मेरा अमेरिका-गमन
“अमेरिका! निश्चय ही ये लोग अमेरिकी हैं!” मेरे मन में यही विचार उठा जब मेरी अंतर्दृष्टि के सामने से पाश्चात्य चेहरों की लम्बी कतार गुज़रने लगी।
राँची में अपने विद्यालय के भंडार गृह में कुछ धूलि धूसरित पेटियों के पीछे मैं ध्यानमग्न बैठा था। बच्चों के बीच व्यस्तता के उन वर्षों में एकान्त स्थान मिलना बहुत कठिन था !
ध्यान में वह दृश्य चलता रहा। एक विशाल जनसमूह मेरी ओर आतुर दृष्टि से देखते हुए मेरी चेतना के मंच पर अभिनेताओं की तरह मेरे सामने से गुज़र रहा था।
इतने में भंडार गृह का द्वार खुल गया । सदा की तरह एक बच्चे ने मेरे छिपने के स्थान को खोज लिया था।
“यहाँ आओ, विमल,” प्रफुल्ल मन से मैंने उसे बुलाया। “तुम्हें एक समाचार सुनाता हूँ: भगवान मुझे अमेरिका में बुला रहे हैं।”
“अमेरिका में ?” उसने ऐसे स्वर में मेरे शब्दों को दोहराया जैसे मैंने कहा हो “चाँद पर जा रहा हूँ।”
“हाँ ! कोलम्बस की भाँति मैं भी अमेरिका की खोज करने जा रहा हूँ। कोलम्बस ने सोचा था कि वह भारत पहुँच गया परन्तु वह अमेरिका पहुँच गया था; निश्चय ही इन दो देशों के बीच कोई कर्म-सम्बन्ध है !”
विमल वहाँ से भाग गया और शीघ्र ही दो पाँव के उस समाचार पत्र ने सारे विद्यालय में यह बात फैला दी।
मैंने स्तम्भित शिक्षकवर्ग को बुलाया और विद्यालय को उनके हाथों में सौंप दिया। उस अवसर पर उन्हें सम्बोधित करते हुए मैंने कहा: “मुझे पूरा विश्वास है कि लाहिड़ी महाशय के शिक्षा-आदर्शों का आप लोग सर्वोपरि पालन करेंगे। मैं हमेशा आप लोगों को पत्र लिखता रहूँगा। ईश्वर ने चाहा, तो किसी दिन मैं यहाँ वापस आ जाऊँगा।”
उन छोटे-छोटे बच्चों पर और राँची की उस सुन्दर विस्तृत भूमि पर अंतिम दृष्टिपात करते हुए मेरी आँखें छलछला आयीं। मैं जानता था कि मेरे जीवन का एक विशिष्ट अध्याय पूरा हो चुका था और अब इसके आगे मुझे सुदूर देशों में ही रहना होगा। ध्यान में उस दृश्य दर्शन के कुछ ही घंटों बाद मैं ट्रेन से कोलकाता रवाना हो गया। दूसरे ही दिन मुझे अमेरिका में आयोजित ‘धार्मिक उदारतावादियों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ (International Congress of Religious Liberals) में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिये एक निमन्त्रण मिला। उस वर्ष यह सम्मेलन ‘अमेरिकन युनिटैरियन एसोसिएशन’ के तत्त्वावधान में बॉस्टन में होने वाला था।
मेरा दिमाग घूमने लगा। मैं श्रीरामपुर में श्रीयुक्तेश्वरजी के पास जा पहुँचा।
“गुरुजी ! मुझे अभी-अभी अमेरिका में एक धार्मिक सम्मेलन में भाषण देने का निमन्त्रण मिला है। क्या मुझे जाना चाहिये ?”
गुरुदेव ने सहज भाव से उत्तर दिया: “सभी दरवाज़े तुम्हारे लिये खुले हैं। अभी नहीं गये तो कभी नहीं जा सकोगे।”
मैंने व्याकुल होकर कहा: “परन्तु, गुरुदेव ! मुझे सार्वजनिक व्याख्यान देने का अनुभव ही क्या है ? मैंने शायद ही कभी कोई भाषण दिया हो, और अंग्रेज़ी में तो कभी नहीं।”
“तुम अंग्रेज़ी में बोलो या किसी भी भाषा में बोलो, योग पर तुम्हारा भाषण मन लगाकर सुना जायेगा।”
मैं हँस पड़ा। “गुरुजी ! अमेरिकी लोग बंगाली भाषा तो सीखने से रहे! आप ही अब कृपा करके मुझे अंग्रेज़ी भाषा की बाधाओं से पार करवाइये।”
जब मैंने पिताजी के सामने अमेरिका जाने का अपना विचार रखा, तो वे हतप्रभ रह गये। उनके लिये अमेरिका एक अति दूर देश था; उन्हें भय था कि वे मुझे फिर कभी देख नहीं पायेंगे ।
उन्होंने रुक्षता के साथ पूछा: “तुम जाओगे कैसे ? कौन तुम्हें इसके लिये पैसा देगा ?” मेरी शिक्षा एवं पूरे जीवन के लिये वे ही प्रेम से पैसा देते आ रहे थे, इसलिये निश्चय ही उन्हें आशा थी कि यह प्रश्न उठाते ही मेरी सारी योजना धरी की धरी रह जायेगी ।
“भगवान मुझे पैसा देंगे।” जब मैंने यह उत्तर दिया, तो अनेक वर्ष पहले आगरा में अनन्तदा को दिये हुए इसी प्रकार के उत्तर का मुझे स्मरण हो आया। अधिक चालाकी न दिखाते हुए मैंने आगे कहाः “पिताजी ! शायद भगवान आपके मन में मेरी सहायता करने की प्रेरणा जगा दें।”
“नहीं, कभी नहीं!” उन्होंने मेरी ओर दयनीय भाव से देखा।
इसलिये दूसरे दिन जब पिताजी ने एक बड़ी रकम का चेक मेरे हाथ में दिया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
उन्होंने कहाः “एक पिता होने के नाते नहीं, परन्तु लाहिड़ी महाशय का निष्ठावान शिष्य होने के नाते मैं तुम्हें यह पैसा दे रहा हूँ। तो जाओ उस दूर पाश्चात्य देश में और वहाँ धर्म-पंथों से मुक्त क्रिया योग की शिक्षाओं का प्रसार करो।”
जिस निःस्वार्थ भाव से पिताजी ने तुरन्त अपनी वैयक्तिक इच्छाओं को तिलांजलि दे दी थी, उसे देखकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा। उन्हें रात में एहसास हो गया था कि विदेश यात्रा की किसी साधारण इच्छा से मैं अपनी योजना नहीं बना रहा था।
“कदाचित इस जन्म में अब हमारी फिरसे भेंट नहीं हो सकेगी।” पिताजी ने खिन्न होकर कहा। उनकी आयु उस समय ६७ वर्ष की हो चुकी थी।
एक प्रबल अन्तः प्रेरणा मेरे मन में उठी और पूर्ण विश्वास के साथ मैंने कहाः
“भगवान एक बार फिरसे हम लोगों को अवश्य मिला देंगे।”
जब मैं अपने गुरुदेव और अपनी प्रिय मातृभूमि को छोड़कर अमेरिका की अनजान भूमि में जाने की तैयारियाँ कर रहा था, तो मेरा हृदय कम आशंकाओं से नहीं भरा था। मैंने भौतिकवादी पाश्चात्य जगत् के बारे में अनेक कहानियाँ सुन रखी थीं। वह जगत् युग-युगों से संतों के वास्तव्य से पुनीत हुई भारतभूमि से इतना भिन्न लग रहा था।
मैं सोच रहा था: “पाश्चात्य वातावरण में प्रवेश करने की जोखिम उठाने वाले पौर्वात्य गुरु को हिमालय की ठंड सह पाने से भी अधिक कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये !”
एक दिन प्रातःकाल मैं इस दृढ़ संकल्प के साथ प्रार्थना करने बैठ गया कि भले ही प्रार्थना करते-करते मैं मर क्यों न जाऊँ, पर जब तक ईश्वर की आवाज़ नहीं सुनूँगा तब तक प्रार्थना बन्द नहीं करूँगा। मैं ईश्वर से आशीर्वाद एवं आश्वासन चाहता था ताकि मैं पश्चिम के आधुनिक भौतिकवाद और व्यावहारिक उपयोगितावाद के कोहरे में कहीं खो न जाऊँ । अमेरिका जाने का तो संकल्प मेरे मन ने कर ही लिया था, पर साथ ही ईश्वर की अनुमति और आश्वासन-वाणी सुनने के लिये वह और भी अधिक कृतसंकल्प था।
बार-बार उठने वाली सिसकियों को दबाकर रखते हुए मैं प्रार्थना करता ही रहा, करता ही रहा। कोई उत्तर नहीं । मध्याह्न होते-होते प्रार्थना की उत्कटता पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। तीव्रता की वेदना के दबाव से मेरा सिर चकराने लगा। ऐसा लग रहा था कि अब अपनी आंतरिक उत्कटता को और अधिक बढ़ाकर एक बार भी यदि रोया, तो मेरा सिर फट जायेगा।
ठीक उसी क्षण गड़पार रोड पर स्थित मेरे घर के दरवाजे पर दस्तक सुनायी दी। जब मैंने दरवाजा खोला तो देखा कि संन्यासियों की तरह केवल एक कटिवस्त्र धारण किया हुआ एक युवक वहाँ खड़ा है। उसने घर में प्रवेश किया।
“ये अवश्य ही बाबाजी होंगे!” स्तब्ध होकर मैं सोच रहा था क्योंकि मेरे सामने खड़े उस व्यक्ति का चेहरा लाहिड़ी महाशय जैसा ही दिख रहा था। मेरे मन में उठे उस विचार का उन्होंने उत्तर दे दिया। “हाँ, मैं बाबाजी हूँ।” वे अत्यंत मधुर आवाज़ में हिंदी में बोल रहे थे। “हम सबके परमपिता ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली है। उन्होंने मुझे तुम्हें यह बताने का आदेश दिया है: अपने गुरु की आज्ञा का पालन करो और अमेरिका चले जाओ । डरो मत; तुम्हारा पूर्ण संरक्षण किया जायेगा।”
थोड़ी देर रुककर बाबाजी ने फिर मुझसे कहा: “तुम ही वह हो जिसे मैंने पाश्चात्य जगत् में क्रियायोग का प्रसार करने के लिये चुना है। बहुत वर्ष पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से एक कुम्भ मेले में मिला था और तभी मैंने उनसे कह दिया था कि मैं तुम्हें उनके पास शिक्षा ग्रहण के लिये भेज दूँगा।”
साक्षात् बाबाजी के सामने खड़ा होने के कारण भक्ति भाव में विभोर होकर मैं अवाक् हो गया और उन्होंने ही मुझे श्रीयुक्तेश्वरजी के पास पहुँचाया था यह स्वयं उनके श्रीमुख से सुनकर तो मेरा हृदय कृतज्ञता एवं से प्रेमादर की बाढ़ में पूरी तरह डूब गया । मृत्युंजय परमगुरु के चरणों में मैंने साष्टांग प्रणाम किया। उन्होंने अत्यंत प्रेम के साथ मुझे उठाया। मेरे जीवन के बारे में अनेक बातें बताने के बाद उन्होंने मुझे कुछ व्यक्तिगत उपदेश दिये और कई गोपनीय भविष्यवाणियाँ की ।
अन्त में उन्होंने गम्भीरता के साथ कहा: “ईश्वर साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रणाली क्रियायोग का अन्ततः सब देशों में प्रसार हो जायेगा और मनुष्य को अनन्त परमपिता का व्यक्तिगत इंद्रियातीत अनुभव कराने के द्वारा यह राष्ट्रों के बीच सौमनस्य-सौहार्द्र स्थापित कराने में सहायक होगा।”
अपनी अनंत शक्ति से युक्त दृष्टि मुझ पर डाल कर अपने ब्रह्मचैतन्य की एक झाँकी मुझे दिखाते हुए परमगुरु ने मुझमें नयी शक्ति का संचार कर दिया।
“दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः ।।
( यदि आकाश में कभी सहस्र सूर्य एक साथ उदित हो सकें, तो उससे उत्पन्न प्रकाश भी इस महान् विश्वरूप के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो।)*
थोड़ी ही देर में बाबाजी यह कहते हुए दरवाज़े की ओर बढ़े : “मेरे पीछे आने का प्रयत्न मत करना. तुम्हारे लिये वह संभव भी नहीं होगा।”
“बाबाजी, दया कीजिये । चले मत जाइये। मुझे अपने साथ लेते जाइये।” मैं बार-बार पुकार रहा था। उन्होंने कहाः “अभी नहीं। फिर कभी।”
भावावेग में मैंने उनकी चेतावनी की परवाह नहीं की। जैसे ही मैंने उनके पीछे जाने का प्रयत्न किया, मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे पाँव ज़मीन से पक्के चिपक गये हैं। दरवाज़े पर पहुँच कर बाबाजी ने मुझ पर एक प्रेमभरी दृष्टि डाली । मेरी आँखें तीव्र लालसा से उन पर ही जमी हुई थीं। उन्होंने आशीर्वाद देने की मुद्रा में हाथ उठाया और चले गये ।
कुछ मिनटों बाद मेरे पाँव ज़मीन से छूटे। मैं वहीं बैठकर गहरे ध्यान में लीन हो गया। न केवल मेरी प्रार्थना का उत्तर देने के लिये ही, बल्कि बाबाजी का दर्शन करा देने के लिये भी, मैं ईश्वर को बारम्बार धन्यवाद देने लगा। मुझे ऐसा लग रहा था मानो चिरयुवा, आयुविहीन प्राचीन परमगुरु के स्पर्श से मेरा शरीर पावन हो गया था। उनके दर्शन की तीव्र लालसा मुझे लम्बे समय से थी ।
अभी तक बाबाजी के साथ मेरी इस भेंट की बात मैंने किसी को नहीं बतायी है। इस घटना को अपने मानवी अनुभवों में सबसे पवित्र अनुभव मानकर मैंने इसे अपने हृदय में छिपा लिया था । परन्तु मुझे लगा कि इस आत्मकथा के पाठकों को विश्व में रुचि लेने वाले एकान्तवासी बाबाजी की वास्तविकता पर अधिक विश्वास होगा यदि मैं ऐसी घटना का वर्णन कर दूँ जिसमें मैंने उन्हें स्वयं अपनी आँखों से देखा है। इस पुस्तक के लिये मैंने आधुनिक भारत के योगी-अवतार परमगुरु का एक चित्र भी एक चित्रकार की सहायता से बनवाया है।
अमेरिका के लिये प्रस्थान करने के एक दिन पहले मैं श्रीयुक्तेश्वरजी की पावन उपस्थिति में बैठा था। उन्होंने अपने ज्ञानयुक्त शान्त स्वर में मुझसे कहाः “भूल जाओ कि तुम्हारा जन्म हिंदू समाज में हुआ था, परन्तु अमेरिकी लोगों के भी सारे ही तौर-तरीके मत अपना लेना। दोनों समाजों के केवल उत्तम गुणों को ही ग्रहण करना । तुम ईश्वर की संतान हो; अपने इस सच्चे स्वरूप को सदा याद रखना । पृथ्वी पर चारों ओर विभिन्न जातिवंशों में बिखरे हुए अपने बन्धुओं के सर्वश्रेष्ठ गुणों को खोजो और उन्हें आत्मसात् करो।”
फिर उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया: “ईश्वर की खोज करने के लिये जो भी श्रद्धा के साथ तुम्हारे पास आयेंगे, तुम्हारे द्वारा उनकी सहायता होकर रहेगी । जब तुम उन पर दृष्टिपात करोगे, तब तुम्हारी आँखों से निःसृत होता आध्यात्मिक प्रवाह उनके मस्तिष्कों में प्रवेश करेगा और उनकी भौतिक प्रवृत्तियों और आदतों को परिवर्तित करके उन्हें और अधिक ईश्वराभिमुख कर देगा।” फिर मुस्कराते हुए वे बोलेः “सच्चे जिज्ञासुओं को आकर्षित करने के मामले में तुम्हारी नियति बहुत अच्छी है। तुम जहाँ भी जाओगे, चाहे वह जंगल ही क्यों न हो, तुम्हें सच्चे मित्र मिलते रहेंगे ।”
श्रीयुक्तेश्वरजी के इन दोनों ही आशीर्वादों की पूर्ति भली भाँति हुई है। मैं अमेरिका अकेला ही आया जहाँ मेरा एक भी मित्र नहीं था, परन्तु यहाँ हज़ारों लोग मुझे मिले जो आत्मा की कालातीत शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिये तैयार बैठे थे।
विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका जाने वाले पहले ही यात्री जहाज 'द सिटी ऑफ स्पार्टा' पर सवार होकर मैंने अगस्त १९२० में भारत से प्रस्थान किया । पासपोर्ट प्राप्त करने में “लालफीताशाही” की अनेकानेक कठिनाइयाँ आयीं, जो लगभग चमत्कारी रूप से ही दूर हुईं और तब कहीं जाकर मैं जहाज पर यात्रा के लिये टिकट पा सका।
दो महीनों की समुद्र-यात्रा के दौरान जहाज पर एक सहयात्री को पता चल गया कि मैं बॉस्टन सम्मेलन के लिये भारत का प्रतिनिधि बन कर जा रहा था।
मेरे नाम का विचित्र उच्चारण करते हुए (आगे मुझे अमेरिकी लोगों द्वारा जिन अजीब-अजीब तरीकों से अपने नाम का उच्चारण सुनना था, उनमें से यह केवल पहला था) उसने मुझसे कहाः “स्वामी योगानन्द, अगले गुरुवार की रात को हम यात्रियों के लिये एक व्याख्यान देकर कृपया हमें अनुग्रहीत करें। ‘जीवन का युद्ध और उसे कैसे लड़ें’ विषय पर व्याख्यान से हम सब को बड़ा लाभ होगा।”
अफसोस ! बुधवार के आते ही मुझे पता चला कि पहले मुझे ही अपने जीवन का युद्ध लड़ना था । अंग्रेज़ी में व्याख्यान देने के लिये अपने विचारों को एक सूत्र में गूँथने का मैंने हर तरह से प्रयास कर लिया, परन्तु सब व्यर्थ ! आखिर मैंने तैयारी करने का यह प्रयास ही छोड़ दिया। जीनकाठी देखते ही भड़क उठने वाले नये घोड़े की तरह मेरे विचार भी अंग्रेज़ी व्याकरण के साथ कोई सहयोग करने के लिये तैयार नहीं थे। पर गुरुदेव के पिछले आश्वासनों पर पूर्ण विश्वास रखते हुए मैं गुरुवार को जहाज के सैलून में अपने श्रोताओं के सामने जाकर खड़ा हो गया। मेरे मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला; वहाँ उपस्थित लोगों के सामने मैं अवाक् बनकर खड़ा रहा। मेरी सहनशीलता का यह युद्ध लगभग 10 मिनट तक चलता रहा। उसके बाद श्रोताओं को मेरी परिस्थिति का आकलन हो गया और वे हँसने लगे।
उस क्षण की परिस्थिति मेरे लिये तो हँसने लायक नहीं थी, क्षुब्ध होकर मन ही मन मैं गुरुदेव से प्रार्थना करने लगा।
“तुम बोल सकते हो! बोलो!” उनकी आवाज तत्क्षण मेरी चेतना में गूँजी।
उसी के साथ मेरे विचारों ने तुरन्त ही अंग्रेज़ी भाषा के साथ दोस्ती कर ली। पैंतालिस मिनट तक व्याख्यान चलता रहा और अन्त तक श्रोतागण तन्मय होकर सुनते रहे। इस व्याख्यान के कारण अमेरिका में विभिन्न संस्थाओं के समक्ष बाद में व्याख्यान देने के लिये कई निमन्त्रण मुझे उसी समय मिल गये ।
बाद में प्रयास करने पर भी, उस व्याख्यान में मैंने जो कुछ कहा था, उसमें से एक शब्द भी मुझे कभी याद नहीं आ सका। सावधानी पूर्वक जब मैंने यात्रियों से पूछताछ की तो अनेक लोगों से मुझे इतना ही पता चला: “आपने शुद्ध और सही अंग्रेजी में अत्यंत प्रेरणास्पद व्याख्यान दिया।” यह आनन्ददायक उत्तर सुनकर मैंने समय पर सहायता करने के लिये विनम्रतापूर्वक अपने गुरुदेव का धन्यवाद किया और इसके साथ ही मुझे नये सिरे से फिर एक बार यह एहसास हो गया कि देश-काल की सीमाओं को ध्वस्त कर वे सदा ही मेरे साथ हैं।
शेष समुद्र - यात्रा के दौरान कभी-कभी बॉस्टन सम्मेलन में अंग्रेज़ी व्याख्यान की अग्निपरीक्षा के विचार मात्र से ही मेरे मन में शूल उठता था।
मैं व्याकुल होकर प्रार्थना करता: “करुणासागर प्रभु ! आप ही मेरी एकमात्र प्रेरणा बनने की कृपा कीजिये।”
'द सिटी ऑफ स्पार्टा' सितम्बर के उत्तरार्थ में बॉस्टन के बन्दरगाह में खड़ा हो गया। ६ अक्तूबर १९२० को मैंने धर्म सम्मेलन में जाकर अमेरिका में अपना पहला व्याख्यान दिया। व्याख्यान का अच्छा स्वागत हुआ; मैंने राहत की साँस ली। अमेरिकन युनिटैरियन एसोसिएशन के विशालहृदय सचिव ने सम्मेलन पर प्रकाशित एक विवरण* में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया:
* न्यू पिलग्रिमेजेज ऑफ़ द स्पिरिट (बॉस्टन बीकन प्रेस, १९२१ ) ।
“राँची के ब्रह्मचर्याश्रम से आये प्रतिनिधि स्वामी योगानन्द ने अपनी संस्था की ओर से सम्मेलन का अभिनन्दन किया । धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में ओजस्वी वक्तृत्व के साथ उन्होंने 'धर्म-विज्ञान' पर दार्शनिक स्वरूप का व्याख्यान दिया, जिसे बड़े स्तर पर वितरण करने के लिये एक पत्रक के रूप में छाप दिया गया है। अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि धर्म सार्वभौमिक है और एक ही है। रीति-रिवाज़ और रुढ़ि- प्रथाओं को सार्वभौमिक नहीं बनाया जा सकता; परन्तु धर्म में निहित सामान्य तत्त्व को सार्वभौमिक बनाया जा सकता है और सबको उसका अनुसरण करने एवं उसका पालन करने के लिये कहा जा सकता है।”
पिताजी ने जो बड़ी रकम का चेक दिया था, उसके कारण सम्मेलन के समाप्त हो जाने के बाद भी अमेरिका में रहना मेरे लिये सम्भव हो गया। अत्यंत साधारण परिस्थितियों में रहते हुए बॉस्टन में तीन वर्ष सुखपूर्वक बीत गये। इस दौरान मैंने सार्वजनिक व्याख्यान दिये, शिक्षा वर्ग चलाये और “सांग्स ऑफ द सोल” (“आत्मा के गीत” ) नामक एक काव्यपुस्तक भी लिखी, जिसकी प्रस्तावना “सिटी ऑफ न्यू यॉर्क” कॉलेज के प्रेसिडेन्ट डॉ. फ्रेडरिक बी. रॉबिन्सन ने लिखी है।
१९२४ में मैंने पूरे अमेरिका महाद्वीप की यात्रा शुरू की और प्रमुख शहरों में हजारों लोगों के समक्ष व्याख्यान दिये। मैं जब सीएटल में था तो कुछ समय विश्रांति में बिताने के लिये वहाँ से रमणीय अलास्का में चला गया।
मेरी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले उदारमना लोगों की सहायता से १९२५ के अंत तक मैंने कैलिफोर्निया के लॉस ऐंजिलिस शहर में माऊण्ट वाशिंगटन एस्टेट्स पर अपने अमेरिकी मुख्यालय की स्थापना कर दी। यह वही भवन है, जो मैंने अनेक वर्ष पहले कश्मीर में अपने अन्तर्दर्शन में देखा था। यहाँ दूर अमेरिका में चल रही अपनी गतिविधियों के फोटो मैंने जल्दी ही श्रीयुक्तेश्वरजी को भेज दिये। उन्होंने एक पोस्टकार्ड पर बंगाली में उत्तर भेजा, जिसका अनुवाद मैं यहाँ दे रहा हूँ :
मेरे हृदय के दुलारे, हे योगानन्द !
११ अगस्त, १९२६
तुम्हारे विद्यालय और छात्रों के फोटो देखकर मेरे जीवन में कितना आनन्द आया है इसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता। विभिन्न शहरों के तुम्हारे योग-विद्यार्थियों को देखकर मैं आनन्द में पिघल रहा हूँ।
प्रतिज्ञापन, रोग-निवारक स्पन्दन सम्प्रेषण तथा दैवी रोगमुक्ति की प्रार्थनाएँ आदि तुम्हारी पद्धतियों के बारे में सुनकर मैं तुम्हें हृदय से धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता।
माऊण्ट वाशिंगटन इस्टेट्स का मुख्य द्वार पहाड़ी पर उपर जाता सर्पिल रास्ता, और पहाड़ी के नीचे फैले हुए सुन्दर दृश्य को देखकर यह सभी कुछ आँखों से देखने की इच्छा मन में पैदा होती है।
यहाँ सब ठीक चल रहा है। ईश्वर की कृपा से तुम सदा परमानन्द में रहो। –श्रीयुक्तेश्वर गिरि
वर्ष पर वर्ष बीतते गये। अपने नये देश के प्रत्येक हिस्से में और सैंकड़ों क्लबों, कॉलेजों, गिरजाघरों और प्रत्येक प्रकार के श्रोतृवृंदों के सामने मैंने व्याख्यान दिये। १९२० - ३० के दशक में सहस्र - सहस्र अमेरिकी लोगों ने मेरे योग की कक्षाओं में शिक्षा ली। उन सभी को मैंने प्रार्थनाओं और आत्मा के विचारों की एक नयी पुस्तक "व्हिस्पर्स फ्राम इटर्निटी"* समर्पित की थी, जिसकी प्रस्तावना प्रसिद्ध गायिका मैडम एमेलिटा गैली-कुर्ची ने लिखी थी।
कभी-कभी (साधारणतया महीने के पहली तारीख को, जब सेल्फ़रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के मुख्यालय माऊण्ट वाशिंगटन सेन्टर को चलाने के लिये किये गये खर्चों के बिलों की भरमार लग जाती थी ) भारत की सादगी भरी शान्ति की याद सताती थी। परन्तु दिन-प्रतिदिन पूर्व और पश्चिम के बीच सद्भावना वृद्धिगत होती दिखायी देती; उससे मेरी आत्मा को हर्ष होता।
अपने देश के “राष्ट्रपिता” जॉर्ज वाशिंगटन ने, जिन्हें अनेक अवसरों पर ऐसा अनुभव हुआ कि उन्हें ईश्वरीय मार्गदर्शन मिल रहा था, ने (अपने “फेयरवेल ऐड्रेस” में) अमेरिका को आध्यात्मिक प्रेरणा देने वाले ये शब्द कहे थे:
“स्वतन्त्र, सुशिक्षित एवं निकट भविष्य में ही एक महान् राष्ट्र के रूप में परिणत होने वाले इस देश की जनता के यह अनुरूप होगा कि वह समस्त मानवजाति के लिये सदा उच्च न्याय एवं लोकहितैषी वृत्ति से परिचालित मानवों के रूप में एक अभिनव उदाहरण प्रस्तुत करे। इस प्रकार की योजना का दृढ़ता से अनुसरण करने से कुछ तात्कालिक क्षति हो सकती है, परन्तु इसमें किसे सन्देह हो सकता है कि इस योजना के फलस्वरूप कालान्तर में उस क्षति की तुलना में बहुत अधिक लाभ प्राप्त होगा ? क्या कभी ऐसा हो सकता है कि ईश्वर किसी राष्ट्र के उत्तम गुणों को चिरस्थायी सुख-सौभाग्य से न जोड़े ?
वाल्ट व्हिटमन- कृत "हिम टू अमेरिका" (अमेरिका का कीर्तिगान) ("दाऊ मदर विद् दाई इक्वल ब्रूड" से)
अपने भविष्य में तुम,
नर-नारियों की अपनी अधिक सयानी, अधिक संख्य संतानों में तुम,
नैतिक, आध्यात्मिक बल से युक्त अपने महापुरुषों में तुम,
उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चम में,
अपनी नैतिक संपदा और सभ्यता में तुम (जिसके बिना बड़ा से बड़ा गौरव प्राप्त करने वाली तुम्हारी भौतिक सभ्यता अर्थहीन ही रहेगी), अपनी सर्वार्थपूरक, सर्व समावेशक अर्चना में तुम
किसी एक बाइबिल या किसी एक तारणहार मात्र में नहीं,
बल्कि तुम्हारे तारणहार असंख्य होंगे जो तुममें ही अभी सुप्त हैं,
जो किसी भी अन्य तारणहार के समतुल्य होंगे, उतने ही भव्यदिव्य होंगे,
ये ! ये सब तुममें (अवश्य होंगे) यह मैं आज भविष्यवाणी करता हूँ।