Sukh Ki Khoj - Part - 7 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | सुख की खोज - भाग - 7

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सुख की खोज - भाग - 7

कल्पना की गोदी में जाते ही बच्ची ने रोना बंद कर दिया। उसने बच्ची को आँचल में छिपा कर अपनी छाती से लगा लिया। बच्ची दूध पीने लगी। यह दृश्य प्यार की ऐसी फुहार कर रहा था जिसे देख कर स्वर्णा के शरीर में एक अजीब-सी सिहरन होने लगी। एक अजीब-सी बेचैनी होने लगी। उसे लग रहा था मानो कुछ छूटा जा रहा है। वह तड़प उठी उसका मन कर रहा था कि काश वह बच्ची को उठाकर अपनी छाती से लगा सके। लेकिन उसकी छाती में बच्ची को पिलाने के लिए अमृत तुल्य दूध कहाँ था।

कल्पना इतनी देर से स्वर्णा के हाव भाव देखकर उसकी तड़प, उसकी मानसिक गतिविधि की हलचल को समझ रही थी। बच्ची का पेट भरते ही कल्पना ने बच्ची को स्वर्णा की गोदी में दे दिया। तब स्वर्णा बड़े ही प्यार से उसे अपनी बाँहों में इस तरह भर रही थी कि यदि उसका बस चले तो वह कल्पना की तरह उसे अपने सीने से दूध पिला दे किंतु यह उसके लिए केवल एक सपना था जिसे वह चाह कर भी पूरा नहीं कर सकती थी।

कल्पना और बच्ची दोनों स्वस्थ थे इसलिए उन्हें अस्पताल से जल्दी ही छुट्टी भी मिल गई। अब फिर कल्पना को स्वर्णा के घर जाना पड़ा। स्वर्णा बच्ची को गोद में लेती तो कई बार बच्ची रोने लगती और कल्पना की गोदी में जाते ही शांत भी हो जाती। कल्पना जब भी उसे दूध पिलाती वह अपने कोमल फूलों जैसे हाथों से कल्पना के स्तन को छूती रहती। कभी-कभी मुंह हटा कर कल्पना की तरफ़ देखने लगती। जैसे अक्सर सभी बच्चे करते हैं। स्तन को थपथपाना, मुस्कुरा कर माँ का चेहरा देखना।

यह सब देखकर स्वर्णा भी इसी एहसास को महसूस करना चाह रही थी। तब उसे अपने पापा और मम्मी की बातें याद आ रही थीं कि बेटा यह तो सुंदर उपहार है। इसका एहसास भी स्वर्ग की अनुभूति कराता है। लेकिन वह अपने आप को इस सुख से वंचित समझ रही थी। उसकी बेटी उसके साथ भी ऐसा ही करे लेकिन यह कैसे संभव था। कल्पना की धड़कनों का एहसास करने वाली स्वर्णा की बेटी अपनी माँ की धड़कनों को पहचान नहीं पाई थी। उसे उस कोख में रहने का स्वर्णा ने मौका ही नहीं दिया जिस पर केवल उसका हक़ था। उसे तो किराये के मकान में रखा गया था और वह उसे ही अपना घर समझने लगी थी। देखते-देखते चार माह गुजर गए। कल्पना ने अपना फ़र्ज़ पूरा करके अपनी दोस्ती निभा दी। वह स्वर्णा की मनःस्थिति अच्छी तरह से समझ रही थी।

तब एक दिन उसने कहा, "स्वर्णा मैं समझ सकती हूँ, तेरे मन में कितनी बेचैनी है, कितनी तड़प है। देख चार माह हो गए, मुझे लगता है अब मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए। तेरी बेटी के लिए तेरे लिए और मेरे भी लिए यही ठीक होगा स्वर्णा। मैंने पिछले एक महीने से तुझ से पूछे बिना उसे बोतल से दूध पिलाने की आदत डाल दी है ताकि तुझे और उसे तकलीफ ना हो। मैं समझ सकती हूँ मेरे आँचल में हंसती खेलती, खिलखिलाती, तेरी बेटी को जब तू देखती है तेरा मन भी वैसा ही करना चाहता है। लेकिन स्वर्णा हमें सब कुछ नहीं मिल सकता, चाहे कितनी भी दौलत हो हम किसी की भी कोख खरीद सकते हैं लेकिन वह एहसास ...? वह नहीं खरीद सकते। स्वर्णा ज़्यादा से ज़्यादा पाँच साल और तुझे इस रंगीन दुनिया में लोग पूछेंगे। उसके बाद जब उम्र और यह जवानी ढलान पर होगी तब पूछने वाला कोई ना होगा। स्वर्णा अभी भी तेरे पास समय है यदि तू इस एहसास को महसूस करना चाहती है, उसे जीना चाहती है तो अपने दूसरे बच्चे के लिए किसी की भी कोख उधार मत लेना।"

स्वर्णा ने कल्पना को अपने गले से लगा लिया। दोनों की आँखें आँसुओं से भीग रही थीं। उसके बाद कल्पना ने अपना सूटकेस तैयार कर लिया।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः