Kurukshetra ki Pahli Subah - 16 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 16

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 16

16:पा लें सामर्थ्य

योगी एकांत में अपनी आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाने का अभ्यास करता है। अर्जुन ने श्री कृष्ण से योग और ध्यान के लिए आसन लगाने की पद्धति के बारे में पूछा। 

श्री कृष्ण: आसन शुद्ध भूमि में होना चाहिए। इसके ऊपर कुशा, मृगछाला और साफ वस्त्र बिछा होना चाहिए। 

अर्जुन: अवश्य भगवन! भूमि अस्वच्छ न हो बल्कि यह साफ हो; इससे लाभ यह होगा कि साधना के प्रारंभ होने के समय ध्यान लगाने में सुविधा होगी। 

अर्जुन सोचने लगे। कुशा या चटाई तापमान रोधक का कार्य करती है और योगासन के समय हमारे द्वारा प्राप्त की गई ऊर्जा का भूमि में विसर्जन नहीं होता है। मृगछाला जमीन पर रेंगने वाले कीटों आदि से बचाव करती है। मृगछाला के संभव न होने पर लोग कंबल का भी प्रयोग किया करते हैं। इसके ऊपर वस्त्र बिछा होने से यह शरीर के लिए सुविधाजनक हो जाता है। 

अर्जुन: हे भगवन!क्या आसन की ऊंचाई का भी ध्यान रखना होता है?

श्री कृष्ण: हां अवश्य!आसन न बहुत ऊंचा हो और न बहुत नीचा हो। यह आसन स्थिर हो, ताकि साधकों को कोई बाह्य बाधा न हो। 

अर्जुन: जी भगवन! इस आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना होगा। 

श्री कृष्ण: तुमने सही कहा पार्थ! लेकिन ध्यान यह रखना है कि इस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखना होगा। इसका अभ्यास आवश्यक है। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन को ध्यान लगाने के समय शरीर की अचल स्थिति, सिर और गले को समान तथा स्थिर रखने एवं नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमा कर अन्य दिशाओं को न देखने का निर्देश दिया। अर्जुन मन ही मन भाव विभोर हो उठे। बचपन में गुरु द्रोणाचार्य ने अपने आश्रम में इस तरह की ध्यान की विधियों का अभ्यास कराया था। तब अर्जुन ध्यान के समय अधखुले नेत्रों का रहस्य अच्छी तरह से समझ नहीं पाए थे। आज उन्हें भान हुआ कि जैसे उनके अंतर्मन का सारा संकेंद्रण और बाहर की सारी दुनिया सिमट कर उसे एक बिंदु पर आ गई है जहां उन्हें ध्यान लगाना आसान हो रहा है और मन में अनेक तरह के विक्षोभ और विचलन भी उस बिंदु पर ध्यान केंद्रित करने से तिरोहित होते जाएंगे। 

सीधे छलांग लगाने के बदले चरणबद्ध प्रक्रियाओं से सधता है योग

श्री कृष्ण का दायां हाथ ऊपर है। वे अंगुली से ऊपर आसमान की ओर इशारा कर रहे हैं। बाएं हाथ में शंख है। उनके उत्तरीय का एक छोर उनके बाएं हाथ में है और हवा के झोंके के साथ हल्का-हल्का हिल रहा है। उनके मुख पर वही चिर परिचित मुस्कान है। 

श्री कृष्ण आगे कह रहे हैं: -जिसका अंतःकरण शांत है, जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित है, जिसे किसी प्रकार का भय नहीं है, ऐसा साधक अपने मन पर नियंत्रण कर मुझमें (परमात्मा में) ध्यान लगाए और मुझमें ही स्थित हो जाए। अर्जुन के हाथ एक बार फिर प्रणाम मुद्रा में जुड़ गए। 

भगवान कृष्ण ने घोषणा की:- इस तरह जिसने अपने मन को बांधना सीख लिया है और अपनी आत्मा को परमात्मा के स्वरूप में लगाने का अभ्यास कर लिया है; वह उस परमात्मा तत्व की प्राप्ति के महाआनंद को प्राप्त कर लेता है। 

भगवान कृष्ण ने जिस योग मार्ग का प्रतिपादन किया, उसे सामान्य व्यक्ति भी अभ्यास के माध्यम से प्राप्त कर सकता है। अति का निषेध होना चाहिए यह सूत्र वाक्य अर्जुन बचपन से ही सुनते आ रहे थे। आज भगवान श्री कृष्ण ने  अपनी वाणी से इसे और स्पष्ट कर दिया। यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। 

अर्जुन ने कहा, " तो इसका अर्थ यह है भगवन कि योग की सफलता के लिए मानसिक प्रयत्न के साथ-साथ शरीर की साधना भी आवश्यक है। "

(ध्यान की संपूर्ण विधियों का योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही अभ्यास किया जाना चाहिए। )