Kurukshetra ki Pahli Subah - 3 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 3

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 3

(3) आनंद है वर्तमान

समय जैसे ठहर सा गया है। श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन से वार्तालाप शुरू होते ही कौरवों और पांडवों की विशाल सेना योग निद्रा के अधीन हो गई। सभी अचंभित और जड़वत हैं। अपनी दूरदृष्टि से महाराज धृतराष्ट्र को यह गाथा सुनाते हुए संजय भी कुछ देर के लिए ठिठक जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद वे कुरुक्षेत्र के मैदान में घट रही घटनाओं का पुनः सजीव वर्णन प्रस्तुत करते हैं। 

अर्जुन सोचने लगे कि वासुदेव ठीक कहते हैं। अगर मैं स्वरूप का पूर्ण ज्ञान नहीं रखने के कारण आत्मा को मरा हुआ मानता हूं, तब भी जन्म और मृत्यु ये दोनों द्वंद्व शब्द हैं, अतः जन्म लेने वाले की मृत्यु होगी और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म भी सुनिश्चित है। अतः इस दृष्टिकोण से भी मुझे शोक नहीं करना चाहिए। 

अर्जुन ने पूछा: हे जनार्दन! इस जन्म के पूर्व हमारी क्या स्थिति रहती है और इस जन्म के अवसान के बाद हम कहां जाते हैं?

श्री कृष्ण: तुम, मैं और हम सब काल की एक विस्तृत धारा की यात्रा कर रहे हैं। हम उस अनंत यात्रा का एक छोटा सा पड़ाव धरती पर व्यतीत कर रहे हैं। धरती पर तो इस जन्म के पहले सभी प्राणी अप्रकट थे और इस देह के अवसान के बाद भी वे अप्रकट ही हो जाएंगे। हमारी समय यात्रा का केवल उतना ही भाग दृष्टिगोचर होता है, जितना हम इस धरती पर व्यतीत करते हैं। 

अर्जुन: तो इसका यह अर्थ है योगेश्वर कि युद्ध भूमि में शरीर को तो मारा जा सकता है लेकिन इसमें निवास करने वाली आत्मा को नहीं। 

श्री कृष्ण :तुमने बिलकुल ठीक समझा अर्जुन! वैसे भी तुम अपने योद्धा धर्म का पालन करते हुए इस युद्ध भूमि में खड़े हो। इस तरह के धर्म युद्ध को भाग्यवान योद्धा ही प्राप्त करते हैं। अगर तुम इस धर्म युद्ध युद्ध से पीछे हट आओगे तो न सिर्फ अपना योद्धा धर्म बल्कि अपनी कीर्ति भी खो दोगे। विराटनगर के युद्ध में तुमने अकेले ही सारी कौरव सेना को धूल चटा दी थी। आज भी इस राष्ट्र के विभिन्न गुरुकुलों में जब धनुर्विद्या का अभ्यास प्रारंभ होता है तो आदर्श के रूप में तुम्हारा ही उदाहरण दिया जाता है। इस युद्ध से अपने पांव पीछे खींच लेने से क्या तुम्हारा अपयश नहीं होगा पार्थ?

अर्जुन: मैं समझ रहा हूं प्रभु! दुर्योधन और उसकी पूरी सेना तो मुझे कायर कहकर प्रचारित करेगी। 

श्री कृष्ण: पराजय के भय से हटा हुआ योद्धा घोषित किया जाना, क्या इस निंदा वचन को तुम सहन कर पाओगे? इसलिए युद्ध करने को तत्पर हो जाओ अर्जुन! या तो तुम इस युद्ध को जीतकर पृथ्वी का राज्य प्राप्त करोगे या फिर इस युद्ध में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर स्वर्ग के अधिकारी होगे। 

अर्जुन:लेकिन केशव इस युद्ध के प्रारंभ होने से पहले , इस युद्ध के प्रारंभ होने के समय और इस युद्ध की समाप्ति के समय तक मैं न जाने किन- किन मार्मिक घटनाओं और द्वंद्वों से होकर गुजरूंगा। क्या मैं उन सब का सामना कर पाऊंगा?

श्री कृष्ण: क्यों नहीं अर्जुन! अगर तुम जीत- हार, लाभ - हानि, सुख और दुख को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार होगे तो न सिर्फ अपना श्रेष्ठतम दे पाओगे बल्कि अपने योद्धा धर्म से भी न्याय कर पाओगे। 

अर्जुन: तो हे प्रभु! क्या मेरा कार्य क्या यह देखना नहीं है कि इस युद्ध का परिणाम क्या होगा?

श्री कृष्ण: परिणाम की आशा लगाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है विजय के परिणाम को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयत्न करना। अब चाहे भले ही युद्ध के बाद जीत मिले या हार मिले। एक योद्धा के रूप में तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है। इसी में आनंद है। 

अर्जुन:जी केशव!