Kurukshetra ki Pahli Subah - 34 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 34

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 34

34.ज्ञानी होता है ईश्वर का रूप

प्रकृति के 3 गुणों की विवेचना के बाद भगवान श्री कृष्ण ने भक्तों की भी चार श्रेणियां बताई। पहली श्रेणी में वे लोग हैं जो धर्म और सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की आराधना करते हैं। दूसरे लोग वे हैं जो भगवान को केवल संकट के समय याद करते हैं और पुकारते हैं। तीसरे ईश्वर के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा और कौतूहल के कारण ईश्वर की आराधना करते हैं। चौथी श्रेणी के वे भक्त हैं जो ज्ञानी हैं। इस श्रेणी के भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति साक्षात मेरा स्वरूप है। 

अर्जुन: ऐसा क्यों भगवन?

श्री कृष्ण: क्योंकि उनका ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से प्रेम है। इस प्रेम में कोई स्वार्थ नहीं है। उसकी बुद्धि पूरी तरह से ईश्वर में ही स्थित रहती है। उसका मन भी ईश्वर में लीन होता है। 

अर्जुन: हे केशव! तो क्या जो लोग धन की कामना से, किसी संकट की स्थिति में या जिज्ञासावश आपकी भक्ति करते हैं, वे बुरे व्यक्ति हैं?वे आपको प्रिय नहीं हैं। 

श्री कृष्ण: ईश्वर की दृष्टि में कोई व्यक्ति अप्रिय नहीं है। अपने दृष्टिकोण से सभी सही कर रहे हैं। अगर ज्ञानी व्यक्ति ईश्वर की दृष्टि में सर्वाधिक प्रिय है, तो इसलिए कि उसे अपने जीवन के वास्तविक कर्तव्यों का बोध है। 

अनेक जन्मों की साधना है तत्वज्ञान

अर्जुन: ऐसा क्यों होता है कि एक व्यक्ति अल्प आयु में और थोड़े श्रम के बाद ही साधना की उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेता है और दूसरा व्यक्ति अनेक वर्षों की साधना के बाद भी अध्यात्म के क्षेत्र में वैसी सफलता अर्जित नहीं कर पाता है?

श्री कृष्ण: वर्तमान जन्म के प्रयत्न के साथ-साथ पूर्व जन्म के ईश्वर प्राप्ति के प्रयत्नों और अच्छे कार्यों का भी इस जन्म की उच्चतर साधना अवस्था के विकसित होने में महत्वपूर्ण योगदान होता है अर्जुन!

अर्जुन: हे श्री कृष्ण!ऐसा भी है कि संसार में अनेक लोग अनेक कामनाओं से प्रेरित होकर विविध देवताओं की उपासना करते हैं। उन्हें उनका वांछित फल प्राप्त होते भी देखा गया है। यह भी तो एक मार्ग है। 

श्री कृष्ण: ऐसे उपासक जो किसी विशिष्ट फल की प्राप्ति के लिए या भोगों की प्राप्ति के लिए देवी देवताओं की पूजा करते हैं उनका उद्देश्य वहीं तक सीमित रह जाता है। मैंने पहले ही तुम्हें चार श्रेणी के भक्तों की बात बताई है। क्या इच्छित भोगों और फलों की प्राप्ति के बाद उनके जीवन में और कोई कामना शेष नहीं रहती?

अर्जुन :ऐसा नहीं है प्रभु! कामनाओं को लेकर तो आपके द्वारा बताया गया यही सच है कि यह एक के बाद एक अनेक कामनाओं को जन्म देती है और अंततः असंतुष्टि की प्राप्ति होती है। 

चाहे जो विधि हो मार्ग जाता है उसी सर्वोच्च की ओर

अर्जुन :हे केशव जब इस जगत में आप सर्वोच्च हैं तो लोग अनेक तरह के देवी-देवताओं की उपासना क्यों करते हैं? ऐसा करना उस सर्वशक्तिमान ईश्वरतत्व से विरोध ही तो है। 

श्री कृष्ण: ईश्वर तत्व का उन देवताओं की भक्ति से विरोध कैसा? अगर साधक अपने वांछित देवों की पूजा कर रहा है तो मैं भी उसकी बुद्धि उन्हीं देवताओं में स्थिर कर देता हूं ताकि उनकी पूजा सफल हो, अंततः उनकी यह पूजा मेरे ही विधान से होती है। मुझ तक ही पहुंचती है और उन्हें मनोवांछित फल प्रदान करवाने में मेरी ही भूमिका है। तथापि ऐसे फल नाशवान होते हैं वहीं मेरी पूजा करने वाले भक्त, मेरा स्मरण- ध्यान करने वाले भक्त अंत में मुझे ही प्राप्त होते हैं। 

अर्जुन का रोम-रोम हर्षित हो उठा। वे सोचने लगे, श्री कृष्ण जो साक्षात ईश्वर हैं, मेरा भ्रम दूर करने के लिए ऐसे अनेक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को मेरे समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं; जो सांसारिक व्यक्तियों के लिए गूढ़ ही रह जाते। मैंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है और अनेक साधुओं की मंडली में बैठकर ज्ञान लाभ प्राप्त करने का भी मुझे सौभाग्य मिला लेकिन ऐसी दिव्य वाणी…. ऐसा अद्भुत ज्ञान और ऐसी नवीन दृष्टि आज से पहले मुझे कभी प्राप्त नहीं हुई थी। 

आधुनिक काल में श्लोकों की विवेचना करते हुए आचार्य सत्यव्रत के सम्मुख विवेक ने जिज्ञासा प्रकट की, "आचार्य! बहुत संभव है कि अगर अर्जुन को श्री कृष्ण से गीता का उपदेश प्राप्त करने का सौभाग्य नहीं मिलता और युद्ध संपन्न भी हो जाता तो भी उनके मन में प्रश्न उमड़ते -घुमड़ते रहते और अर्जुन साधना के लिए संभवत: शीघ्र ही संन्यास के पथ का भी अनुसरण करते;लेकिन उन पर यह ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा है। उचित और  निर्णायक अवसर पर उन्हें यह महाज्ञान प्राप्त हो रहा है। 

आचार्य सत्यव्रत ने कहा, "श्री कृष्ण ने किसी मत का खंडन नहीं किया है। यह उनकी एक बहुत बड़ी विशेषता है। अगर यह पृथ्वी एक वृहद कुटुंब है तो ऐसी विराट सोच श्री कृष्ण जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व के द्वारा ही संभव है। "

विवेक:"जी आचार्य! सज्जनों के साथ सज्जनता का व्यवहार और दुष्टों के साथ कठोरता की नीति का पालन करते हुए भी श्री कृष्ण अत्यंत उदार सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने मत का दृढ़ता से पालन करते हुए भी एक समन्वय भाव की शिक्षा है उनके वचनों में। यही कारण है कि उनके विचारों में अन्य देवों की उपासना करने वाले भक्तों के प्रति अस्वीकार तत्व नहीं है। "