Seva aur Sahishnuta ke upasak Sant Tukaram - 10 in Hindi Spiritual Stories by Charu Mittal books and stories PDF | सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 10

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 10

मंवाजी बुवा की दुष्टता

तुकाराम जी का दूसरा कट्टर शत्रु गोस्वामी मंवाजी बुवा था । इसका घर देहू गाँव में तुकाराम के विट्ठल मंदिर के बगल में ही था । वह तुकाराम का कीर्तन सुनने भी आ जाता था, पर उसके भीतर द्वेष-भावना भरी हुई थी। तुकाराम उसके मनोभाव को जानते थे, पर उन्होंने उससे प्रेम-भाव रखना कभी नहीं छोड़ा। अगर किसी दिन मंवाजी नहीं आता तो आदमी भेजकर उसे बुला लेते थे।

तुकाराम जी के बच्चों को दूध पीने के लिए उसके ससुर आपाजी ने एक भैंस भेज दी थी। एक दिन वह घूमती-फिरती मंवाजी के छोटे-से बगीचे में घुस गई और कुछ पौधों को खराब कर दिया। इससे क्रोधांध होकर वह तुकाराम पर गालियों की वर्षा करने लगा। जब तुकाराम ने कुछ भी उत्तर न दिया तो वह एक कंटीली डाल लेकर उनको मारने लगा। मुँह से गालियों का प्रवाह निकल रहा था और हाथों से मारता जाता था। पर बहुत कुछ मारने पर भी तुकाराम शांत बने रहें । यह उनकी परीक्षा का समय था और वह उसमें पूरी तरह उत्तीर्ण हुए। उस दिन जब मंवाजी कीर्तन में नहीं आया, तो वे स्वयं उसे बुलाने गए और उसके पैर दबाकर सब दोष अपना ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा– "अगर भैंस ने आपके पौधों को खराब न किया होता, तो आप इतना क्रोध क्यों करते ? मुझे इसका बड़ा दुख है कि मेरे कारण आपके मुँह और हाथ को इतना कष्ट उठाना पड़ा।"

तुकाराम की इस अनुपम साधुता को देखकर मंवाजी मन में बड़ा लज्जित हुआ और उसके साथ कीर्तन में चला आया। पर उसके मन का नीचतापूर्ण भाव कभी पूर्णतः दूर नहीं हुआ। तुकाराम के पास आने वाले भक्तों और यात्रियों को यही समझाया करता था कि "तुकाराम तो शूद्र है, उसका कीर्तन सुनने क्यों जाते हो? तुमको अगर उपदेश लेना है, तो मेरे पास से लेलो। उसका समस्त जीवन इसी प्रकार द्वेष करते हुए व्यतीत हुआ, जबकि तुकाराम उसके देखते-देखते देशपूज्य बन गए।

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मंवाजी बुवा की दुष्टता


तुकाराम जी का दूसरा कट्टर शत्रु गोस्वामी मंवाजी बुवा था । इसका घर देहू गाँव में तुकाराम के विट्ठल मंदिर के बगल में ही था । वह तुकाराम का कीर्तन सुनने भी आ जाता था, पर उसके भीतर द्वेष-भावना भरी हुई थी। तुकाराम उसके मनोभाव को जानते थे, पर उन्होंने उससे प्रेम-भाव रखना कभी नहीं छोड़ा। अगर किसी दिन मंवाजी नहीं आता तो आदमी भेजकर उसे बुला लेते थे।

तुकाराम जी के बच्चों को दूध पीने के लिए उसके ससुर आपाजी ने एक भैंस भेज दी थी। एक दिन वह घूमती-फिरती मंवाजी के छोटे-से बगीचे में घुस गई और कुछ पौधों को खराब कर दिया। इससे क्रोधांध होकर वह तुकाराम पर गालियों की वर्षा करने लगा। जब तुकाराम ने कुछ भी उत्तर न दिया तो वह एक कंटीली डाल लेकर उनको मारने लगा। मुँह से गालियों का प्रवाह निकल रहा था और हाथों से मारता जाता था। पर बहुत कुछ मारने पर भी तुकाराम शांत बने रहें । यह उनकी परीक्षा का समय था और वह उसमें पूरी तरह उत्तीर्ण हुए। उस दिन जब मंवाजी कीर्तन में नहीं आया, तो वे स्वयं उसे बुलाने गए और उसके पैर दबाकर सब दोष अपना ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा– "अगर भैंस ने आपके पौधों को खराब न किया होता, तो आप इतना क्रोध क्यों करते ? मुझे इसका बड़ा दुख है कि मेरे कारण आपके मुँह और हाथ को इतना कष्ट उठाना पड़ा।"

तुकाराम की इस अनुपम साधुता को देखकर मंवाजी मन में बड़ा लज्जित हुआ और उसके साथ कीर्तन में चला आया। पर उसके मन का नीचतापूर्ण भाव कभी पूर्णतः दूर नहीं हुआ। तुकाराम के पास आने वाले भक्तों और यात्रियों को यही समझाया करता था कि "तुकाराम तो शूद्र है, उसका कीर्तन सुनने क्यों जाते हो? तुमको अगर उपदेश लेना है, तो मेरे पास से लेलो। उसका समस्त जीवन इसी प्रकार द्वेष करते हुए व्यतीत हुआ, जबकि तुकाराम उसके देखते-देखते देशपूज्य बन गए।

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