Kurukshetra ki Pahli Subah - 20 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 20

Featured Books
Categories
Share

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 20

20.साथ तेरा

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुख का ध्यान योगी जिस अवस्था में अनुभव करता है, वह उस सुख में स्थित हुआ फिर कभी तत्त्व(बोध)से विचलित नहीं होता। 

भगवान श्री कृष्ण द्वारा महा आनंद के तत्व की विवेचना से अर्जुन का मन भावविभोर हो उठा। वे सोचने लगे, कितना अच्छा हो अगर मनुष्य हर घड़ी उस परमात्मा तत्व के आनंद में डूबा रहे। ध्यानमग्न रहे। श्री कृष्ण तो यह भी कहते हैं कि हमें अपना कर्म करते समय अर्थात अन्य कामकाज का संचालन करते हुए भी उस महा आनंद के बोध की अपने भीतर अनुभूति होती है। 

अर्जुन ने प्रश्न किया, हे गिरिधर !क्या जीवन में दुख का प्रसंग आने पर भी ऐसा योगी उस आनंद तत्व से विचलित नहीं होता और दुख उसे नहीं घेरते?

श्री कृष्ण :दुख उसे घेरते अवश्य हैं, लेकिन वह बड़े भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता। वह इस तथ्य को जानता है कि एक बार उसने परमात्मा तत्व की प्राप्ति कर ली है, जिससे उसका सदा संयोग है। इसके अलावा अन्य दायित्वों का निर्वहन करते हुए भी उसे परमात्मा तत्व का विस्मरण नहीं है। 

अर्जुन: तो इसका अर्थ यह है कि उसके जीवन में जो लाभ तत्व है वह परमात्मा तत्व के लाभ से बढ़कर नहीं है। 

श्री कृष्ण: हां अर्जुन!परमात्म तत्व सदा उसके साथ है, इसलिए उसे कुछ खोना भी नहीं है। ऐसा योगी दुख की स्थिति में भी संयत रहता है। विचलित नहीं होता क्योंकि दुख के आगे भी जीवन है। 

अर्जुन ने इस सूत्र को ग्रहण किया: -

परमात्मस्वरूप में मन(बुद्धि समेत) को उचित तरीके से स्थापन कर इसके बाद और कुछ भी चिन्तन न करें। 

अर्जुन ने पूछा: -सिद्ध साधकों के लिए तो यह आसान है कि वह परमात्मा के सिवाय और किसी भी चीज का चिंतन करें लेकिन साधारण मनुष्य का तो बार-बार ध्यान विषयों की ओर जा सकता है। 

श्री कृष्ण: तुमने ठीक कहा अर्जुन! मन की स्वाभाविक स्थिति चंचलता की है। व्यावहारिक जीवन में मनुष्य को ऐसी अनेक परिस्थितियों से गुजरना होता है, जहां उसके सामने अनेक विकल्प होते हैं। जीवन पथ पर चलते हुए कहीं प्रलोभन होता है तो कहीं पर सीमित प्रयत्न से अधिक परिणाम प्राप्त करने और अपने संसाधन को बचाने की चुनौती होती है। 

अर्जुन: ऐसे में क्या उपाय है प्रभु? ईश्वर साधना का मार्ग छोड़ देना या फिर मन को ईश्वर से भटकने की स्थिति में हठात रोक देना। 

भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया: स्वाभाविक है कि मनुष्य का मन विषयों की और दौड़ेगा। मन केवल अपने साथ यहां वहां नहीं भटकता बल्कि यह इंद्रियों को भी खींचता है। ऐसे में मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों का विस्मरण कर लक्ष्य से भटक जाता है। अतः जिनके मन भटक रहे हैं, वे हठात रोकने के बदले ऐसी स्थिति निर्मित करें कि मन को विवेक से निर्णय लेते हुए उन विषयों की निस्सारता का बोध हो जाए और बलपूर्वक रोकने के बदले मन स्वयं इंद्रियों को विषयों की ओर आकर्षित होने से रोक दे। 

अर्जुन:-समझ गया प्रभु बलपूर्वक रोकने से अच्छा है, स्वेच्छा से मन को यहां-वहां भटकने ही न देना। 

अर्जुन को फिर गुरु द्रोण के शब्द याद आने लगे। केवल पालथी मोड़कर आसन जमाकर योग और ध्यान का अभ्यास करना ही योग नहीं है। तुम्हें धनुर्विद्या पसंद है न अर्जुन?

अर्जुन: जी आचार्य!

गुरु द्रोण:तो इस अभ्यास में ही योग है। जब तुम अपने लक्ष्य के संधान में डूब जाओगे तो यही योग है। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन की बात जान ली और हंसते हुए कहने लगे:-तुम्हारा तो हर क्षण योगयुक्त है अर्जुन। जब धनुष बाण धारण किए हो तब भी और चाहे धनुष बाण के बिना सामान्य कामकाज कर रहे हो तब भी। विषयों से ध्यान हटाए रखना तो हर स्थिति में आवश्यक है। 

अर्जुन के हाथ श्रद्धा में अनायास जुड़ गए। उसने कहा- जी जनार्दन!