मै शादी के लिए एक महीने की छुट्टी लेकर गया था और पता ही नही चला कब एक महीना गुजर गया।उन दिनों टेलीफोन थे लेकिन हर घर मे नही।और मोबाइल तो हमारे देश मे था ही नही।बस डाक का ही सहारा था।मैं जाने से एक दो दिन पहले बोला पत्र लिखती रहना।और सुनो
क्या
पत्र पुरानी औरतों की तरह मत लिखना
मतलब
"मेरे प्राण प्यारे,पति परमेश्वर ऐसे मत लिखना
"तो
"पढ़ी लिखी हो।पति पत्नी बराबर होते है।मेरा नाम लिखना
उसने ऐसा तो नही किया और पत्र की शुरुआत प्रिय से करती थी।
उन दिनों बांदीकुई से आगरा के लिए सिर्फ 3 ट्रेन ही चलती थी।एक सुबह,एक दोपहर में और एक रात में।आगरा की ट्रेन पकड़ने के लिए गांव से बांदीकुई आना पड़ता था।दिल्ली या रेवाड़ी की तरफ से आनेवाली गिनती की ट्रेन ही हमारे गांव के स्टेशन पर रुकती थी।दोपहर वाली आगरा की गाड़ी पकड़ने के लिये बस से आना पड़ता था।उन दिनों पूरे दिन में सिर्फ 5 बसे अलवर से बांदीकुई के बीच चलती थी।पत्नी से अलग होते हुए वह भी और मै भी भावुक था।लेकिन आना तो था ही।और मै भारी मन से आगरा आ ही गया।उन दिनों मैं किराए के मकान में रावली में रहता था।
मैं आ तो गया था लेकिन पत्नी के शरीर की खुश्बू मेरी सांसों में समा चुकी थी।वह मुझसे दूर थी लेकिन उसकी महक मुझसे अलग नही हो पाती थी।भीनी भीनी महक हर समय मुझे यह एहसास दिलाती की वह मुझसे दूर नही है।मेरे पास ही है।
और में फिर महीने भर बाद गया था।पहली दिवाली पर मुझे छुट्टी नही मिली और में गांव नही जा पाया।लेकिन उसके बाद मैने छोटे भाई के साथ उसे आगरा बुला लिया था।
फिर कुछ बाते मैं
पहला शादी होते ही मैने सारी जिम्मेदारी उसे दे दी।महीने में पगार मिलते ही मैं उसके हाथ पर रख देता था।कैसे खर्च चलाना है।वह ही जाने।उन दिनों मा को पेंशन भी नही मिलती थी।हालांकि एक स्किम आयी थी और मैने मा की पेंशन के फॉर्म भर दिए थे। लेकिन पेंशन अभी शुरू नही हुई थी।अतः पत्नी को उसी टङ्कः में से गांव का भी खर्चा चलाना था।
मैने कभी पत्नी पर कभी रोक नही लगाई की किस्से बात करनी है या नही।रावली में जिस मकान में रहता था।उसकी मकान मालकिन से मेरा झगड़ा हो गया और मैने उससे बोलना बन्द कर दिया था।पर मेरी पत्नी उससे बात करती थी।मैने कभी नही रोका।
दूसरे बहुत सी बातों पर पत्नी से मेरा झगड़ा हो जाता था।लेकिन कभी भी मैंने पत्नी पर हाथ नही उठाया। हमेशा मैने इस बात का ख्याल रखा कि पति और पत्नी बराबर के है।कोई बड़ा या छोटा नही।मैने कभी पत्नी को अपने पैर नही छूने दिए।क्योकि हम दोनों बराबर है कोई छोटा या बड़ा नही।
उन दिनों मनोरंजन का साधन पिक्चर ही थी।मेरी 8 घण्टे की ड्यूटी रहती थी।round the clock रेस्ट वाले दिन हम पिक्चर जाते थे।मेरी पत्नी कुछ दिनों में ही हमारे खानदान में सबकी प्रिय हो गयी थी।मेरे तीनो ताऊजी जहाँ भी जाते कहना न भूलते,"बहु हो तो इंद्रा जैसी"
और पत्नी की प्रशंसा सुनक़्फ़ मुझे खुशी के साथ साथ गर्व भी महसूस होता था।