू मत्सरू भक्तिमंदू ॥
नव्हे उन्मतू वेसनी संगबाधू । जनीं ज्ञानिया तोचि साधू अगाधू ॥181॥
अर्थ - जो जादू-टोना नहीं करता, जो पैसों की लालसा में लोगों को नहीं ठगता, जो निंदा, मत्सर नहीं करता, जिसकी भक्ति मंद नहीं है (बुलंद है), जो उन्मत्त नहीं है, जो व्यसन नहीं करता, अपनी संगत में दूसरों को कुमार्ग पर नहीं ले जाता वह असली ज्ञानी है, वही महान साधु है।
अर्क - इस श्लोक में समर्थ रामदास साधु संत के लक्षण बताते हुए कहते हैं- जिसने साधना द्वारा अपने विकारों को जीत लिया है - वह साधु है । जिसने तपस्या द्वारा अपनी वृत्तियों को शांत किया है वह संत है। जो विकार और वृत्तियों से रहित है, जो लोभ, अहंकार, द्वेष, लालसा, वासना रहित होकर चेतना की उच्चतम अवस्था में सदा स्थित है वही असली गुरु है। जिसकी संगत में मन विकार रहित हो जाता है- वह मुक्तिदाता है।